लघु उद्योग : चीन का प्रतिद्वंद्वी बनने की शर्त

Last Updated 25 Sep 2020 05:26:44 AM IST

चाकुओं में चाकू रामपुरी चाकू, बाकी सब सिर्फ छुरियां। बटन से खुलने वाला रामपुरी चाकू किसी जमाने में केवल रामपुर ही नहीं, बॉलीवुड की फिल्मों में भी खूब दिखा लेकिन अब इन चाकुओं को चाइनीज चाकुओं से टक्कर मिल रही है।


लघु उद्योग : चीन का प्रतिद्वंद्वी बनने की शर्त

जो हश्र रामपुरी चाकू का है, वही सारे भारतीय लघु उद्योगों का है। वे बाजार में चीनी हमले से पस्त हैं। होली हो तो भारतीय चीनी पिचकारियों से होली खेलते हैं, दिवाली हो चीनी लक्ष्मी-गणोश की पूजा-अर्चना करते हैं, चीनी फटाखे और आतिशबाजियां ही चलाते हैं। राखी पर चीनी राखियां ही चलती हैं। भारतीयों को भारतीय माल की बजाय चीनी माल ही रास आता है।
चीन ने लघु उद्योगों के क्षेत्र में करिश्मा कर दिखाया है। नतीजतन, आज हमारे देश के सारे बाजार तरह-तरह के चीनी सामान से पटे पड़े हैं। इंकार नहीं किया जा सकता कि वे सस्ते, सुंदर होने के साथ-साथ आकषर्क और  नवीनतापूर्ण भी होते हैं। चीन हमारे बाजारों पर कब्जा कर हमें हमारे घर में घुसकर चुनौती दे रहा है। लेकिन हम शतुरमुर्ग की तरह समस्या को नजरअंदाज कर रहे हैं। चीन के बाजार में घुसकर अपना सामान बेचने की महत्त्वाकांक्षा पालना तो दूर हम अपने ही देश के बाजार में चीन के मुकाबले अपना माल नहीं बेच पा रहे। किसी उद्योग के लिए यह अस्तित्व का संकट होता है कि उसका सामान अपने देश में भी नहीं बिके। प्रसिद्ध पूंजीवादी अर्थशास्त्री एवं नोबल पुरस्कार विजेता मिल्टन फ्रीडमैन जब पहली पंचवर्षीय योजना के दौरान भारत आए थे तब  लुधियाना, जो लघु एवं मध्यम स्तर के उद्योगों के केंद्र के रूप में उभर रहा था, को देख कर उन्होंने लिखा था कि यहां क्रांति की शुरुआत हो रही है। आत्मविश्वासयुक्त मजबूत और अनगढ़ पूंजीवाद हिलोरे ले रहा है।

भारत की उम्मीद टाटा जैसे अपवादात्मक औद्योगिक दिग्गजों से पूरी नहीं होगी वरन लघु और मध्यम दरजे के उद्यमियों से पूरी होगी। वह लुधियाना से पूरी होगी न कि जमशेदपुर से। इस तरह बड़े उद्योग अर्थव्यवस्था के शिखर होते हैं। मगर लघु उद्योग अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं।
यूं तो  भारतीय बाजारों में सर्वव्यापी चीनी सामान के मुद्दे को यह कहकर टाला जा सकता है कि वैीकरण का जमाना है। सभी देश एक दूसरे के घरेलू बाजारों में माल बेच रहे हैं तो चीन के माल को लेकर यह रोना-गाना किसलिए! आखिर, चीनियों ने भारतीय माल को अपने बाजारों में बेचने पर कोई पाबंदी तो नहीं लगाई है। लेकिन भारत में ऐसा सस्ता, सुंदर और आकषर्क माल बन कहां रहा है, जो चीन के माल से होड़ ले सके। यही हमारी त्रासदी है। एक तरफ हमारे देश में करोड़ों बेरोजगार हैं मगर हम उनकी क्षमताओं का उपयोग कर आम जरूरतों का उपभोग का सामान भी नहीं बना पा रहे हैं जबकि इसमें कोई जोखिम भी नहीं है क्योंकि बाजार तो है ही। तभी तो चीन अपना माल धड़ल्ले से बेच रहा है।
कुछ जानकार लोगों का कहना है कि चीनी माल के बढ़ते चलन ने भारतीय अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान पहुंचाया है। चीन की आक्रामक व्यापार नीति के कारण चीनी माल भारतीय बाजार पर छा गया। होना यह चाहिए था कि भारतीय व्यापारी ऐसे माल से बाजार को पाट देते जो चीनी माल की टक्कर ले सके लेकिन हमारे देश के उद्योगपतियों ने पलायनवादी नीति अपनाई। नतीजतन, हजारों लघु और मध्यम श्रेणी के उद्योग बंद हो गए। हमारी राजनीति या आर्थिक जगत में यह कभी मुद्दा ही नहीं बन पाया कि भारत जैसा भावी आर्थिक महाशक्ति बनने के हसीन सपने देखने वाला देश अपने ही देश में चीन के सामानों का मुकाबला क्यों नहीं कर पा रहा। अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया का कहना है कि भारत श्रमोन्मुख मैन्यूफैक्चरिंग, लघु और मध्यम क्षेत्र के उद्योगों में मार खा रहा है। हमारे लघु उद्योग जगत के कर्णधार अपने पुराने ढर्रे को बदलना नहीं चाहते। सिर्फ  वही करते रहना चाहते हैं, जो करते रहे हैं यानी उच्च पूंजी वाले उद्योगों जैसे ऑटोमोबाइल, ऑटो पार्ट्स, मोटरसाइकल, इंजीनियरिंग गुड्स, केमिकल्स या कुशल श्रमोन्मुख सामान जैसे सॉफ्टवेयर, टेलीकम्युनिकेशन, फार्मास्यूटिकल्स आदि। लेकिन देश में जो विशाल अकुशल श्रम शक्ति है, उसका उपयोग करने वाले उद्योगों को चलाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। यही कारण है कि भारत चीन के साथ मूर्ति बनाने या राखी बनाने के मामले में भी प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहा। भारत के मौजूदा विकास की सबसे बड़ी खामी यही है कि विकास की उच्च दर हासिल करने के बावजूद श्रमोन्मुख और लघु उद्योगों की क्रांति नहीं आई।
यदि हम हमारे घरेलू बाजार और विश्व बाजार में चीन के साथ प्रतिस्पर्धा करना चाहते हैं, तो हमें चीन के लघु उद्योग और श्रमोन्मुख क्षेत्र में सफलता का राज समझना पड़ेगा। राज यह है कि चीन श्रम-प्रधान उद्योगों पर भी बड़े उद्योगों की तरह काम कर रहा है या लघु उद्योगों  को बड़े पैमाने पर स्थापित कर रहा है। इसका लाभ यह हुआ कि ये उद्योग अनुसंधान के जरिए उत्पादों की गुणवत्ता को बढ़ा सके, नये-नये और खूबसूरत डिजाइन ला सके और आक्रामक मार्केटिंग रणनीति अपना कर अपने उत्पादों को दुनियाभर में बेच सके। चीन से मुकाबला करने के लिए हमारी  सरकार को ऐसा माहौल पैदा करना पड़ेगा जिसमें हमारे उद्योगपतियों और विदेशी निवेशकर्ताओं को श्रमोन्मुख उत्पादों के लिए बड़े स्तर की फम्रे स्थापित करना आकषर्क लगे। इस मामले में भारत और चीन के बीच क्या फर्क है, इसे जानने के लिए इन आंकड़ों पर गौर कीजिए। एक अध्ययन के मुताबिक 85 प्रतिशत भारतीय परिधान उद्योग मजदूर छोटी इकाइयों में काम करते हैं, जिनमें सात या कम मजदूर काम करते हैं जबकि चीन में केवल .6 प्रतिशत मजदूर इस तरह की इकाइयों में काम करते हैं। दूसरी तरफ 57 प्रतिशत चीनी मजदूर बड़ी इकाइयों में काम करते हैं, जिनमें 200 से ज्यादा लोग काम करते हैं जबकि भारत में केवल 5 प्रतिशत लोग इस तरह की कंपनियों में काम करते हैं।
उल्लेखनीय है कि चीन में मध्यम दरजे की कंपनियों की संख्या अच्छी खासी है, लेकिन भारत में इस तरह की इकाइयां नहीं हैं। इस तरह चीन श्रम-प्रधान इकाइयों को बड़े पैमाने पर स्थापित किए हुए है और वहां बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है और दुनिया भर में उसकी मार्केटिंग होती है। कुछ ऐसा ही हमें अपने देश में भी करना होगा। केवल बजट की संजीवनी बूटी देने से काम नहीं चलेगा।
अभी तो हालत यह है कि नंगी क्या नहाएगी और क्या निचोड़ेगी और फिर करोड़ों लोगों को रोजगार देने का वादा भी है। चीन ने छोटे उद्योगों को नया रूप दिया। उनके सपनों को बड़ा बनाया। उसने लघु उद्योगों के उत्पादों को ऐसा चकाचक चुंधिया देने वाला बनाया जो प्रतियोगी हों और आधुनिक जमाने के अनुकूल भी। तभी दुनिया चीनी उत्पादों के पीछे पागल है। ग्राहक चीनी उत्पादों को गालियां देते हैं मगर खरीदते उन्हें ही हैं।

सतीश पेडणेकर


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