मीडिया : मुख्य मीडिया बॉक्स सोशल मीडिया

Last Updated 01 Nov 2020 06:01:30 AM IST

एक मीडिया संस्थान ने अपने कर्मियों को आदेश दिया है कि अब से आगे सोशल मीडिया पर अपनी टिप्पणियां न लिखा करें।


मीडिया : मुख्य मीडिया बॉक्स सोशल मीडिया

हमारी समझ है कि ऐसा होना ही था। ऐसे मुद्दे पर जो नामी-गिरामी पत्रकार व उनके संगठन ‘पत्रकारिता की आजादी’ के लिए हमेशा ‘ताल’ ठोकते दिखा करते थे, उनकी चुप्पी बहुत कुछ कहने वाली है। यों भी, जैसा कि हम सब जानते हैं, हर संस्थान में उसके कर्मियों के लिए एक जरूरी ‘कोड ऑफ कंडक्ट’ यानी ‘आचार संहिता’ होती है। इसी तरह मीडिया संस्थानों की भी आचार संहिता होती हैं, जिसे कर्मियों को मानना पड़ता है।
हमारी समझ में एक मीडिया संस्थान का ऐसा आदेश मुख्यधारा के मीडिया और सोशल मीडिया के बीच बढ़ती ‘मित्रता’ से पत्रकारिता को होने वाले नुकसानों के प्रति सचेत करने वाला है। लगता है कि बहुत दिनों तक सोशल मीडिया से बहुत से कच्चे-पक्के माल से काम चलाने के बाद अब वह उसके दोषों से मुक्त होने के लिए छटपटा रहा है। यह आदेश शायद उस दिशा में पहला कदम है, जिसके जरिए मुख्यधारा का मीडिया  सोशल मीडिया की आवारगी और अराजकता से अपने को मुक्त करना चाहता है और नितांत अपने विसनीय मुहावरे की खोज करना चाहता है। एक अरसे से, सोशल मीडिया की ‘आवारगी’, ‘अराजकता’ और ‘मैं मैं की आत्मरति’ वाले मुहावरे का दुष्प्रभाव मुख्यधारा के मीडिया पर पड़ रहा था और उसका ठहरा हुआ मुहावरा बिगड़ता जा रहा था और अब भी जारी है। कुसंग का असर ऐसा ही होता है। सोशल मीडिया के कुसंग के कारण मुख्यधारा का मीडिया सतही और सनसनीवादी होता गया है और मीडिया का अपना विसनीय मुहावरा किनारे होता गया है।

जिस तरह का ‘तुरंतावाद’, जिस तरह की दिन रात ‘मैं मैं तू तू’ करने की आदत, जिस तरह से ‘तिल को ताड़’ बनाने की आदत, जिस तरह से जिस तिस मुद्दे को हल्लाबोल और आंदोलन या अभियान में  बदल देने की आदत ने मुख्यधारा के मीडिया के एक हिस्से को जरूरत से ‘अधिक गरम’ (ओवर हीटेड) कर दिया है। सोशल मीडिया को देखकर कई बार तो लगता है कि उसने अपने को एक ‘समांतर राज्य सत्ता’ (स्टेट) तरह मान लिया है। उसी की नकल में कुछ चैनल व एंकर भी अपने को ‘स्टेट’ की तरह पेश करने लगे हैं। फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम आदि इन दिनों इतने ताकतवर हो गए हैं कि देशों की सरकारों से बेपरवाह होकर अपना एजेंडा चलाते रहते हैं। और उन पर अब तो ऐसे आरोप तक लगने लगे हैं कि ये सोशल मीडिया प्लेटफार्म अपने को ‘ग्लोबल स्टेट’ या कहें ‘स्टेटों की स्टेट’ समझते हैं और देशों के चुनावों में हस्तक्षेप करने और बदलने की ताकत रखते हैं।  उसी तरह अपने कुछ देसी चैनल, उनके एंकर-संपादक भी इन दिनों अपने को खुदा समझने लगे हैं। अपने चैनल को समांतर सरकार यहां तक कि अदालत की तरह चलाते हैं।
इसका परिणाम हुआ है कि हमारे बहुत से चैनल व एंकर, रिपोर्टर आदि खुद को भी स्टेट जैसा समझ कर अपने को देश चलाने वाला, देश का एजेंडा तय करने वाला मानने लगे हैं। जिस तिस के खिलाफ रोज के ‘अभियान चलाने’, ‘इसे उठाने, उसे गिराने, उसे बचाने’ के एक्टिविस्ट मुहावरे ने शुरू में कुछ चैनलों को चस्केदार बनाया। इन दिनों, हमारे कई चैनल हर शाम किसी एक नामी को अपना ‘खलनायक’ तय कर लेते हैं, आरोपित को सीधे अभियुक्त बना लेते हैं, फिर उस पर एक मुकदमा ठोककर और उससे तुरत सजा देकर, तुरत माफी मांगने को कहते हैं, जो उनका साथ नहीं देता उसे लज्जित करते हैं। इससे टीआरपी तो भले बढ़ जाती है, लेकिन इससे पत्रकारिता अपने धर्म से च्युत हो जाती है। स्तरीय पत्रकारिता एक तरफा नहीं हो सकती। वह हमेशा उभय-पक्षीय और बहु-पक्षीय होती है।
सोशल मीडिया अपनी प्रकृति से ही ऐसा है कि उसमें आकर ‘न्यूज’ और ‘फेक न्यूज’ का फर्क मिट जाता है। साथ ही, उसमें आकर खबर की तटस्थता व बहु-पक्षीयता की जगह सिर्फ ‘ओपिनियन’ मात्र रह जाती है। यही ‘ओपिनियन’ कुछ देर में कैंपेन बन जाती है। ‘ओपिनियन’ जितनी उत्तेजक होती है, उतनी ही ‘वायरल’ होती है। जितनी ‘वायरल’ होती है उतनी ही कीमती होती है, लेकिन इससे उसका सामाजिक तत्व खिर जाता है। गनीमत है कि समय रहते मुख्यधारा के मीडिया को सोशल मीडिया के कुसंग से होने वाले नुकसानों का अहसास हो गया।  इस पृष्ठभूमि में एक मीडिया हाउस अपने अपने पत्रकारों को सोशल मीडिया में अटकने-भटकने से हटने का आग्रह करता है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए।

सुधीश पचौरी


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