बिहार चुनाव : सिर के बल खड़ी पार्टियां

Last Updated 30 Sep 2020 12:39:18 AM IST

लोकतंत्र में चुनाव का बड़ा महत्त्व होता है। चुनाव से ही तय होता है कि शासक कौन बनेगा और कौन विपक्ष में बैठेगा।


बिहार चुनाव : सिर के बल खड़ी पार्टियां

चुनाव का महत्त्व जनता के लिहाज से खासा महत्त्वपूर्ण होता है। राजनीतिक दल हर हाल में जनता को अपने पक्ष में करने की तमाम कोशिशें करते हैं। फिर बात जब बिहार की हो तो कई बातें अतिरिक्त रूप से स्वत: ही जुड़ जाती हैं। इनमें से एक है जातिगत समीकरण। हर राजनीतिक दल इस जातिगत समीकरण को साधने की फिराक में रहता है। एक बात और है। किसी भी चुनाव में दो तरह के लहर होते हैं। एक लहर जो सियासी गलियारे में आसानी से देखा जा सकता है और महसूस किया जा सकता है, लेकिन एक लहर अंदरूनी भी होती है, जिसे लेकर राजनीतिक दलों के नेताओं में मतदान के दिन तक ऊहापोह की स्थिति बनी रहती है।
बिहार में अंदरूनी लहर बाहरी लहर की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यही वह लहर है जिसपर सवार होकर यहां सरकारें आती-जाती रही हैं। इस अंदरूनी लहर का संबंध उन मुद्दों से नहीं होता, जिनका जिक्र सामान्य तौर पर पार्टयिां घोषणापत्रों में करती हैं। घोषणापत्रों में शमिल किए गए मुद्दे अंदरूनी लहर को तेज बनाने में मदद तो करते हैं, लेकिन उनकी एक सीमा होती है। जैसे इस बार के विधानसभा चुनाव को ही देखें। अभी तक बाहरी लहर बनाने की कोशिशें की जा रही हैं। हो यह रहा है कि तमाम पार्टयिां जातिगत समीकरणों को केंद्र में रखकर गठबंधन कर रही हैं। उदाहरण के लिए सत्तासीन नीतीश कुमार की हाल की कोशिशों को देखें। वे राष्ट्रीय जनता दल (राजद) को अलग-थलग कर देना चाहते हैं।

हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के जीतनराम मांझी को महागठबंधन से अलग कर उन्होंने संदेश दे दिया है। दूसरी ओर राजद भी बाहरी लहर को मजबूत करने में जुटी है। कांग्रेस और वामदलों के साथ मिलकर राजद स्वयं को बड़े समुच्चय का सबसे बड़ा सदस्य बन चुका है। कुशवाहा और मांझी महागठबंधन के लिए बहुत लाभकारी नहीं रहे। इन दोनों के साथ मिलकर राजद पिछले वर्ष हुए लोक सभा चुनाव में अपना हाथ जला चुका है। दरअसल, कुशवाहा और मांझी अब उन नेताओं में शुमार हैं,  जो चाहें भी तो अपने स्तर से राजद को लाभ नहीं पहुंचा सकते। इसकी वजह इन दोनों का अपनी जाति तक सीमित होना है। यह पहला अवसर है जब बिहार में मुद्दे बदल चुके हैं। भाजपा हिन्दुत्व के मसले को तुरूप का पत्ता मानती है। उसकी यह कोशिश रहेगी कि वह चुनाव के नजदीक आने पर इस पत्ते का इस्तेमाल करे। फिलहाल वह ‘देखो और इंतजार करो’ की रणनीति अपना रही है। एनडीए की तरफ से मोर्चा संभालने की जवाबदेही उसने नीतीश कुमार को दे रखी है। नीतीश कुमार भी अपने लिए मुद्दे तलाश रहे हैं। उनके समक्ष दोहरी चुनौती है। एक तो यह कि उन्हें अपने बीते पंद्रह सालों के शासनकाल को बेहतर दिखाना है। वही दूसरी चुनौती यह कि उनके पास नये मुद्दे नहीं हैं। वे यह जानते हैं कि लालू प्रसाद को कोसकर अब वे बिहार में राज नहीं कर सकते।
उनके सामने लालू प्रसाद हैं भी नहीं। उनके सामने तो एक नौजवान है, जिसने 2015 में उनके साथ सत्ता का स्वाद चख लिया है। लालू प्रसाद पर हमला करके वे तेजस्वी को परास्त नहीं कर सकते। इसलिए वे ‘सात निश्चय’ के दूसरे संस्करण को सामने लेकर आए हैं। वहीं तेजस्वी यादव ने बिहार की राजनीति में अभिनव प्रयोग किया है। कोरोना से निबटने में केंद्र व राज्य सरकारें फेल हुई हैं। यह बात वे समझते हैं कि जनता इस सच से वाकिफ है। इसे तेजस्वी यादव ने अंदरूनी लहर का हिस्सा मानकर अभी अनछुआ रखा है। उनका जोर नीतीश कुमार को उनकी भाषा में जवाब देने पर है। यही वजह रही कि नीतीश कुमार के नये सात निश्चयों का जवाब उन्होंने यह कहकर दिया है कि यदि वे जीते तो पहली कैबिनेट में दस लाख रोजगार देंगे। यह चौंकाने वाला पलटवार है। नीतीश कुमार ने सपने में भी यह नहीं सोचा होगा कि उनसे आधे उम्र से भी कम उम्र का नौजवान यह चाल चलेगा। वे तो यह मानकर चल रहे थे कि तेजस्वी अपने पिता लालू प्रसाद के सामाजिक न्याय को लेकर आगे बढ़ेंगे। वे यह घोषणा करेंगे कि यदि उनकी सरकार आई तो दलितों-पिछड़ों के आरक्षण को 70 फीसद तक बढ़ाने की बात करेंगे। यदि तेजस्वी ने ऐसा किया होता तो निश्चित तौर पर फायदा नीतीश कुमार को ही मिलता। वे जानते हैं कि बीते तीस सालों (1990 के बाद) में सामाजिक न्याय की राजनीति का जितना फायदा उठाया जा सकता था, पहले लालू प्रसाद ने उठाया और उनके बाद वे स्वयं उठा चुके हैं। लिहाजा आज के दौर में केवल सामाजिक न्याय की बात कहने से बात नहीं बनेगी।
दरअसल, तेजस्वी आज वही कर रहे हैं, जो नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद के खिलाफ 2005 में आजमाया था। भ्रष्टाचार, अपराध और विकास को उन्होंने मुद्दा बनाया तथा भाजपा के हिन्दुत्व के रथ पर सवार होकर वे सफल रहे। तेजस्वी ने कमजोर नब्ज को पहचान लिया है। अब नीतीश कुमार के पास उनके हमले का कोई जवाब नहीं है, जिससे वे यह साबित कर सकें कि बिहार में बेरोजगारी समस्या नहीं है। कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान जिस तरह की तस्वीर प्रवासी मजदूरों की दिखी, वह यह साबित कर चुकी है कि बिहार के युवा किस कदर बेरोजगार हैं और रोजी-रोटी के लिए पलायन को मजबूर हैं। हालांकि अभी यह सब केवल बाहरी लहर से संबंधित हैं। जिसकी बाहरी लहर अधिक मजबूत होगी, उसके अंदरूनी लहर के मजबूत होने की संभावना बढ़ जाती है।
फिर भी अभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है। वजह यह कि भाजपा ने अपने इरादे साफ नहीं किए हैं। फिर इतना जरूर कहा जा सकता है कि भाजपा की पुरजोर कोशिश होगी कि जद (यू) से इस बार बड़ा भाई होने के ताज को छीन ले, लेकिन वह कोई जल्दबाजी नहीं करना चाहती। बहरहाल, बिहार चुनाव में भाजपा के सामने भी चुनौतियां कम नहीं हैं। कृषि विधेयक को लेकर जब से शिरोमणि अकाली दल ने स्वयं को एनडीए से अलग किया है, उसकी चुनौतियां बढ़ गई हैं। बिहार के किसान भी कृषि विधेयक को लेकर चिंतित हैं। हालांकि यह ऊपरी तौर पर साफ-साफ नहीं दिख रहा, लेकिन इसका अंदरूनी प्रभाव जरूर होगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है।

नवल किशोर कुमार


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