विदेश नीति : क्लाइमेट पॉलिसी वक्त की मांग
एक समय था जब यह माना जाता था कि दुनिया खत्म होगी आणविक युद्ध के माध्यम से। जब शीत युद्ध का माहौल था, लेकिन अब यह दुनिया अपनी विलासिता और मूर्खता के कारण तबाह होगी, जिसके लक्षण दिखाई भी दे रहे हैं।
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भूराजनीतिक वर्चस्व आज भी विदेश नीति की धार बना हुआ है। चीन की बेपनाह शक्ति प्रदर्शन और शीर्ष पर पहुंचने की बेताबी ने दुनिया को एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है, जहां से तबाही का मंजर हर किसी को नजर आ रहा है। अमेरिका अपनी जिद पर अड़ा हुआ है कि वह ग्रीन एनर्जी की प्राथमिकता को स्वीकार कर दोयम दरजे की शक्ति नहीं बनना चाहता। इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति ने पेरिस समझौते से हाथ खींच लिया था। अगर कार्बन जनित ऊर्जा की बात करें तो चीन इसमें सबसे अव्वल है, उसका कार्बन एमिशन (उत्सर्जन) भी सबसे ज्यादा है।
अमेरिका और चीन मिलकर तकरीबन 40 प्रतिशत से ज्यादा गंदगी वायुमंडल में फैलाते हैं। अगर उसमें यूरोपीय देशो को शामिल कर लिया जाए तो यह औसत 75 प्रतिशत के ऊपर चला जाता है। मालूम है कि 17 शताब्दी के उतरार्ध से लेकर अभी तक वायुमंडल का तापमान 1।1 सेंटीग्रेड बढ़ चुका है। इसके लिए मुख्यत: दोषी यूरोपीय औद्यौगिक देश और अमेरिका है, जिनके कारण पिछले 200 वष्रो में पृथ्वी का तापमान इस हालत में पहुंच चुका है कि समुद्री तट पर स्थित देश जलमग्न होने से आक्रांत है। इसमें भारत के भी कई शहर हैं। छोटे-छोटे देशों ने परम्परागत ऊर्जा के साधन जैसे कोयला, डीजल और पेट्रोल से हाय तौबा कर लिया है, लेकिन उनके आकार इतने छोटे हैं कि समस्या का समाधान नहीं हो सकता।
यूरोपीय देशों में भी ग्रीन ईधन की ललक बढ़ी है। उनका भी दायरा छोटा है। प्रश्न उठता है कि क्या चीन, अमेरिका और दर्जनों मध्यम दरजे की शक्तियां अपनी विदेश नीति को सीधे क्लाइमेट पालिसी (जलवायु नीति) बनाने के लिए तैयार है कि नहीं? अगर नहीं तो दुनिया की समाप्ति भी सुनिश्चित है। तीन महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं, जिसका विश्लेषण जरूरी है। पहला, भारत के लिए हरित ऊर्जा एक विकल्प नहीं बल्कि जरूरत है। दरअसल, यह जरूरत केवल भारत की नहीं बल्कि पूरे विश्व की है। 1992 में सम्पन्न ‘रियो सम्मलेन’ से लेकर 2015 के बीच कई अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन सयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में संपन्न हुए। हर बार चेतावनी दी गई। चेतावनी का वैज्ञानिक आधार था। ब्यूनर्स आयर्स में 1998 में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में वैज्ञानिकों ने कहा था कि अगर 2020 तक फॉसिल फ्यूल एनर्जी को बुनियादी रूप से कम नहीं किया गया तो 2020 में आपातकालीन स्तिथि पैदा हो सकती है, जिसका अंदाजा किसी को भी नहीं होगा। 2020 में कोरोना की अद्भुत महामारी से दुनिया सिकुड़ कर घरों में बंद हो गई। न्यूयार्क और पेरिस जैसे शहर जो कभी बंद नहीं होते थे, सन्नाटा पसर गया। 2015 के पेरिस मीटिंग में चेतावनी एक सच्चाई बन गई। कहा गया कि 2050 तक अगर कार्बन मुक्त ऊर्जा का बंदोबस्त दुनिया के बड़े और विकसित देश नहीं कर लेते तो मानवता हर तरीके से खतरे में है। विश्व को तबाह करने के लिए आणविक युद्ध की जरूरत नहीं पड़ेगी। दुनिया अपने कर्मो के भार से समाप्त हो जाएगा। आश्चर्य इस बात का है कि इतना सब कुछ होने के बाद भी दुनिया के पुरोधा इस बात को समझने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। जिस डाली पर बैठे हैं उसी डाली को काटने की मूर्खता कर रहे हैं। दुनिया के वैज्ञानिक मानते हैं कि वातावरण के गर्म होने का खमियाजा पूरी दुनिया के लिए मुसीबत है, लेकिन भारत और भारत के पड़ोसी देशों के लिए संकट ज्यादा तीखा और बहुरंगी है। चूंकि भारत सहित भारत के पड़ोसी देश ट्रॉपिकल जोन में आते हैं। घनीभूत आबादी है। आर्थिक व्यवस्था कमजोर है। विकास की गति को भी बढ़ाना है। इसलिए भारत सहित पूरे दक्षिण एशिया के देशों में हरित ऊर्जा के अलावा और कोई विकल्प शेष नहीं है। दरअसल, सुखद आश्चर्य यह है कि भारत की वर्तमान सरकार हरित ऊर्जा को बहाल करने की जुगत में जुट गई है। यह कागजों से उतरकर जमीनी स्तर पर दिखाई भी देने लगा है।
भारत में ऊर्जा का मुख्य उपयोग के कई खंड है, सबसे बड़ा ढांचा बिजली उत्पादन का है, जिसके सहारे अन्य व्यवस्थाएं चलती है। दूसरा परिवहन का है, जिसमें रेल और रोड ट्रांसपोर्ट के साथ कार्गो और हवाई जहाज आते हैं। तीसरा फैक्टरी का है, जिसमें मूलत: लोहा और सीमेंट फैक्टरी को ज्यादा ईधन की जरूरत पड़ती है, चौथा घरेलू जरूरतें हैं और पांचवा कृषि व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। भारत ने पिछले 6 सालों में सौर ऊर्जा का आकर 17 जीबी से बढ़ाकर 78 जीबी कर लिया है। प्रधांनमंत्री नरेन्द्र मोदी की कोशिश दुनिया में एक स्मार्ट सौर ग्रिड के जरिये दुनिया को जोड़ने की है, जिसमें एक सूर्य, एक ग्रिड और एक विश्व की परिकल्पना भारत की अनोखी देन है। सबसे मजेदार बात यह भी है कि सौर ऊर्जा की कीमत फॉसिल फ्यूल से चार गुणा कम है।
हरित ऊर्जा की सबसे बड़ी मुसीबत इसकी अबाध निरंतरता है। रात में सूर्य नहीं चमकता, इसके लिए स्टोरेज की जरूरत पड़ेगी। वह एक चुनौती है, जिसे आधुनिक टेक्नोलॉजी के जरिये पूरा कर लिया जाएगा। हर तरीके से भारत 2050 तक अपनी परम्परगत ऊर्जा व्यवस्था को बदलकर हरित ऊर्जा को स्थापित करने में सक्षम है। हरित ऊर्जा हर तरीके से विकेंद्रित होगा, अगर भारत के प्रधानमंत्री ने तमाम विवशताओं के बावजूद ग्रीन एनर्जी के आधार को अपना संकल्प बना लिया है, जिसमें 2050 तक फॉसिल फ्यूल्स से स्थांतरण ग्रीन एनर्जी में हो जाएगा। नीति आयोग के द्वारा रोडमैप भी तैयार किया गया।
अगर भारत यह सब कुछ कर सकता है तो अमेरिका और अन्य देश क्यों नहीं कर सकते? चीन क्यों नहीं करना चाहता? यह संघर्ष सामूहिक है। 1998 में सयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में सम्पान वार्षिक जलवायु अधिवेशन में यह बात कही गई थी कि अगर 2020 तक कार्बन जनित ऊर्जा में 30 प्रतिशत कमी नहीं की गई तो 2020 में आपदा की पूरी आशंका है, यह कितनी खतरनाक होगी इसका अंदाजा नहीं। देखना है कि दुनिया की महाशक्तियों के ज्ञान चक्षु खुलते भी है कि नहीं? अगर ऐसा होता है तो क्लाइमेट पॉलिसी ही विदेश नीति होनी चाहिए।
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