मीडिया : एक एंकर की त्रासदी
उस सुबह अपने ही घर में उस नामी एंकर को पुलिस से घिरा देख उसके प्रति हमदर्दी महसूस होती थी तो दूसरे ही पल मन कहता था कि यह सब उसी के किए-धरे का नतीजा है। न वह अति करता न उसके साथ अति होती!
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कहानी सुशांत के लिए न्याय की मांग से शुरू की गई थी, जो धीरे-धीरे आउट ऑफ कंट्रोल हो गई। अन्य चैनलों ने उसे उतना ही बजाया जितना जरूरी था, लेकिन अपने एंकर ने उसे गोद ले लिया और यही उसकी अति थी। पत्रकारिता खबर देने का माघ्यम होती है। हर घटना माध्यम से बाहर होती है। माध्यम उसे अपने तरीके से खबर बनाता है, लेकिन खबर में लिप्त नहीं होता। पार्टी या नेता उसमें लिप्त हो सकते हैं माध्यम नहीं हो सकता। उसे हर हाल में खबर से एक दूरी बनाए रखनी होती है। ज्यों ही यह दूरी खत्म होती है त्यों ही पत्रकारिता ‘रिस्क-एरिया’ में आ जाती है। यही हुआ है जैसे ही ऐसा हुआ चैनल और एंकर आफत में फंस गया, लेकिन इसमें क्या शक कि शिष्टाचारी टीवी पत्रकारिता को अभियानी पत्रकारिता बनाने का श्रेय इसी एंकर को है।
उसकी बहसों में मुकदमेबाजी में मजा तो आता ही था, जिसकी ठुकाई करता था उसकी बेचारगी देख बुरा भी लगता था। उसकी बहसें एक दिशा में इस तरह से संचालित होती कि विपक्ष ने उनमें आने तक से मना कर दिया था, लेकिन यह अति ही तो उसकी यूएसपी थी जो हमें खींचती थी। निश्चय ही वह अपनी अतिवादी एंकरी को ऐंजाय करता था। उसने बहसों को उठापटक में बदल दिया। यह एक प्रकार की राजनीति ही थी जो चैनल में खबरनबीसी और बहसों के नाम पर की जाती थी। यह चैनल को हद से बेहद तक ले जाना था। बाकी चैनल इसीलिए अनुत्तेजक नजर आते। इसके लिए उसने सोशल मीडिया की उत्तेजक भाषा को अपनी भाषा बना लिया और टीवी बहसें हमेशा के लिए बदल गई। उसने एक जादुई शैली भी विकसित की। वह कभी ‘राष्ट्र’ बन जाता कभी देश बन जाता, कभी ‘एक सौ तीस करोड़ जनता’ बन जाता। उसकी हल्लेदार बहसें देख हमें आनंद आता क्योंकि वह ऐलीटी मध्यवर्गीय शिष्टता से मुक्त कर गली छाप बनाकर चलता। वह सीधे नाम लेकर ‘आरोप’ लगाता कुछ देर में आरोप ‘अपराध’ बन जाता फिर मुकदमा चलने लगता फिर फैसला हो जाता और सीधे नाम लेकर पुकारने लगता कहां छिपा है तू? तेरे में हिम्मत है तो जबाव दे। उसकी धाराप्रवाह तीखी अंग्रेजी सुन हम आनंदित होते कि भई वाह यह उन ऐलीटों को ठोक रहा है जो अपनी ऊंची नाक पर मक्खी तक नहीं बैठने देते! हमें एक ‘साडिस्ट आनंद’ मिलता।
नाना निराशाओं और अन्यायों के मारे हम अपना कोध्र भी उसके मिला देते। हमारे कलेजे को ठंडक महसूस होती कि कोई तो है जो इन हेकड़ों को भी ठोक सकता है। उसकी ठोक शैली ने कई हिंदी चैनलों में क्लोन पैदा कर दिए और हिंदी का जलवा देखकर वह अपने हिंदी वाले चैनल में हिंदी करने लगा, लेकिन उसने अपने कुछ पक्के दुश्मन भी बना लिये। अंत में उसने एक दिन अपने को सीधे ‘राष्ट्रवादी पत्रकार’ घोषित कर दिया। यह भी दूसरे एंकरों को नीचा दिखाने के लिए था और ‘नई सांस्कृतिक राजनीति’ द्वारा आकषर्क बना दिए ‘राष्ट्रवाद’ के स्पेस का एकमात्रा दावेदार कहने जैसा था। यों यह पूर्वाग्रह उसकी आयोजित बहसों में पहले से साफ झलकता था। अपने पक्षपाती नजरिए के कारण वह अपनी हितू सत्ता से एक सवाल न पूछता और जहां विपक्ष कहीं-न-होता वहां भी जगह निकालकर उसे ही ठोकता। वह बहसों का आयोजक कम तानाशाह अधिक नजर आता। वह जिधर हांकना चाहता बहस को उधर ले जाता, लेकिन इसके लिए वह मेहनत भी करता और रिस्क भी लेता।
अपने अति साहसी किस्म की भाषा के कारण वह हमारे लिए अनिवार्य होता। उसकी आयोजित बहस का आनंद लिए बिना हमें चैन न आता और फिर उसकी अति देखकर गुस्सा भी आता। उसके हल्ले का जोर इतना आतंक नजर आता कि कोई उसे चुनौती तक न देता दिखता! चढ़ाने वाले उसे चढ़ाते रहते कि ‘चढ़ जा बेटा सूली पे भली करेंगे राम’ और वो चढ़ता रहा। इसीलिए जैसे ही शेर को सवा शेर मिला और एक राज्य के आहत सत्ता-तंत्र ने चुनौती दी कि उसकी सारी कॉमेडी त्रासदी में बदल गई! वह बुरा है या भला है, लेकिन है तो एक अपने तरीके का एक हिम्मती पत्रकार! बहरहाल अदालत जो करेगी सो सबको स्वीकार्य होगा, लेकिन यह घटना एक सीख देती है कि एंकर अपने निदरेष साबित करने के साथ साथ अब अपनी पत्रकारिता की अतियों की भी आत्मालोचना भी करे यह ‘त्रासदी’ फिर से न दुहरे।
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