बिहार चुनाव : दे रहा है नया संदेश

Last Updated 29 Oct 2020 03:29:29 AM IST

राजनीति की सबसे बड़ी खासियत यही है कि यह कभी भी सीधी रेखा का अनुगमन नहीं करती है।


बिहार चुनाव : दे रहा है नया संदेश

खासकर बिहार जैसे राज्य में तो इसकी दिशा अत्यंत ही जटिल मानी जाती है। वजह यह भी कि एक इसी राज्य में समाजवादी, वामपंथी और दक्षिणपंथी, सभी तरह की विचारधाराओं को मानने वाले लोग हैं। लेकिन इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव कुछ नये संदेश देता प्रतीत हो रहा है। नये संदेश को समझने के लिए 28 अक्टूबर, 2020 को दरभंगा में एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संबोधन को प्रस्थान बिंदु के रूप में चिह्नित किया जा सकता है।
दरअसल, मोदी ने अयोध्या में राम मंदिर के नाम पर दरभंगा की जनता से वोट मांगा है। उनके संबोधन में इसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति रही कि उनके पास बिहार से जुड़े मुद्दों पर कहने के लिए कुछ भी शेष नहीं।  इन मुद्दों में बिहार को विशेष राज्य का दर्जा, विशेष पैकेज और स्मार्ट सिटी योजना आदि शामिल हैं। ऐसे में विचारने की आवश्यकता है कि मोदी को अयोध्या का उल्लेख क्यों करना पड़ा है और यह भी कि किन कारणों से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चाहे-अनचाहे मोदी के इस श्रेय के हिस्सेदार बन रहे हैं। कुछ देर के लिए अतीत पर गौर करते हैं। तब नीतीश कुमार लालू प्रसाद के साथ थे और लालकृष्ण आडवाणी रथ यात्रा निकाल रहे थे।

नीतीश पर केंद्रित किताब (नीतीश कुमार एंड दि राइज ऑफ बिहार, अरुण सिन्हा, पेंग्विन प्रकाशन, नई दिल्ली) में उनका एक भाषण संकलित है। यह भाषण उन्होंने तब पटना के गांधी मैदान में एक जनसभा में दिया था। भाषण था-‘आडवाणी की रथ यात्रा कुछ और नहीं केवल मंडल आयोग के विरुद्ध एक अवरोध है, रोड़ा है। भाजपा उन लोगों का प्रतिनिधित्व करती है, जिन्होंने मंडल आयोग का अंतिम सांस तक प्रतिरोध किया था, क्योंकि वे अन्याय पर आधारित समाज को कायम रखना चाहते हैं।’ दरअसल, 2015 के विधानसभा चुनाव से जुड़ा एक आंकड़ा बताता है कि बिहार में अयोध्या का सवाल या फिर हिंदुत्व का सवाल बहुत अधिक प्रभावी नहीं रहता। 2015 में जब नीतीश राजद महागठबंधन में शामिल थे, तब मोदी ने अपनी रैलियों में हिंदुत्व से जुड़े मुद्दों को उठाया था। इसका लाभ भी उन्हें केवल इतना मिला कि अपने आधार वोटरों को एकजुट रख सके। इस चुनाव में भाजपा के हिस्से में कुल 37.4 फीसदी वोट आश यानी 60.6 फीसदी बिहार के मतदाताओं  ने भाजपा के हिंदुत्व से जुड़े सवालों को खारिज कर दिया था।
एनडीए में शामिल होने के बावजूद भाजपा के हिंदुत्व के एजेंडे से नीतीश ने हमेशा खुद को अलग रखा। 2012 में जब भाजपा ने मोदी को नये नेता के रूप में स्वीकार किया तब नीतीश की तल्खी बढ़ गई। एक बार जब एक विज्ञापन में नीतीश और मोदी की तस्वीर प्रकाशित की गई तब नीतीश ने कड़ा ऐतराज व्यक्त किया। वे यहीं नहीं रुके। उन्होंने मोदी को खाने पर दिए आमंतण्रको रद्द कर दिया। फिर वजह क्या है कि जो नीतीश मोदी को नेता नहीं मानते थे, इस बार उन्हें नेता मानने को तैयार हो गए हैं? यह बदलाव कैसे आया है?
मूल कारणों की पड़ताल जरूरी है। इस बार के चुनाव में पहले तय माना जा रहा था कि नीतीश का कोई विकल्प नहीं है। महागठबंधन के पास वह चेहरा नहीं है, जिसे लेकर वह चुनाव में कोई दावेदारी करेगा। राहुल गांधी का चेहरा बिहार में इतना लोकप्रिय नहीं है कि लोग उनके नाम पर वोट दे देंगे। तेजस्वी यादव का चेहरा भी ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा था कि वे सीधे-सीधे मुकाबला कर सकेंगे लेकिन यह अब बीते कल की बात है।
आज का वर्तमान है कि बिहार में नीतीश का विकल्प सामने आ चुका है। तेजस्वी ने स्वयं को इस रूप में स्थापित कर दिया है। यह उनकी रैलियों में उमड़ रही भीड़ बताती है। अपनी इस छवि को बनाने के लिए तेजस्वी ने बहुत ही कम समय में अनेक बड़े फैसले किए हैं। इनमें एक फैसला लालू यादव को बहस से दूर रखना शामिल है। पहले तो उन्होंने अपने बैनर-होर्डिंग्स से लालू और राबड़ी देवी की तस्वीर को हटाया। इसके बाद उन नेताओं को अलग रखा जो लालू के करीब माने जाते रहे हैं। यह अहम बदलाव था। फिर मुद्दों के केंद्र में युवाओं को लाने की रणनीति ने समीकरण बदल कर रख दिया है। लेकिन इसके पहले एक और फैसला तेजस्वी ने किया जिसने सभी को चौंका दिया। यह फैसला था उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी को अलग करने का। वे चाहते थे कि ये दोनों स्वयं ही महागठबंधन छोड़कर चले जाएं। सीटों के बंटवारे के दौरान तेजस्वी ने अपने ऊपर कोई आरोप नहीं आने दिया। मांझी और कुशवाहा, दोनों अपनी मर्जी से गए। तेजस्वी इस बार पारंपरिक राजनीति करने के मूड में नहीं दिखे। जानते हैं कि मांझी और कुशवाहा का अपना आधार वोट बहुत सीमित है। साथ ही दोनों की दलबदल प्रवृत्ति से लोग वाकिफ हैं, इसलिए भी इनके चले जाने से अधिक नुकसान नहीं होगा।
इसके विपरीत तेजस्वी को लाभ यह हुआ कि उन्होंने कांग्रेस और वामपंथी दलों को अधिक हिस्सेदारी दी। ऐसा पहली बार हुआ कि बिहार में सभी वामपंथी दल-सीपीआई (एमएल), सीपीआई और सीपीएम-एक गठबंधन का हिस्सा होकर चुनाव मैदान में हैं। तेजस्वी ने राजद की छवि को बदला। मुस्लिम-यादव वाली छवि के बदले ‘ए टू जेड’ की तस्वीर रख दी। चुनाव में ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के आ जाने से तेजस्वी को लाभ हुआ है। भाजपा राजद पर मुसलमानों की राजनीति करने का आरोप नहीं लगा सकती। इन सबसे अलग तेजस्वी ने जो खास किया है, वह है अपने मुद्दों पर टिके रहना। भाजपा और नीतीश चाहे जो भी कहें, तेजस्वी ने केवल रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य की बात कही।
यह एक नायाब प्रयोग है 29 साल के नौजवान द्वारा। हालांकि उनका प्रयोग कितना कामयाब होगा, यह तो 10 नवम्बर को सामने आएगा जब मतों की गिनती होगी। फिलहाल, बिहार की चुनावी राजनीति में जो कुछ हो रहा है, वह चुनावी विश्लेषकों के लिए शोध का विषय अवश्य है।

नवल किशोर कुमार
फॉर्वड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक


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