जयंती : ..जब बापू को ईर्ष्या हुई थी

Last Updated 26 Oct 2020 02:35:09 AM IST

देश में बढ़ते धार्मिंक व साम्प्रदायिक उद्वेलनों के पार जाने का रास्ता तलाशते हुए हम अपने स्वतंत्रता आन्दोलन के जिन शहीदों की ओर सबसे ज्यादा उम्मीद से देख सकते हैं, उनमें गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम बेहद खास है।


जयंती : ..जब बापू को ईर्ष्या हुई थी

सिर्फ  इसलिए नहीं कि वे ‘आजादी की लड़ाई का मुखपत्र’ कहलाने वाले ऐतिहासिक पत्र ‘प्रताप’ के संस्थापक-सम्पादक थे। इसलिए भी कि 1931 में 25 मार्च को कानपुर में चल रहे भयावह दंगे में कई निर्बल व निर्दोष नागरिकों को बचाते हुए उन्होंने क्रूर दंगाइयों के हाथों अपनी जान गंवाई, तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी विह्वल होकर खुद को यह कहने से नहीं रोक पाये कि आज उन्हें गणोशशंकर से ‘ईर्ष्या’ हो रही है।
बात दरअसल यह थी कि बापू चाहते थे कि खुद उनके जीवन का अंत, वह जब भी हो, इसी तरह निर्बलों व निर्दोषों की रक्षा करते हुए हो और विद्यार्थी इस मामले में उनसे बाजी मार ले गए थे। कहते हैं कि कानपुर के उस दंगे की त्रासदी इतनी विकट थी कि विद्यार्थी का निष्प्राण शरीर कई दिनों तक अस्पताल में दूसरे शवों के बीच पड़ा रहा और उनकी अन्त्येष्टि चार दिनों बाद 29 मार्च को सम्भव हो पाई। जाति और धर्म के भेद से परे, वचन, लेखनी और कर्म की एकता को अलंकृत करने वाली उनकी इस शहादत ने न सिर्फ कानपुर के निवासियों अथवा सभ्य समाज बल्कि एक दूजे की जान के प्यासे हो रहे दंगाइयों तक को ग्लानिग्रस्त करके रख दिया था। 26 अक्टूबर, 1890 को इलाहाबाद के अतरसुइया मुहल्ला स्थित अपनी ननिहाल में जन्मे विद्यार्थी के पिता मुंशी जयनारायण उत्तर प्रदेश में ही स्थित फतेहपुर जिले में हथगांव के निवासी और ग्वालियर रियासत में मुंगावली के एंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल के हेडमास्टर थे। उनका बाल्यकाल गांव में ही बीता और वहीं उनकी प्रारंथिक शिक्षा-दीक्षा भी हुई। जैसी कि उन दिनों रवायत थी, उनकी शिक्षा उर्दू की पढ़ाई से शुरू हुई और 1905 में उन्होंने मिडिल की परीक्षा पास की। उनके पत्रकारीय जीवन की शुरु आत यों हुई कि 1907 ई. में कानपुर से एंट्रेंस पास करके आगे की पढ़ाई के लिए वे फिर इलाहाबाद गए और कायस्थ पाठशाला में नाम लिखाया तो उन्हें प्रख्यात लेखक सुंदरलाल के साप्ताहिक ‘कर्मयोगी’ में काम का अवसर हाथ लगा। इस बीच छोटी-मोटी नौकरियां करते, अंग्रेज अधिकारियों से झगड़कर उन्हें छोड़ते व परिपक्व होते हुए वे ‘स्वराज्य’ तथा ‘हितवार्ता’ वगैरह अपने समय के जाने-माने पत्रों में भी लिखने लगे।

1911 में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के सम्पादकत्व में लब्ध प्रतिष्ठ पत्रिका ‘सरस्वती’ से जुड़े, जिसमें थोड़े ही दिनों बाद ‘आत्मोत्सर्ग’ शीषर्क से उनका पहला बहुचर्चित लेख प्रकाशित हुआ। ‘सरस्वती’ की ही तरह उनकी ‘अभ्युदय’ की पारी भी लम्बी नहीं हो पायी। 9 नवम्बर, 1913 को उन्होंने कानपुर से अपना खुद का ‘प्रताप’ निकाला, जो जल्दी ही देश की जनता पर अंग्रेजों व देसी रियासतों के अत्याचारों के विरु द्ध तीखे क्रांतिकारी विचारों का संवाहक बन गया। फिर तो वे सरदार भगत सिंह समेत अनेक क्रांतिकारी विभूतियों को उससे जोड़ने में सफल रहे और उसमें क्रांतिकारी रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की आत्मकथा भी छापी।
‘प्रताप’ के सम्पादनकर्म ने विद्यार्थी को तो बड़ा पत्रकार बनाया ही, उसकी मार्फत कितने ही नवयुवकों को पत्रकार, लेखक और कवि वगैरह बनने की प्रेरणा तथा प्रशिक्षण मिला। प्रताप ने सरल, मुहावरेदार और लचीलापन लिये हुए चुस्त हिंदी की एक नई शैली का प्रवर्तन किया। वैचारिक दृष्टिकोण पर जाएं तो विद्यार्थी पत्रकारिता को स्वतंत्रता संघर्ष का सबसे धारदार हथियार मानते थे। लोकमान्य तिलक उनके राजनीतिक गुरु थे और स्वातंत्रय समर में हिंसा-अहिंसा के द्वंद्व से उनका दूर का भी रिश्ता नहीं था। वे प्राय: कहा करते थे कि लड़ाई के साधन देशकाल और परिस्थतियों के अनुसार चुने जाते हैं। यही कारण था कि उन्होंने ‘प्रताप’ में आजादी के दीवानों की क्रांतिकारी व अहिंसक दोनों धाराओं को एक जैसा मान व दुलार दिया और कोरे पत्रकार बनने के बजाय मैदानी स्वतंत्रता संघर्ष और राजनीति में भी हिस्सेदारी की।
एनी बेसेंट के ‘होमरूल’ आंदोलन में तो उन्होंने बहुत लगन से काम किया ही, अपनी दुर्धर्ष संघषर्शीलता व विसनीयता के चलते जल्दी ही कानपुर के मजदूर वर्ग के एकछत्र नेता बन गए। 1925 ई. में वे कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की स्वागत-समिति के प्रधानमंत्री बने तथा 1930 ई. में प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष। इसी नाते 1930 के सत्याग्रह आंदोलन में गांधी जी ने उत्तर प्रदेश की कमान उनके हाथ में दी थी।

कृष्ण प्रताप सिंह


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