उत्तराखंड : अब तस्वीर बदलनी चाहिए

Last Updated 10 Nov 2020 03:24:07 AM IST

नब्बे के दशक में उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की मांग ने जब गति पकड़ी तो इसका मूल कारण यह रहा कि विकास के मामले में उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य में पर्वतीय जिलों की घोर उपेक्षा होती थी।


उत्तराखंड : अब तस्वीर बदलनी चाहिए

उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद बनी किसी भी सरकार ने इस गम्भीर समस्या के समाधान के लिए ईमानदार पहल नहीं की। अपितु मैदानी इलाकों को तेजी से विकसित करने की सरकारी नीति से असंतुलित विकास की स्थिति पैदा हो गई, जिससे पहाड़ से मैदान की तरफ होने वाले पलायन को बढ़ावा ही मिला। उत्तराखंड का इतिहास इसके गौरवपूर्ण अतीत का गीत गाता है। इसकी उत्पत्ति और विकास का लम्बा इतिहास रहा है।
भारत के मानचित्र पर जिस उत्तराखंड को 9 नवम्बर, 2000 को उकेरा गया था उसके पीछे कई प्रश्न थे। उम्मीद जताई गई थी कि आंदोलन की उपज उत्तराखंड की पीड़ा को स्थानीय सियासत समझ पाएगी और पहाड़ी राज्य के रिसते घावों पर नीतियों का मरहम लगेगा। मगर अफसोस पहली अंतरिम सरकार विकास का कोई खाका खींच ही नहीं पाई और पहली निर्वाचित सरकार उत्तर प्रदेश के अंदाज में ही राज्य को तथाकथित विकास के कच्चे-पक्के रास्ते पर घसीटते रही। दूसरी निर्वाचित सरकार से पहाड़ी राज्य की जनता ने उम्मीद पाली कि जल-जंगल-आबोहवा, पहाड़ के सुलगते प्रश्नों का जवाब मिलेगा। नई सरकार राज्य के सरोकारों के साथ कोई विकास का रोडमैप बनाएगी, लेकिन अफसोस वो सरकार पिछली सरकार के घोटालों पर हल्ला और अपनी गुटबाजी को सुलझाती रह गई।

फिर चुनाव में जनता ने मौसेरे भाई पर भरोसा किया, लेकिन गुटबाजी और घोटालों के जिन्न ने पीछा नहीं छोड़ा। सियासत जनता का भरोसा खो गई और पहाड़ की युवा शक्ति पगडंडियों से उतरते हुए दूर महानगरों में खो गए। 18 वर्ष के जवान की 16 वर्ष की जवां उम्र महानगर खा गए अब अधेड़ उम्र में दहलीज पर खड़ा स्वप्नदृष्टा युवा का पहाड़ से मोहभंग हो गया नतीजतन पहाड़ रीते हो गए। ये राज्य की 20 वर्ष की सियासत पर तमाचा नहीं तो क्या है? हर बार चुनावी घड़ी आती है और वीरान पहाड़ों के उदास कस्बों में बेशर्म सियासत फिर से, ‘वोट दो’ का राग अलापती है। पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में जीविकोपार्जन की जटिलता, संघर्ष और रोजगार के समुचित अवसर ना होने ने पलायन को बढ़ावा दिया है। यहां जीवन सूर्योदय और सूर्यास्त नहीं, बल्कि रात को वो घना तिमिर है, जब प्रकृति की हरियाली भी सघन अंधेरे से ढक जाती है। ग्रामीण आबादी रोजगार की तलाश और सुविधा सम्पन्न जीवन के लिए शहरों में जा रही है। खेत-खलिहान बंजर होते जा रहे हैं। गांवों के गांव खाली हो गए हैं। विकास के सही रोडमैप के अभाव, नीति-नियंताओं और हुक्मरानों की निष्क्रियता, दूरदृष्टि और सही विजन की कमी ने जिस परिकल्पना से इस पहाड़ी राज्य का गठन हुआ था, उस पर बट्टा लगा दिया है। युवा पीढ़ी पढ़ाई और रोजगार के लिए दूसरे शहरों में जाती है और वहीं की होकर रह जाती है। राज्य सरकार के पास ऐसी कोई नीति नहीं है, जिसके तहत यहां का युवा पहाड़ के विकास के लिए काम करे। राज्य निर्माण के बाद भाजपा और कांग्रेस, दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टयिों की सरकारें आई और गई। पहाड़ी राज्य के विकास को लेकर विज़न का अभाव बना ही रहा।
ग्रामीण आबादी शहरी क्षेत्र की तरफ सिमट रही है। पहाड़ वीरान हो रहे हैं। सुविधाओं के अभाव, प्राकृतिक आपदाओं की मार और रोजगार की कमी की वजह से अपना घरबार छोड़ उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों के बाशिंदे बड़े शहरों की ओर रु ख कर रहे हैं। ऐसे गांवों की संख्या हजार को पार कर गई है, जहां अब कोई रह ही नहीं रहा। उत्तराखंड में पलायन खतरनाक हद तक पहुंचता जा रहा है। गांव के गांव खाली हो रहे हैं। पलायन हालांकि इस राज्य की पुरानी समस्या रही है, लेकिन वर्ष 2013 में आई आपदा ने इसकी रफ्तार को और बढ़ा दिया है। यह स्वीकार करना होगा कि अलग उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पलायन की रफ्तार और संख्या में थोड़ा बहुत कमी जरूर दर्ज हुई, लेकिन इस कमी को उच्च शिक्षित जमात ने पूरा कर दिया है। पृथक उत्तराखंड के लिए भले ही उत्तराखंड की एक पीढ़ी ने दिन-रात एक कर दिया हो, भले ही उस पीढ़ी के सैकड़ों नौजवानों ने जान गंवा दी हो, लेकिन अलग राज्य बनने के बाद भी सपनों का उत्तराखंड सपनों में ही है। विकास हुआ है तो सिर्फ  नेताओं का। पलायन का असर खेती पर भी पड़ा है। ऐसे में विचारणीय प्रश्न है कि पिछली सरकारों ने पलायन रोकने के लिए क्या किया और मौजूदा सरकार क्या कर रही है?

आशीष रावत


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