दिल्ली दंगे : साजिश के शोर का षड्यंत्र
उत्तर-पूर्वी दिल्ली में फरवरी के आखिर में हुए दंगों के सिलसिले में शासन के मुख्य केस का बृहस्पतिवार, 17 सितम्बर को अतिरिक्त सत्र न्यायालय ने संज्ञान ले लिया।
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‘षडयंत्र’ केस में फिलहाल दमनात्मक यूएपीए तथा अन्य कानूनों के प्रावधानों के तहत जेएनयू, जामिया तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के अनेक छात्र-छात्राओं समेत 15 लोगों के नाम शामिल हैं। वैसे यूएपीए के तहत ही पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए जेएनयू के पूर्व छात्र उमर खालिद तथा शर्जिल इमाम के नाम फिलहाल इस चार्जशीट में शामिल नहीं हैं। पुलिस का कहना है कि ये नाम पूरक चार्जशीट में जोड़े जाएंगे। दंगे के छह महीने से ज्यादा गुजर जाने के बाद दायर चार्जशीट में भी पहले से पूरक जोड़े जाने की जगह रखी गई है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ षडयंत्र का फर्जी केस गढ़ने में, जिसे उतनी ही आसानी से खींचकर आतंकवाद तक फैला दिया गया है, सीधे अमित शाह के मातहत काम कर रही दिल्ली पुलिस को कितनी ‘मेहनत’ करनी पड़ रही है। यह मेहनत ‘चक्का जाम’ को हिंसा और ‘सीएए-विरोध’ को सांप्रदायिक हिंसा के लिए उकसावे का समानार्थी बनाने के पुलिसिया कमालों के ऊपर से है।
इसी ‘षडयंत्र’ केस से जुड़ी एक पूरक चार्जशीट में कालिता, नरवाल तथा सफूरा के कथित बयानों के आधार पर, जिन पर उनके दस्तखत तक नहीं हैं, पुलिस ने सीपीआई (एम) महासचिव सीताराम येचुरी समेत लगभग आधा दर्जन जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों तथा कलाकारों के नाम षडयंत्र के मददगारों के रूप में लिए हैं। बेशक, ज्यादा शोर मचने पर पुलिस ने सफाई दी कि येचुरी और अन्य को अभी आरोपित नहीं किया गया है। पूरक चार्जशीट में उनका नाम सिर्फ आरोपियों की डिस्क्लोजर स्टेटमेंट के आधार रखा गया है। पुलिस सिर्फ किसी बयान के आधार नहीं, बल्कि छानबीन के आधार पर कार्रवाई करती है! इस तरह शाह की पुलिस ने इसका संकेत तो दिया कि फिलहाल इन संदिग्ध ‘सह-षडयंत्रकारियों’ पर हाथ नहीं डालने जा रही लेकिन उसने इसका भी इशारा कर दिया कि वह आगे क्या करेगी, यह अभी नहीं बताएगी? दिल्ली के दंगों की जांच के नाम पर दिल्ली पुलिस सांप्रदायिक पक्षपात का खेल खेल रही है, जिसमें पुलिस की अपनी सांप्रदायिक पक्षपातपूर्ण भूमिका पर पर्दा डालना भी शामिल है। इसके ऊपर से, एक ओर तो पूरी तरह से शांतिपूर्ण तथा संवैधानिक दायरे में चलाए गए सीएए-विरोधी सत्याग्रह से जुड़े प्रमुख नामों को ‘सांप्रदायिक हिंसा के षडयंत्र’ के साथ जोड़ने के जरिए दिल्ली में सीएए-विरोधी सत्याग्रह के शाहीनबाग से शुरू हुए सिलसिले को ही बदनाम करने की कोशिश की जा रही है और दूसरी ओर कपिल मिश्रा जैसे भाजपा नेताओं की सीएए-विरोधी सत्याग्रह के विरोध के नाम पर सांप्रदायिक हिंसा भड़काने की प्रत्यक्ष कोशिशों और अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा तथा खुद अमित शाह के भी, शाहीनबाग सत्याग्रह के विरोध के नाम पर सांप्रदायिक नफरत फैलाने पर पर्दा डालने की कोशिश की जा रही है। यह खेल इतनी नंगई से हो रहा है कि अनेक पूर्व-आईपीएस अफसरों तक ने, जिनमें भारतीय पुलिस अधिकारियों में लीजेंड बन चुके जूलियस रिबेरो का नाम भी शामिल हैं, पुलिस की जांच की निष्पक्षता पर सवाल उठाए हैं।
बहरहाल, येचुरी और अन्य के नाम भी इस खेल में शामिल कर लिए जाने का संसद से लेकर सड़क तक विरोध हुआ है। इसी विरोध के हिस्से के तौर पर विपक्ष की ओर से दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों और कांग्रेस समेत पांच राजनीतिक पार्टियों के वरिष्ठ नेताओं ने राष्ट्रपति से मुलाकात कर दिल्ली के दंगों की जांच पर सवाल उठाए। स्वतंत्र न्यायिक जांच का आदेश करने का आग्रह किया। राष्ट्रपति को दिए ज्ञापन में जहां ध्यान खींचा गया कि दिल्ली पुलिस का गढ़ा हुआ ‘षडयंत्र सिद्धांत’ प्रतिष्ठित राजनीतिक नेताओं तथा अन्य जाने-माने बुद्धिजीवियों को झूठ में लपेटने के स्तर तक पहुंच गया है, वहीं यह भी याद दिलाया गया कि पूरी की पूरी जांच ही पहले से बनी-बनाई एक थ्योरी को सच साबित करने का उद्देश्य लेकर चल रही है, जो खुद गृह मंत्री ने मार्च में ही लोक सभा में पेश कर दी थी, जबकि दंगों की जांच शुरू भी नहीं हुई थी!
बहरहाल, एक सवाल और पूछा जा रहा है कि येचुरी और अन्य के इस मामले में घसीटे जाने का क्या अर्थ है? मानने को कोई तैयार नहीं होगा कि यह दिल्ली पुलिस के संबंधित अधिकारियों के अति-उत्साह में अनजाने में सीमा लांघ जाने का मामला हो सकता है। मौजूदा निजाम में सबसे पहले जेएनयू तथा अन्य विश्वविद्यालयों के विशेष रूप से वामपंथी विचार के छात्र नेताओं और आम तौर पर वंचितों के पक्ष में आवाज उठाने वाले शिक्षकों और पत्रकारों समेत अन्य बुद्धिजीवियों-कलाकारों को हमले की जद में खींचा गया। इसके बाद, ‘अर्बन नक्सल’ या ‘बौद्धिक माओवादी’ करार देकर आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों के हितों तथा आम तौर पर मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को निशाना बनाया गया। अंतत: ‘भीमा-कोरेगांव’ के दलित-विरोधी हमले के प्रकरण को अवसर बनाते हुए कानूनी हमले की जद में खींच लिया गया। और अब सीएए-विरोधी जन-उभार के बीच से उभरे विशेष रूप से युवा, अल्पसंख्यक, महिला-पुरुष नेताओं को यूएपीए आदि की दमन की चक्की में पीसने के साथ शासन के सीधे कानूनी हमले के इस दायरे को फैलाकर राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों को भी इसमें समेटने की कोशिश की जा रही है।
संयोग नहीं है कि हमले के मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों तक इस विस्तार की शुरुआत सीपीएम के महासचिव से हुई है। शीर्ष पर हमला करना अधिकतम आतंक पैदा करने की सोची-समझी कार्यनीति का हिस्सा है। दूसरी ओर, इसी कार्यनीति का हिस्सा है, पहले भीमा कोरेगांव और अब उत्तर-पूर्वी दिल्ली की सांप्रदायिक हिंसा के प्रकरण में नंगई से ‘अपने’ हमलावरों को बचाने के लिए अपने राजनीतिक विरोधियों पर शासन की दमनकारी ताकत का इस्तेमाल कर हमला करना। पलटवार की यह कार्यनीति भी आतंक कायम करने की उसी कार्ययोजना का हिस्सा है। जाहिर है कि इन पलट हमलों के लिए कम्युनिस्टों या गरीब-हमददरे के चुने जाने में भी रत्ती भर संयोग नहीं है। गोलवलकर ने बहुत पहले आरएसएस की हिंदू राष्ट्र बनाने की परियोजना के लिए जो ‘आंतरिक शत्रु’ गिनाए थे, उनमें मुसलमानों और ईसाइयों के बाद, तीसरा नाम (अनिवार्य रूप से इसी क्रम में नहीं) कम्युनिस्टों का ही था। इसीलिए भले ही फिलहाल पुलिस कार्रवाई रुकी हुई हो, कदम तो आगे बढ़ा ही दिया गया है। याद रहे कि इस हमले का दायरा यहीं नहीं रुकेगा।
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