प्रधानमंत्री का पुतला दहन : ऐसी आदतों से बाज आएं

Last Updated 02 Nov 2020 03:30:24 AM IST

इस दशहरे पर देश के कई हिस्सों में आक्रोशित किसानों, बेरोजगार नौजवानों और उत्तेजित भीड़ ने रावण दहन के लिए बने पुतले पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चेहरा लगा कर रावण दहन किया और उत्तेजक नारे लगाए।


प्रधानमंत्री का पुतला दहन : ऐसी आदतों से बाज आएं

किसी भी प्रधानमंत्री के साथ ऐसा र्दुव्‍यवहार आजाद भारत के इतिहास में पहली बार हुआ। इसकी जितनी ¨नदा की जाए कम है। प्रधानमंत्री भारत सरकार का सर्वोच्च मुखिया होता है। उसका अपमान देश का अपमान है। इसलिए आज तक कभी आंदोलनकारियों ने या विपक्षी दलों ने ऐसा काम नहीं किया था। यह बड़ी चिंता की बात है और यह देश के लोकतंत्र के तेजी से पतनशील होने का बड़ा प्रमाण है। प्रधानमंत्री का पुतला जलाने वाले वास्तव में उनकी नीतियों से आहत थे या उन्हें किसी ने राजनैतिक मकसद से उकसाया? जो भी हो इससे एक गलत परम्परा की शुरुआत हो गई जो और भी ज्यादा चिंता की बात है।
दरअसल, पिछले कुछ वर्षो में राजनीति का जो विमर्श बना है और जिस तरह की भाषा राजनैतिक कार्यकर्ता और उनके सहयोगी मीडियाकर्मी अपने विरोधियों के प्रति प्रयोग कर रहे हैं, उससे वो दिन दूर नहीं जब राजनीति में बातचीत से नहीं लाठी, गोली और डंडों से ही बात हुआ करेगी। फिर तो जिसकी लाठी उसकी भैंस। फिर न तो कोई विचारधारा बचेगी और न कोई सामाजिक सरोकार का मुद्दा। घोर अराजकता की स्थिति होगी। इस पतन की शुरुआत बहुत सीमित स्पर पर तीन दशक पहले हुई थी, जब राजनैतिक दलों ने अपराधियों को चुनावों में उम्मीदवार बनाना शुरू किया था। तब मैंने अपनी ‘कालचक्र’ वीडियो मैगजीन में एक रिपोर्ट तैयार की थी ‘क्या भारत पर माफिया राज करेगा?’ पर तब हालत इतने बुरे नहीं थे जितने आज हो गए हैं।

पिछले कुछ वर्षो से देश के स्तर से लेकर गांव और कस्बे तक राजनैतिक आक्रामकता बढ़ती जा रही है। कोई अपने विरोधी की बात न तो शांति से सुनने को तैयार है और न उस पर तर्क करने को। जरा सा विरोध भी किसी को बर्दाश्त नहीं है। बात-बात पर अपने विरोधियों के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग करना, उन्हें धमकी देना या उन्हें देशद्रोही बताना आम बात हो गई है। इससे समाज में तनाव और असुरक्षा बढ़ रही है। यह भारत की सनातन संस्कृति नहीं हैं। ऐसा आचरण तो पचिम एशियाई देाों में देखने में आता है, जहां छोटी छोटी बातों पर मारकाट, गोलीबारी और सर कलम करने जैसे हादसे रोज होते रहते हैं। भारत की संस्कृति में तो राजा से भी एक आम नागरिक उसके दरबार में अपना विरोध प्रकट कर सकता था। पौराणिक गोर्वधन पर्वत की तलहटी में 500 वर्ष पहले एक प्रसिद्ध भजन गायक संत कुंभन दास जी रहते थे। बादशाह अकबर ने उनकी तारीफ सुनी तो उनका गायन सुनने के लिए सिपाही भेज कर उन्हें अपनी राजधानी फतेहपुर सीकरी बुलवा लिया। इससे कुंभन दास जी बहुत दुखी हुए। बादाह के हुक्म पर उन्होंने दरबार में अपना प्रसिद्ध पद गाया, संत कू कहा सीकरी सों काम। आवत जात पनहैया टूटी, बिसर गयो हरि नाम।
बादशाह अकबर ने उन्हें इनाम देना चाहा तो कुंभन दास जी बोले, आज के बाद अपना मनहूस चेहरा मुझे मत दिखाना, क्योंकि इसके चक्कर में आज मेरा भजन भंग हो गया। इस पर दरबारियों ने तलवारें खींच लीं, तो अकबर ने उन्हें रोका और कहा, ये सच्चे फकीर हैं, ये शंहनशाहों के शहंनशाह (भगवान श्रीकृष्ण) के लिए गाते हैं, हमारे लिए नहीं। मतलब ये कि अगर शासक में अपनी आलोचना सुनने की उदारता होगी, तो जनता का आक्रोश इतना नहीं भड़केगा कि वो मर्यादा की सीमा लांघ जाए। आजकल थाईलैंड के राजतंत्र के खिलाफ भारी जन आक्रोश ने एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया है, जबकि थाईलैंड के कानून के अनुसार राजा की ¨नदा करना भी गैरकानूनी है।
ऐसा इसलिए हुआ कि पिछले राजा उदार थे और लोकप्रिय भी, जबकि वर्तमान राजा के आचरण और नीतियों से जनता त्रस्त है। वैसे सारी जनता को हर समय कोई भी शासक पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर सकता। कुछ-न-कुछ लोग तो हमेशा असंतुष्ट होंगे ही। पर अगर शासक वर्ग आम जनता के प्रति संवेदनशील है और जनता को भी लगता है कि उसकी नीतियों से जनता को लाभ मिल रहा है, तो स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती। किंतु अगर जनता को लगे कि शासक वर्ग की नीतियां और आचरण आम जनता के हितों के विरोध में हैं और केवल कुलीन या सम्पन्न लोगों के हित में हैं तो उसका आक्रोश बढ़ जाता है, जिसकी परिणिति ¨हसक आंदोलन का रूप भी ले सकती है। मध्य युग की छोड़ दें तो भी आधुनिक युग में और इसी सदी में दुनिया के जिन-जिन देशों में शासकों ने तानाशाहीपूर्ण रवैया अपनाया, विरोध के स्वरों को दबाया और जनसंचार के माध्यमों से अपना झूठा प्रचार करवाया उन-उन तानाशाहों को खूनी क्रांति का सामना करना पड़ा। इसलिए लोकतंत्र में जो चार स्तंभ बनाए गए हैं-विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया, चारों की स्वायत्तता समविान में सुरक्षित की गई है।
इन चारों स्तंभों को एक दूसरे के ऊपर निगरानी रखने का दायित्व भी लोकतांत्रिक परम्पराओं ने प्रदान किया है, जिससे समाज में संतुलन बना रहे। इसलिए यह हम सब का दायित्व है कि हम देश की लोकतांत्रिक परम्पराओं में तजी से आई इस गिरावट को रोकने का काम तुरंत करें। इसमें ज्यादा जिम्मेदारी स्वयं प्रधानमंत्री मोदी जी की है। वे सत्ता के सिरमौर हैं और एक नये भारत का सपना देख रहे हैं। उन्हें इस परीस्थिति का निष्पक्ष मूल्यांकन कर इस गिरावट को रोकने के लिए ठोस और प्रभावी कदम उठाने चाहिए, जिससे हमारा समाज भयमुक्त हो, अनुशासित हो और जिम्मेदारी से व्यवहार करे, ऐसी गैर जिम्मेदाराना हरकत न करे।

विनीत नारायण


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