वृद्धजन दिवस : धरोहर से कम नहीं बुजुर्ग

Last Updated 01 Oct 2020 04:23:18 AM IST

वृद्धावस्था मानवीय जीवन की अनिवार्य परिणति है। भारत जैसे विकासशील देशों में यह उभरती हुई समस्या है। भारत बहुलतावादी देश है।


वृद्धजन दिवस : धरोहर से कम नहीं बुजुर्ग

यहां वृद्धों की समस्याएं भी विविधताओं से भरी हैं। संस्कृति, भाषा, आर्थिक स्थिति, जीवन प्रणाली, गांव, नगर, जाति, वर्ग, लिंग, रहन-सहन, रूढ़ियां आदि की भिन्नताएं वृद्ध जीवन को कई प्रकार से प्रभावित करती हैं। वृद्धावस्था की समस्या आज सामाजिक, आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्या के रूप में मौजूद है।
जीवन की औसत आयु में वृद्धि के कारण वृद्धों की आबादी भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के अनेक देशों में भी बढ़ी है। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार  बुजुर्गों की आनुपातिक संख्या 1961 के 5.6 प्रतिशत से बढ़कर 1991 में 6.6  प्रतिशत हो गई तथा 2021 में बढ़कर 9.9 प्रतिशत हो जाएगी। 1991 में प्रौढ़ या वृद्धों की संख्या 5 करोड़ 50 लाख थी, जो 2001 तक बढ़कर 7 करोड़ 60 लाख हो गई एवं 2020 में 12 करोड़ 40 लाख। संभव है कि 2025 में यह संख्या बढ़कर 17 करोड़ 74 लाख हो जाए। वृद्ध जीवन की प्रक्रिया का असर हर सामाजिक समुदाय और समाज के प्रत्येक संबंध पर पड़ता है। आबादी की प्रौढ़ता का मुद्दा वृद्धजनों से नहीं, बल्कि आबादी के हर वर्ग से है। भारत में वृद्धों की बढ़ती आबादी के साथ उनसे जुड़ी कुछ गंभीर पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं से आज हम सब लड़ रहे हैं। वृद्धों की सबसे बड़ी समस्या अकेलेपन की है। इस अकेलेपन के साथ भावनात्मक लगाव की कमी समस्या को और जटिल बना देती है। कभी-कभी वृद्ध बुजुर्गियत को स्वीकार न कर विद्रोही तेवर अख्तियार कर बुढ़ापे को सामाजिक कलंक मान लेता है। अवकाश प्राप्ति, विधवा या विधुर, अलगाव, सामाजिक प्रतिष्ठा में कमी, पदेन शक्ति की कमी, नाते-रिश्तेदारों में सामाजिक सहारे का अभाव, अव्यवस्था, विस्थापन, अपर्याप्त पारिवारिक समर्थन तथा देख-रेख करने वालों का अभाव आदि बुढ़ापे में सामाजिक बीमारी के सामान्य अंग हैं।

भारतीय समाज में वृद्धों को पारंपरिक रूप से उच्च सामाजिक मान-मर्यादा मिलती है। शादी-विवाह, शिक्षा, आर्थिक मुद्दे आदि महत्त्वपूर्ण विषयों पर उनकी राय ली जाती है। समाज के आधुनिकीकरण के कारण यह स्थिति तेजी से बदल रही है। परिवार के युवाजन जीवन संघर्ष की राह चलते हुए शहरों की ओर कूच कर जाते हैं, जिसके कारण परिवार के बुजुर्गों से अलग होना पड़ता है। इससे वृद्ध बच्चों से मिलने वाले भावात्मक सहारे से वंचित हो जाते हैं। पीढ़ीगत वैचारिक अंतर भी पारिवारिक संबंधों में सामंजस्य नहीं होने के बुनियादी कारण हैं, जिनका सबसे ज्यादा दुष्परिणाम बुजुर्गों को भुगतना पड़ता है।
भारत दुनिया में संबंधों की आत्मीयता और गरिमा के लिए जाना जाता है। व्यक्ति अपना संपूर्ण यौवन अपने बच्चों के लिए होम कर देता है किन्तु एक दिन वही बच्चे उसे त्याग देते हैं। इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है? सफलता की अंधी दौड़ में हम सब बेतहाशा भाग रहे हैं। आखिर, रु कने के बाद हमें मिलेगा क्या? बुजुर्गों के लिए परिवार का अर्थ आत्मीयता, घनिष्ठता व सुरक्षा है, जिसका विकल्प राज्य द्वारा उत्तम प्रयास, सुविधाएं व योजनाओं के आधार पर नहीं बनाया जा सकता। सरकार द्वारा वरिष्ठ नागरिक अधिनियम बनाए गए हैं, जो वृद्धजन के अधिकार को सुरक्षा प्रदान करते हैं। केंद्र व राज्य सरकारों की लाभकारी व कल्याणकारी योजनाएं चल रही हैं। स्वयंसेवी संगठन भी इस दिशा में सक्रिय पहल कर रहे हैं।
वृद्धजनों का सबसे सुरक्षित परिवेश संयुक्त परिवार है। 21वीं सदी को संयुक्त परिवार के विघटन की सदी के तौर पर भी जाना जाएगा। आज परिवार की संकल्पना ही बदल चुकी है। एकल परिवार की विसंगतियों का सबसे बड़ा दु:ख परिवार के बुजुर्गों को झेलना पड़ता है। परिवार समाज की प्रथम इकाई होता है। परिवार के हर सदस्य का कर्त्तव्य बनता है कि बुजुर्गों की देख-भाल करे। बुजुर्गों के प्रति सम्मानजनक और गरिमामय वातावरण निर्मिंत करना परिवार, समाज और सरकार की संयुक्त जिम्मेदारी है। हमारे बुजुर्ग परिवार,समाज और राष्ट्र के लिए किसी धरोहर से काम नहीं हैं। जरूरी है कि पारिवारिक और  सामाजिक मूल्यों को पुन: स्थापित किया जाए। साथ ही, नई पीढ़ी को बुजुर्गों के प्रति संवेदनशील बनाया जाना भी जरूरी है। पारिवारिक संस्था जितनी मजबूत होगी, वृद्धावस्था उतनी ही सुरक्षित होगी। ऐसा करके ही हम वृद्धावस्था को अभिशाप बनने से बचा सकते हैं।

मनीष चौधरी


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