बंग भंग के अनुत्तरित सवाल

Last Updated 03 Apr 2021 11:50:59 PM IST

बांग्लादेश जिस समय अपनी स्वाधीनता की स्वर्ण जयंती और राष्ट्रपिता बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान का शताब्दी वर्ष मना रहा है, उसी दौरान देश में इस्लामिक कट्टरपंथ से उत्पन्न चुनौतियां भी उजागर हुई हैं।


बंग भंग के अनुत्तरित सवाल

स्वाधीनता के हषरेल्लास के बीच देश के अनेक हिस्सों में हिंसक प्रदर्शन हुए और जान-माल की भारी क्षति हुई। हिंसा का शिकार मुख्य रूप से हिंदू अल्पसंख्यकों को बनना पड़ा। बांग्लाभाषी समाज में हिंदू-मुस्लिम संबंधों की जटिलता और समस्या सीमा के आरपार दोनों भूभागों में किसी न किसी रूप में कायम है। इसका कारण अतीत में तलाशा जा सकता है।
पिछली सदी के प्रारंभ में अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति के आधार पर हिंदू और मसलमानों की जनसंख्या के आधार पर बंग भंग किया था। इसके विरुद्ध चले व्यापक जनांदोलन के कारण बंग भंग का फैसला वापस लिया गया और पूरे भूभाग का फिर एकीकरण हुआ, लेकिन मजहब के आधार पर विभाजन की जो विचारधारा अंग्रेज शासकों ने रोपी थी, वह कायम रही। मुस्लिम लीग ने इसी विभाजन के आधार पर बंग भंग ही नहीं किया, बल्कि देश का विभाजन कर दिया। इतिहास के लंबे कालखंड के विभिन्न उतार-चढ़ावों के बावजूद पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश दोनों अपनी भाषायी, जातीय पहचान और अंतरधार्मिक संबंधों के सामने मौजूद चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। मुस्लिम बहुसंख्यक बांग्लादेश और हिंदू बहुसंख्यक पश्चिम बंगाल में चुनौतियों का स्वरूप अलग-अलग है, लेकिन अंतर्निहित हकीकत विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध और समरसता के मुद्दे हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बांग्लादेश यात्रा के दौरान ही वहां हिंसा का तांडव शुरू हुआ। अनेक नगरों में कट्टरपंथी इस्लामी संगठन ‘हिफाजत-ए-इस्लाम’  की अगुवाई में विरोध प्रदर्शन हुए जिनने हिंसक रूप ले लिया। यह सब उस समय हुआ जब प्रधानमंत्री शेख हसीना देश के स्वतंत्रता समारोह में दक्षिण एशिया के शीर्ष नेताओं का स्वागत कर रही थीं। नेपाल, श्रीलंका और भूटान के नेताओं ने इस समारोह में शिरकत की। इससे क्षेत्रीय कूटनीति में बांग्लादेश के दरजे और साख में इजाफा हुआ। यह बात और है कि ‘हिफाजत-ए-इस्लाम’ के करतूतों के कारण देश में अशांति और अस्थिरता मीडिया की सुर्खियों में छाए रहे। प्रधानमंत्री मोदी ने बांग्लादेश में अपने संबोधन के दौरान आगाह किया था कि मजहबी क ट्टरता की सोच और विचारधारा दोनों देशों के लिए साझा चुनौती है। आतंकवाद और मजहबी उग्रवाद को हराने के लिए मिलकर काम करना होगा।  

बांग्लादेश के घटनाक्रम पर भारत के बुद्धिजीवी वर्ग और मीडिया में गहन विश्लेषण नहीं हुआ। मजहबी कट्टरवाद की जड़ें कितनी गहरी हैं, और इसका स्त्रोत क्या है, इस पर खास विचार नहीं किया गया। मोटे रूप में इसे कानून-व्यवस्था की समस्या के रूप में लिया गया। बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तस्लीमा नसरीन और अमेरिकी कांग्रेस की पूर्व सांसद तुलसी गबार्ड ने इस्लामी उग्रवाद के बारे में बेबाक राय रखी। उनके विचार किसी खुशफहमी पर आधारित नहीं थे, बल्कि सामने मौजूद सच्चाई का सामना करने का प्रयास थे। तस्लीमा ने बांग्लादेश के वर्तमान घटनाक्रम के लिए शेख हसीना को ही कठघरे में खड़ा किया। उनका कहना था कि शेख हसीना ने अपने मुख्य विरोधी दलों से निबटने के लिए ‘हिफाजत-ए-इस्लाम’ जैसे संगठनों को बढ़ावा दिया जो आज उनके लिए समस्या बन गए हैं। तस्लीमा ने कहा कि उनकी पुस्तक ‘लज्जा’ के विरुद्ध देशव्यापी प्रदर्शन हुए थे जिसके कारण उन्हें निर्वासन में जाना पड़ा। यदि उसी समय कट्टरपंथियों के विरुद्ध कार्रवाई की गई होती तो आज हालात ऐसे नहीं होते।
तुलसी गबार्ड ने भी इस्लामी जिहाद की विचारधारा के खतरे के बारे में एक वीडियो संदेश जारी किया है। उन्होंने कहा कि बांग्लादेश की आजादी के बावजूद वहां हिंदू अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न रुका नहीं है। वह मुख्य रूप से सऊदी अरब और कतर जैसे देशों को इस्लामी जिहादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए जिम्मेदार ठहराती हैं। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजों से यह पता लगेगा कि सामान्य बंगलाभाषी इस पूरी समस्या के प्रति क्या सोचता है। खतरे से निबटने के लिए वह किस राजनीतिक दल को यह जिम्मेदारी सौंपता है, यह तो नतीजों के बाद ही पता चलेगा।

डॉ. दिलीप चौबे


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