मीडिया : अनाधिकार चेष्टा
इन दिनों मीडिया में जो कुछ हो रहा है, वह बेहद दुखद है: इधर एक एंकर अपने को व अपने चैनल को कई दिन से विक्टिम की तरह पेश कर रहा है, उधर बाकी मीडिया एकदम चुप हैं!
![]() मीडिया : अनाधिकार चेष्टा |
कोरोना काल में सिकुड़ गए मारकेट ने खबर-चैनलों के कंपटीशन को यहां तक पहुंचा दिया है कि एक मरे तो दूसरा जिए!
कुछ दिन पहले एक राज्य के एक पुलिस अफसर ने थाने में जाकर केस दर्ज कराया कि इस विवादित चैनल व एक एंकर ने एक शाम अपने लाइव प्रसारण के जरिए संदेश दिया कि राज्य की पुलिस अपने चीफ की कार्यशैली से नाराज है और उसके विरुद्ध विद्रोह करने पर उतारू है..यह पुलिस व राज्य में अराजकता फैलाने की साजिश जैसा है। इसके लिए इन पर कानूनी कार्रवाई जरूरी है..इसके जवाब में एंकर का कहना रहा कि एक राज्य सरकार व उसका पुलिस चीफ उसके चैनल को बंद कराने पर तुले हैं। उसके 1000 कर्मचारियों के खिलाफ झूठे केस फाइल किए हैं। यह उस जैसे एक ‘नेशनलिस्ट’ और ‘नंबर वन’ चैनल से दुश्मनी निकालना है। लेकिन वह किसी से डरता नहीं क्योंकि ‘सच’ उसके साथ है।
सब जानते हैं कि हमारे चैनल किस प्रकार के ‘सत्यवादी हरिश्चंद्र’ हैं? वे चेहरा देखकर घटना के राजनीतिक महत्त्व को देखकर ही बात करते हैं। चाहे रेप हो या हत्या या आत्महत्याएं, अपने एजेंडे के लिए सिर्फ उन्हीं को चुनते हैं जिनमें एक तीर से कई निशाने लगने की संभावना होती है। सुशांत की मौत का केस ऐसा ही केस था जिसमें बहुत सी संभावनाएं थीं : एक ओर यह केस एक राज्य सरकार को हिला सकता था तो दूसरी ओेर एक राज्य के आसन्न चुनावों में उपयोगी था। ऐसी ही ‘मल्टीपरपज’ अपराध कथा हाथरस की दलित लड़की के ‘रेप’ की कथा थी जो यूपी के भावी चुनावों के लिए नये वोट बैंक की संभावना दिखाती थी। इसीलिए कई नेताओं और चैनलों ने उसे देर तक उठाए रखा और जब उसकी सारी बहु-उद्देश्यता खत्म हो गई तो उसे दंगे का दुहत्थड़ मारकर सुला दिया गया। अगर हम चैनलों में चार महीने बजाई गई सुशांत कथा को ‘विखंडित’ (डकिंस्ट्रक्ट) करें तो हम दो-तीन चीजें स्पष्ट होती देखेंगे : शुरू में हर चैनल ने सुशांत की मौत की कहानी को मल्टीपरपज कहानी की तरह देखा और अपने-अपने नायक-नायिका और खलनायक-खलनायिका खोज लिए। फिर सब अपने-अपने नायक-नायिकाओं को बचाने में और खलों को निपटाने में लगे रहे।
सीबीआई के बीच में आते ही बहुत से चैनलों ने सुशांत की कहानी में दिलचस्पी लेनी खत्म कर दी लेकिन एक चैनल फिर भी इस मुद्दे को निचोड़ता रहा क्योंकि उसे इसमें एक ओर राज्य सरकार की हिलाने की क्षमता नजर आती रही! फिर एक हीरोइन को भी कुछ फिल्म वालों से स्कोर सेटिल करना था, इसलिए भी यह चैनल इस मुददे को अपना दैनिक मुददा बनाता रहा जबकि बहुत से राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दे सामने रहे। तो भी, जब सीबीआई, एनफोर्समेंट और नारको जैसी तीन-तीन एजेंसी मैदान में आ गई तो कायदे से तो खबर से बाहर हो जाना था लेकिन एक चैनल ने इस केस का पीछा न छोड़ा तो क्यों न छोड़ा? इसलिए कि इस रहस्य कथा में अब भी कई बड़ों से हिसाब चुकाने की ताकत बची थी और एक एंकर में अपने को जासूसों का जासूस मानने का दुरअहंकार बचा था। यहां अपने एक घंटे का कंगारू कोर्ट चलाकर अपने कंगारू न्यायाधीश बनकर फैसला सुनाने का सुख था। साथ ही ‘वो न्याय के लिए लड़ मरा’ वाली शहादत की संभावना भी थी! लेकिन शायद सबसे बड़ा कारण एंकर और राज्य सरकार के नेताओं और पुलिस के ‘अंहकारों’ की ‘जीत-हार’ का रहा।
विवादित चैनल के एंकर की एक ही विशेषता है जो उसकी एंकरी को अन्यों से अलग करती है, वह है उसकी ‘पर्सनल इज पॉलिटीकल’ की शैली! इसीलिए अन्य चैनल ‘नाम बचाकर’ या ‘कथित’ लगाकर काम करते हैं लेकिन यह एंकर सबका सीधा नाम लेकर मुकदमा चलाता है और जिस-तिस को ‘शट अप’ और ‘शेम शेम’ करता हुआ ‘सजा’ देने का आनंद लेता है। कहने की जरूरत नहीं कि यह दुश्मन बनाने की कला है। सबको दुश्मन बनाकर आप किससे हमदर्दी की उम्मीद कर सकते हैं? और यहीं एंकर फंसा क्योंकि उसने खुद को ‘स्टेट’ समझ लिया और दूसरी ‘स्टेट’ से टकरा गया। इस कहानी का सबक यही है कि राज्य राज्य होता है और चैनल सिर्फ चैनल! वह राज्य सत्ता का भौंपू तो हो सकता है लेकिन अपने को राज्य समझने की ‘अनाधिकार चेष्टा’ कभी न करे। कहना होगा कि जो ‘अनाधिकार चेष्टा’ करते हैं, उनका अंत ‘अनाधिकार चेष्टा’ नामक लोक कहानी के ‘गधे’ की तरह ही होता है।
| Tweet![]() |