इस्लाम : मूल भाव, कट्टरवाद और उदारवाद के बीच
कुछ दिनों पहले, प्रसिद्ध ऑस्ट्रियाई शहर वियना में, आतंकी संगठन ‘आईएस’ के लिए सहानुभूति रखने वाले एक आतंकवादी ने पांच निहत्थे और निर्दोष नागरिकों की हत्या कर दी और डेढ़ दर्जन अन्य नागरिकों को गंभीर रूप से घायल कर दिया।
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यूरोप के एक दूसरे देश फ्रांस ने भी पिछले दो सप्ताह में ऐसे अनेक हमलों का सामना किया है।
यहां यह बात उल्लेखनीय है कि जब मुस्लिम समुदाय ने अपने मुस्लिम बहुल देशों में हो रहे राजनीतिक अत्याचारों से तंग आ कर, एक समृद्ध जीवन की तलाश में यूरोप की ओर पलायन के लिए प्रस्थान किया, तो उस समय ऑस्ट्रिया और फ्रांस ने सर्वप्रथम इन मुस्लिम प्रवासियों का गर्मजोशी से स्वागत किया था। इसी का परिणाम है कि, आज फ्रांस में 8.8 प्रतिशत जनसंख्या मुसलमानों की है, जो लगभग 57 लाख की आबादी होती है। इसी तरह ऑस्ट्रिया में भी मुसलमानों की आबादी 7.9 प्रतिशत है, और यहां उनकी संख्या 7 लाख के करीब है। हम नें अनेकों बार देखा है और स्वयं भी अनुभव किया है कि पूरी दुनिया में किसी स्थान पर और विशेष रूप से यूरोप में अगर कहीं किसी प्रकार का आत्मघाती हमला या आतंकवादी वारदात होती है तो सभी मुसलमानों के दिल में सबसे पहले विचार ये आता है कि, ‘हे अल्लाह, हमलावर कहीं कोई मुसलमान न निकल जाए, लेकिन जैसे ही मीडिया और सरकारी पुष्टि से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमलावर वास्तव में एक मुस्लमान ही है, तो यूरोपीय देशों में रहने वाले विभिन्न नस्ल और राष्ट्रों के मुसलमानों की अगली प्रार्थना यह होती है कि, ‘हे अल्लाह, ये कहीं कोई पाकिस्तानी, अफगानी, अरब या फिलिस्तीनी न निकल जाए।’
इस तरह की प्रकिया का मूल्य कारण ये है कि पश्चिमी देशों में बसने वाले अधिकतर मुसलमानों को केवल स्वयं की और खुद के समुदाय और नस्ल की चिंतित रहती है। जैसे ही उन्हें ज्ञात होता है कि हमलावर उनके अपने देश, नस्ल या कौम का नहीं बल्कि किसी अन्य पहचान का है तो यही मुसलमान निश्चिंत हो कर बेपरवाह जीवन व्यतीत करने लगते हैं कि चलो हमारी जान तो बची और हम पर अब इस बारे में कोई उंगली नहीं उठाएगा। कोई भी इस तथ्य से असहमत नहीं हो सकता है कि आज मुस्लिम समाज का अधिकांश हिस्सा चरमपंथी और कट्टरपंथी विचारधाराओं और आतंकी गतिविधियों का कड़ा विरोध करता है, परंतु इस बार फ्रांस में एक चेचनयाई मुसलामान युवक के द्वारा पैगंबर मुहम्मद साहब के अवमानना के नाम पर एक फ्रांसीसी अध्यापक के सिर काट कर हत्या कर देने वाली घटना के पश्चात एक नये प्रकार का विचार मुस्लिम समुदाय में उत्पन्न हुआ है। वह ये है कि, इस बार मुसलमानों का वह समूह जिसे दुनिया में आज उदारवाद और प्रगतिशील समझा जाता है, उनकी भी इस संदर्भ में विचारधारा लड़खड़ाती हुई प्रतीत हुई। इस समूह का एक बड़ा हिस्सा फ्रांस में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर विश्व प्रसिद्ध हास्य एवं व्यंग्य पत्रिका शार्ली हेब्दो से संबंध रखने वाले जिन लोगों ने पैगंबर मुहम्मद साहब के बारे में कभी जो कार्टून प्रस्तुत किए थे और जिन्हें अभी पिछले दिनों एक अध्यापक ने अपनी कक्षा में ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के उदाहरण के रूप में अपने शिष्यों को दर्शाया था, इन सभी की ईश-निंदा के जुर्म में हत्या किए जाने को इस समूह के कुछ लोगों ने तो मुखर हो कर और अधिकांश ने चुप्पी साध कर इसे सही ठहराने का प्रयास किया और विभिन्न प्रकार की लचर तकरे के साथ इसे जायज साबित करने की कोशिश भी की। जिन लोगों ने भी इस प्रकार की आतंकवादी गतिविधियों को सही ठहराया है, उन्हें इस बात का अंदाजा क्यूं नहीं है कि उनका यह व्यवहार और उनकी यह सोच; जो कि वास्तव में न केवल इस्लाम की असल भावना के विरोध में है, बल्कि पैगंबर साहब की जीवन के अनेकों सकारात्मक उदाहरणों के भी विपरित है। उनकी आने वाली पीढ़ी के लिए कितना खतरनाक साबित होगी और वास्तविकता के विपरीत इस्लाम की कैसी भद्दी छवि प्रस्तुत करेगी।
आज हम मुसलमन यह क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि दुनिया के अन्य राष्ट्रों और धर्मो के लोग हमें किस दृष्टि से देखते हैं और सब के सामने आज हमारी छवि क्या बनी है? होना तो यह चाहिए था कि हम अपने अंदर जड़ पकड़ चुकी कमियों को सुधारते और अपनी सोच को इस्लाम की मूल्य दृष्टि के सही आकार में ढालते, परंतु हम ऐसा नहीं कर सके। क्या हमारा यह भौंडा रवैया और लचर तर्क, हमारी आने वाली पीढ़ियों के उज्ज्वल भविष्य और उनके भीतर सच्ची इस्लामी भाव की वृद्धि की गारंटी दे सकता है? नहीं! हमारी राय में बिल्कुल भी नहीं!
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