किसान आंदोलन : जिद तो रोकेगी रास्ता

Last Updated 14 Jan 2021 12:30:15 AM IST

कृषि कानूनों के विरोध में चल रहा आंदोलन ऐसे मोड़ पर पहुंच गया है जहां से अनुमान लगाना कठिन है कि आगे क्या होगा?


किसान आंदोलन : जिद तो रोकेगी रास्ता

आठवें दौर की बातचीत में सरकार की ओर से स्पष्ट कर दिया गया है कि कानून वापस नहीं होगा। सरकार की ओर से वार्ता में शामिल 40 संगठनों के नेताओं से तीन बातें कही गई। एक, आप लोग कृषि कानून के विरोध में हैं, लेकिन काफी लोग समर्थन में हैं। दो, आप देशहित का ध्यान रखकर निर्णय करिए; और, तीसरी यह कि आपके पास कानूनों की वापसी का कोई वैकल्पिक प्रस्ताव हो तो उसे लेकर आइए जिस पर बातचीत की जा सके।
आप इन तीनों बिंदुओं का गहराई से विश्लेषण करें तो बातचीत में सरकार की ओर से कुछ बातें पहली बार साफ कही गई हैं। देश में कृषि कानूनों का समर्थन है और आप देश हित का ध्यान रखते हुए निर्णय करें इसका मतलब है कि आपका विरोध देशहित में नहीं है। दूसरे, आपका विरोध क्षेत्रीय स्तर पर है, और हमें पूरे देश का ध्यान रखना है यानी देश में इसका समर्थन है, इसलिए हम कृषि कानून को वापस नहीं ले सकते। बातचीत के बाद कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा भी कि हमने उनसे वैकल्पिक प्रस्ताव की बात की थी..कोई वैकल्पिक प्रस्ताव आया नहीं इसलिए चर्चा हुई नहीं। उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय के फैसले का सम्मान करना हम सबका दायित्व है। प्रश्न है कि अब आगे होगा?

आंदोलनरत किसान साफ कह रहे हैं कि उन्हें कृषि कानूनों की वापसी के अलावा कुछ भी स्वीकार नहीं। वार्ता में ही एक प्रतिनिधि ने जीतेंगे या मरेंगे का प्लेकार्ड उठा लिया। देखा जाए तो सरकार और आंदोलनकारी इस मामले पर पहले दिन से ही दो ध्रुवों पर हैं। आंदोलन की शुरु आत के साथ ही सरकार ने साफ कर दिया था कि कृषि कानूनों को वापस नहीं लेगी। अलबत्ता, इसमें कहीं संशोधन की जरूरत है, तो उसके लिए तैयार है। कानून के परे भी वाजिब मांगें हैं, तो उन पर बातचीत कर रास्ता निकालने के लिए भी तैयार है। इन्हीं आधारों पर 9 दिसम्बर का प्रस्ताव भी सरकार ने दिया किंतु इसके समानांतर भाजपा के प्रवक्ता और कुछ मंत्रियों ने इस आंदोलन में हिंसक नक्सली अराजक तत्वों आदि की पैठ की बात करके सरकार और सत्तारूढ़ दल की मंशा स्पष्ट कर दी थी।
जब हम किसी बातचीत में शामिल होते हैं  तो लोकतांत्रिकता का तकाजा है कि उसमें जिद, आग्रह, दुराग्रह, पूर्वाग्रह आदि नहीं होने चाहिए। दुर्भाग्य से इसमें ये सारे नकारात्मक तत्व शामिल हैं। तीनों कृषि कानून एक दिन में पैदा नहीं हुए। अगर इनमें दोष या कमी है तो परिवर्तन, संशोधन की बात समझ में आती है। लेकिन यह जिद कि जब तक कानून वापस नहीं करेंगे हम आंदोलन जारी रखेंगे, वास्तव में आरपार के युद्ध का स्वर देता है। आंदोलन में दोनों पक्ष पीछे हटते हैं तभी समझौता होता है। सरकार ने अपने प्रस्तावों में कई मांगों को संशोधन में शामिल करने की बात कह कर पीछे हटने का संकेत दिया। यह भी प्रस्ताव दिया कि विशेषज्ञों सहित किसान संगठनों एवं अन्यों की समिति बना दी जाए। आरंभिक सुनवाई में उच्चतम न्यायालय ने भी यही कहा था कि बातचीत सफल नहीं होती है तो एक समिति बनाई जा सकती है। आंदोलनकारी कह रहे हैं कि समिति नहीं चाहिए। तो क्या चाहिए? उनका  स्टैंड यह भी है कि हमको सुप्रीम कोर्ट का दखल भी नहीं चाहिए। कुछ संगठनों का बयान है कि हम तो सुप्रीम कोर्ट गए नहीं थे।
आप कानूनों में संशोधनों से मानेंगे नहीं, समिति का गठन आपको स्वीकार नहीं और उच्चतम न्यायालय पर मामला छोड़ना आप उचित नहीं मानते तो फिर चाहते क्या हैं? यहीं पर आंदोलन को लेकर उठ रही आशंकाएं बलवती होती हैं। इसमें दो राय नहीं कि वामपंथी दल, कांग्रेस, राकांपा, अकाली दल, सपा आदि विरोधी दल तथा मोदी और भाजपा विरोध से भरे गैर-दलीय संगठन व एक्टिविस्ट आंदोलन को मोदी विरोधी राजनीति के बलवती होने का अवसर मानकर हरसंभव भूमिका निभा रहे हैं। आंदोलनरत संगठनों का स्टैंड तो यही है कि हमें किसी राजनीतिक दल का साथ नहीं चाहिए लेकिन प्रच्छन्न रूप में सब कुछ चल रहा है।  सरकार के भी अपने खुफिया सूत्र हैं। अगर उसे मालूम है कि कृषि कानूनों को हथियार बनाकर हमारे विरोधी हमको दबाव में लाने तथा अशांति और अस्थिरता पैदा करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं, तो वह इनके सामने काहे झुकेगी।
दुर्भाग्य की बात है कि कृषि और किसानों से संबंधित अनेक मुद्दों को लेकर रचना और संघषर्, दोनों स्तरों पर काम करने की जरूरत है। आप धरातल पर कृषि सुधारों के लिए निर्माण का सकारात्मक अभियान चलाएं और जहां-जहां सरकारी बाधाएं हैं, उनके लिए संघर्ष करें। आंदोलन में वे वास्तविक मुद्दे गायब हैं। इनमें कई संगठन हैं, जिन्होंने कानून सामने आने पर समर्थन किया था। योजनापूर्वक ऐसा माहौल बनाया गया कि वे सब दबाव में आकर विरोध करने लगे। आंदोलन आगे बढ़ने के साथ ही कई संगठनों को लगा कि सामने भले चेहरा उनका है, पीछे से हथियार चलाने वाले ऐसे दूसरे भी हैं, जो सरकार के साथ समझौता नहीं होने दे रहे। लेकिन माहौल का दबाव ऐसा है जिसमें अगर वे पीछे हटे तो हाशिए पर फेंस दिए जाएंगे। ऐसी स्थिति में न किसी की मध्यस्थता संभव है और न ही बीच का रास्ता।
दुखद यह भी है कि इन सबकी जिद के कारण अनेक किसानों की मृत्यु हो गई। कायदे से सड़क घेरने के विरुद्ध कार्रवाई होनी चाहिए। आंदोलन के लिए उनको निरंकारी मैदान दिया गया था। इनके खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई जिसका कुछ अर्थ तो है यानी सरकार नहीं चाहती कि इनके खिलाफ बल प्रयोग करके विरोधियों की आग लगाने की चाहत को पूरा करने का अवसर दे। दूसरी ओर विरोधियों की रणनीति से साफ है कि वे ऐसे हालात पैदा करना चाहते हैं कि अंतत: प्रशासन को मजबूर होकर बल प्रयोग करना पड़े, हिंसा में कुछ लोग हताहत हों और फिर मोदी सरकार के विरु द्ध माहौल की जमीन तैयार हो। यह खतरनाक मंसूबा है। कुछ लोगों ने इसमें कट्टर मजहबी भावनाएं भी भरने की कोशिश की है। पंजाब में अराजक तत्वों ने मोबाइल टावरों से लेकर कुछ सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचा कर अपना इरादा भी स्पष्ट कर दिया। अमरिंदर सिंह की सरकार जिस ढंग से मूक दशर्क बनी रही वह राज्य की विफलता का प्रमाण था। यह बात अलग है कि कुछ उद्योगों और कारोबारियों द्वारा पंजाब छोड़ने की घोषणा के बाद सरकार चेती और अब तोड़फोड़ बंद है। आंदोलनरत संगठनों और किसान नेताओं में जो भी दल निरपेक्ष हैं, उनको साहस के साथ आगे आना चाहिए। वास्तविक किसान संगठन सरकार के अंध विरोधियों का साथ छोड़ें तो रास्ता निकल जाएगा।

अवधेश कुमार


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment