परंपरा : उत्सव के बदलते रंग

Last Updated 06 Dec 2020 12:29:47 AM IST

वाराणसी में पिछले दिनों एक बार फिर देव दीपावली उत्सव में शामिल होने का अवसर मिला।


परंपरा : उत्सव के बदलते रंग

प्रतिवर्ष होने वाले इन उत्सवों का लंबे समय से साक्षी रहा हूं। इस बार लगा था कि कोरोना संकट के कारण शायद यह उत्सव पिछले वर्षो की भांति न मनाया जा सके, लेकिन इस वर्ष इसे पिछले वर्षो से अधिक चर्चा मिली। प्रधानमंत्री की शिरकत के कारण मीडिया में भी यह उत्सव लगातार छाया रहा। घाटों के साथ ही गंगा पार भी रेती पर इस उत्सव की भव्य आभा दिखी। इसके पन्द्रह दिनों पहले अयोध्या में दीपोत्सव मनाया गया, जिसे पिछले कुछ वर्षो से वाराणसी के देव दीपावली उत्सव की भांति ही आयोजित किया जा रहा है। इसमें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की शिरकत होती है।
वाराणसी में होने के कारण मैं देव दीपावली उत्सव की पूरी यात्रा का सहचर रहा हूं। करीब तीन दशक पूर्व इसे कुछ घाटों से शुरू किया गया था। वाराणसी में कार्तिक माह का महत्व प्राचीन काल से ही रहा है। पूरे कार्तिक माह गंगा स्नान करने वालों की भीड़ बढ़ जाती है। शरद पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक आकाशदीप जलते हैं और गंगा में दीपदान किया जाता है। घाटों पर माह पर्यन्त धार्मिंक आयोजन होते हैं। पंचगंगा घाट का तो कुछ ज्यादा ही महत्व होता है, जिसके बारे में मान्यता है कि वहां पांच नदियां मिलती हैं। हममें से बहुत सारे लोगों ने जयशंकर प्रसाद की आकाशदीप कहानी जरूर पढ़ी होगी। प्रसाद भी वाराणसी के ही थे। उन्होंने इस कहानी की नायिका के आकाशदीप जलाने की चर्चा की है। नायिका समुद्र मार्ग से किसी के आने की प्रत्याशा में यह दीप जलाती थी। माना जा सकता है कि जब आज की तरह समुद्रों में प्रकाश घर नहीं होते होंगे, तो समुद्र तट पर या द्वीपों पर ऐसे दीप जलाए जाते होंगे जिससे नाविकों को आसानी हो।

वाराणसी में ये दीप आज भी जलते हैं। इन दीपों को लंबे-लंबे बांसों पर बेंत की टोकरियों में जलाया जाता है। बांस घाटों के किनारे लगाए जाते हैं और उनके ऊपरी हिस्से पर घिरनी लगी होती है। बांस की टोकरियों में दीप जलाकर उन्हें रस्सी और घिरनी के सहारे ऊपरी हिस्से पर पहुंचाया जाता है। इन दीपों को जलाने के पीछे तरह-तरह की आस्थाएं होती हैं। इन्हें जलाने वाले मानते हैं कि कार्तिक में देवता और हमारे पूर्वज गंगा नहाने आते हैं और ये दीप उन्हें उसी प्रकार रास्ता दिखाते हैं, जैसे कभी समुद्र में रास्ता भटके नाविकों को दिखाते थे। करीब तीन दशक पूर्व कुछ लोगों का यह विचार बना कि क्यों न कार्तिक पूर्णिमा पर घाटों को दीपों से सजाया जाए। नारायण गुरु  जैसे स्थानीय कार्यकर्ताओं ने इसमें पहल की। घरों से तेल और दीये जुटाए गए। इसे देवताओं की दीपावली अर्थात देव दीपावली का नाम दिया गया। घाटों पर देव दीपावली समितियां बनाई गई। सिंधिया घाट से शुरू हुआ यह उत्सव धीरे-धीरे वाराणसी के समस्त घाटों पर फैल गया। बाद के वर्षो में तब इसमें थोड़ा परिवर्तन आया, जब इसमें हरिद्वार की तर्ज पर गंगा आरती भी जुड़ गई। आरती के आयोजन भी राजेन्द्र प्रसाद और दशामेध घाटों से शुरू होकर कई घाटों तक फैलते चले गए। धीरे-धीरे इसकी लोकप्रियता ऐसी होती गई कि देश-विदेश से पर्यटक यहां जुटने लगे। होटलों में कमरे मिलना मुश्किल हो गया, नाविकों की दरें आसमान छूने लगीं, लेकिन यह उत्सव जनता का ही बना रहा। हां, कुछ वर्षो पूर्व इससे गंगा महोत्सव जुट गया। सरकारी स्तर पर सोचा जाने लगा कि देव दीपावली पर पर्यटक जुटते हैं, तो उन्हें गंगा महोत्सव से भी जोड़ा जाए। देव दीपावली के पूर्व इसे आयोजित किया जाने लगा। इससे देव दीपावली का उत्सव तो बहुत प्रभावित नहीं हुआ, लेकिन इसमें सरकारी दखल जुड़ने लगी।
वाराणसी अपने ऐसे कई उत्सवों के लिए प्रसिद्ध रहा है। चाहे नाटी इमली का भरत मिलाप हो, रामनगर की रामलीला हो, होली के बाद होने वाला बुढ़वा मंगल हो या फिर गुलाब बाड़ी और दूसरे आयोजन। कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसे उत्सव जनता के उत्सव होते हैं, उन्हीं की सहभागिता और सहयोग से आयोजित होते हैं, देश-विदेश में लोकप्रिय हो जाते हैं। इन उत्सवों के रंग सरकारी आयोजन के महोत्सवों से अलग होते हैं। उनमें संस्कृति और परंपरा की गंध होती है। परंपरा में चल रहे उत्सव जब आम लोगों के होते हैं, उनके द्वारा आयोजित होते हैं, तो उनका एक पारंपरिक-सांस्कृतिक रंग होता है। जब ये जनता के हाथ से निकलने लगते हैं, तो उनका रंग भी बदलने लगता है। वाराणसी के देव दीपावली के साथ भी इस बार ऐसा ही हुआ। इस उत्सव पर सरकारी रंग अधिक दिखा और इसमें जनता की उत्सवधर्मिंता अधिक उभार ना ले सकी। दीपों की जगह विद्युत झालरों ने भी इस उत्सव को पारंपरिक रंगों से अलग कर दिया है। पिछली बार विद्युत झालरों से इसके पारंपरिक स्वरूप को बचाने के लिए कुछ देर के लिए घाटों पर प्रकाश व्यवस्था बंद कर दी गई थी। परंपरा हमेशा नई-नई चीजों को जोड़ते चलती है, इसे रूढ़ि से अलग करके देखने की जरूरत रहती है, लेकिन ऐसे मेलों-उत्सवों की खूबसूरती कहीं-न-कहीं उनके मूल स्वरूप में भी है। कहीं ऐसा न हो कि देव दीपावली भी अपने मूल स्वरूप से बहुत दूर निकल जाए।

आलोक पराड़कर


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