परंपरागत ज्ञान : बहुत महंगा पड़ेगा लुप्त होना
कृषि हो या पशुपालन, कुटीर उद्योग हो या हस्तशिल्प, जल संरक्षण हो या वानिकी, ग्रामीण विकास के बहुत से पक्ष ऐसे हैं, जहां परंपरागत ज्ञान और कौशल तेजी से लुप्त हो रहा है।
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अनेक सदियों से, उससे कहीं अधिक पीढ़ियों से जो ज्ञान एक पीढ़ी ने दूसरी पीढ़ी को दिया, उसमें भी कुछ जोड़कर दूसरी पीढ़ी ने तीसरी पीढ़ी को दिया-इस श्रृंखला के कुछ पक्ष प्रतिकूल परिस्थितियों में औपनिवेशिक शासन यानी ब्रिटिश राज के दिनों में टूटने लगे। औपनिवेशिक शासन के दौरान परंपरागत ज्ञान के पीढ़ी दर पीढ़ी जारी रहने का जो सिलसिला टूटना शुरू हुआ, वह आजादी के बाद की अनुकूल स्थितियों में भी जारी रहा क्योंकि इस क्षति को ठीक से पहचाना नहीं गया।
कृषि में चिंताजनक क्षति परंपरागत बीजों और जैव-विविधता के ज्ञान की हुई है। जहां पहले किसी क्षेत्र में किसी प्रमुख फसल की सैकड़ों किस्में उगाई जाती थीं, अब बहुत खोजने पर भी इनमें से बहुत कम ही मिल पाती हैं। ये विभिन्न किस्में अलग-अलग तरह की भूमि और मौसम के लिए अनुकूल थीं। इनमें तरह-तरह के विशिष्ट गुण होते थे। हो सकता है कि इनमें से अनेक किस्में जीन बैंकों में संरक्षित हों पर किसानों के खेतों में ये उपलब्ध नहीं हैं और इनसे जुड़ा ज्ञान भी लुप्तप्राय है। दस्तकारी और हस्तशिल्प की बात करें तो भारत इस क्षेत्र में बहुत समृद्ध रहा है पर निरंतर ऐसी स्थितियां बनती जा रही हैं, जिनमें अनेक बड़े हुनरमंद भी ठीक से अपने परिवार का पेट नहीं भर पा रहे हैं। बनारस की साड़ी जैसे मशहूर हुनर की हाल के वर्षो में यह स्थिति रही है कि बहुत से हुनरमंद जुलाहे अपनी बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं कर पा रहे हैं और मजदूरी या रिक्शा चलाने जैसे कार्यों की ओर धकेले जा रहे हैं। पुरानी व्यवस्था टूट रही है और उसके स्थान पर हुनर को जीवित रखने की नई व्यवस्था बन नहीं पा रही है। बाजार की, व्यापार की, मुनाफे की तमाम परिस्थितियां ऐसी बनती जा रही हैं कि निर्यात बाजार के बड़े आंकड़ों के बीच भी हुनरमंदी व हुनरमंदों का दम टूट रहा है।
अनेक जल-परियोजनाओं के प्रचार के बीच परंपरागत ज्ञान की उपेक्षा की महंगी कीमत चुकानी पड़ी है। जब दूर-दूर से पानी लाने की महंगी योजनाओं को उनकी अधिक पर्यावरणीय क्षति और आर्थिक खर्च के बावजूद प्राथमिकता दी गई तो स्थानीय स्तर के जल-संरक्षण की उपेक्षा होने लगी जो आगे चलकर महंगी सिद्ध हुई। वानिकी में वृक्षों का चुनाव परंपरागत तौर पर स्थानीय प्राकृतिक स्थितियों के अनुकूल किया गया और इससे लोगों और पशु-पक्षियों की जरूरतें भली भांति पूरी होती रहीं पर हाल के वर्षो में व्यापारिक दृष्टि से अधिक मुनाफा देने वाले एक ही प्रजाति के पेड़ों का प्लांटेशन बड़े क्षेत्र में फैलाने पर अधिक जोर दिया गया। यह स्थानीय लोगों और पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों सभी के लिए बहुत हानिकारक सिद्ध हुआ और इस प्रक्रिया में वन, वानिकी और वृक्षों संबंधी परंपरागत ज्ञान की पूरी तरह उपेक्षा की गई।
अनेक अध्ययनों-सर्वेक्षणों में सामने आया है कि प्राकृतिक वनों के आसपास रहने वाले आदिवासियों और अन्य मिलते-जुलते समुदायों को प्राकृतिक वनों की जैव-विविधता का गहरा ज्ञान होता है और वे बहुत सरलता से तरह-तरह के उपयोगी खाद्यों, औषधियों और अन्य उपयोगी वन-उपज की पहचान कर सकते हैं। इस जानकारी के आधार पर उन्हें प्राकृतिक वनों की रक्षा के कार्य के साथ लघु वनोपज से जुड़े अनेक कार्यों में बेहतर अवसर दिए जा सकते थे पर प्राकृतिक वनों और उनसे जुड़े परंपरागत ज्ञान की उपेक्षा करते हुए वनों के व्यापारिक मुनाफे के पक्ष पर अधिक ध्यान दिया गया। परंपरागत ज्ञान की उपेक्षा के साथ इसका निरंतर ह्रास हो रहा है। यह क्षति एक दिन बहुत मंहगी पड़ेगी क्योंकि कठिन समय में इसी परंपरागत ज्ञान की बहुत जरूरत पड़ने पर हम इसे प्राप्त नहीं कर पाएंगे। परंपरागत बीज बचाने के अभियानों को सरकार का भरपूर समर्थन मिलना चाहिए। अनुभवी वृद्ध किसानों के अनुभवों को न केवल मंच पर सुनना चाहिए अपितु इसका दस्तावेजीकरण भी पुस्तक, लेख, आडियो या वीडियो रूप में करना चाहिए। आदिवासियों के परंपरागत ज्ञान का जैव-विविधता के संरक्षण में उपयोग करना चाहिए। अनेक व्यावहारिक उपायों से परंपरागत ज्ञान के संरक्षण के प्रयास निरंतरता से करने चाहिए।
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