पं. दीनदयाल उपाध्याय : भारतीयता के चिंतक
भारत भूमि को चिंतन और साधना का केंद्र माना जाता है। भारत की आजादी के तुरंत बाद ऐसा समय आया जब हमारा राजनीतिक चिंतन आयातित विचारों का अनुसरण करने लगा।
पं. दीनदयाल उपाध्याय : भारतीयता के चिंतक |
उसमें भाव तो था, लेकिन भारतीयता का अभाव था, दृष्टि भी थी, लेकिन भारतीयता की दृष्टि से भारत को देखने की शक्ति नहीं थी। जब हम भारत की जनता के कल्याण का आश्वासन दे रहे हैं, तो आवश्यक हो जाता है कि हमारा विचार और सैद्धांतिक पक्ष का धरातल भारतीयता के भावों से परिपूर्ण हो।
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने राजनीति में भारतीयता की दृष्टि प्रदान की। राजनीतिक जीवन कोतपस्वी की भांति जीने वाले दीनदयाल जी ने देश के सामने खड़ी चुनौतियों को न केवल इंगित किया, बल्कि सरकार को सही मार्ग भी सुझाए। विचार का प्रवाह कभी नहीं रुकता। दीनदयाल जी भी नहीं रु के। उन्होंने हमारे सामने ऐसा विचार प्रस्तुत किया जो मानव कल्याण के मूल को बताता है, जिसे हम एकात्म मानववाद के रूप में जानते हैं, जिसमें कहा गया कि हमारी संपूर्ण व्यवस्था का केंद्र मानव होना चाहिए। यह जीवन दशर्न मनुष्य की समग्रता को परिभाषित करता है। साठ के दशक में उन्होंने हमारे अर्थ तंत्र को मजबूत करने के लिए जो विचार दिए वे आज के परिप्रेक्ष्य में भी प्रासंगिक नजर आ रहे हैं। दीनदयाल जी का आर्थिक दशर्न भारतीयता के मूल से निकला हुआ दशर्न है, देश में लंबे समय तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेस-नीत सरकारों ने उन विचारों की उपेक्षा की, जिसका दुष्परिणाम हम बढ़ते पूंजीवाद, व्यवस्थाओं के केंद्रीकरण, आयात पर निर्भरता, असंतुलित औद्योगीकरण के रूप में देख सकते हैं। दीनदयाल जी विकेंद्रीकरण के प्रबल पक्षधर थे।
उनका मानना था कि हमारी अर्थव्यवस्था का आधार हमारे गांव और जनपद होने चाहिए। अपनी पुस्तक ‘भारतीय अर्थ नीति : विकास की एक दिशा’ में दीनदयाल जी लिखते हैं, ‘यह भी आवश्यक है कि हम आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनें। यदि हमारे कार्यक्रमों की पूर्ति विदेशी सहायता पर निर्भर रही तो वह अवश्य ही हमारे ऊपर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बंधनकारक होगी। हम सहायता देने वाले देशों के आर्थिक प्रभाव में आ जाएंगे। अपनी आर्थिक योजनाओं की सफल पूर्ति में संभव बाधाओं को बचाने की दृष्टि से हमें अनेक स्थानों पर मौन रहना पड़ेगा।’ इसके आगे वे बहुत गंभीर बात कहते हैं, ‘जो राष्ट्र दूसरों पर निर्भर रहने की आदत डाल लेता है, उसका स्वाभिमान नष्ट हो जाता है। ऐसा स्वाभिमानशून्य राष्ट्र कभी अपनी स्वतंत्रता की कीमत नहीं आंक सकता है।’ भारत गांव और किसानों का देश है। गांव और किसान समृद्ध हुए तो देश की प्रगति हर दिशा में संभव है। दीनदयाल जी गांवों को प्रभावित करने वाली आर्थिक नीति को भारत को उजाड़ने वाली नीति बताते थे। मानते थे कि उत्पादक वस्तुएं बड़े उद्योग तैयार करें एवं उपभोग की वस्तुएं छोटे उद्योग। आर्थिक विकेंद्रीकरण के प्रबल पक्षधर थे। भारत के मूल को समझते थे, भारत के मूल्यों के केंद्र में ही अपनी बात रखते थे। उनके विचारों में समाज को बदलने की शक्ति थी। वे मानते थे कि समाज के अंतिम व्यक्ति का विकास किए बिना नीतियों का कोई महत्त्व नहीं रह जाता।
कालीकट अधिवेशन (1967) में जनसंघ का अध्यक्ष बनने के उपरांत अपने पहले अध्यक्षीय भाषण में पं. दीनदयाल उपाध्याय ने तत्कालीन सभी विषयों पर अपने विचार व्यक्त किए जिनमें कृषि, आर्थिक, कश्मीर, भाषा इत्यादि शामिल थे। लेकिन भाषण के अंत में जनसंघ के लक्ष्य को केंद्र में रखते हुआ उन्होंने कहा, ‘हमने किसी संप्रदाय या वर्ग की सेवा का नहीं, बल्कि संपूर्ण राष्ट्र की सेवा का व्रत लिया है। सभी देशवासी हमारे बांधव हैं। जब तक हम इन सभी बंधुओं को भारत माता के सच्चे सपूत होने का गौरव प्रदान नहीं करा देंगे, हम चुप नहीं बैठेंगे।’ इस लक्ष्य में बहुत गूढ़ बात दीनदयाल जी ने कही। वह राजनीति को राष्ट्र सेवा का लक्ष्य मानकर चलते थे। समाज में भेदभाव, ऊंच-नीच की दृष्टि उनकी नहीं थी। उनका लक्ष्य मानव कल्याण से राष्ट्र कल्याण का था।
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