दल-बदल पर रोक : लोकलाज भी है जरूरी

Last Updated 19 Aug 2020 01:33:03 AM IST

बीते दिनों राजस्थान में हुई सियासी हलचल सर्वोच्च अदालत तक पहुंची और सवाल यह उठा कि वहां सत्तासीन कांग्रेस के असंतुष्ट विधायकों का भविष्य क्या होगा।


दल-बदल पर रोक : लोकलाज भी है जरूरी

क्या उनकी सदस्यता रद्द हो जाएगी जैसा कि राजस्थान के विधानसभा अध्यक्ष सी. पी. जोशी ने अपने फैसले में कह रखा है? इस पूरे मामले में कई परतें हैं और यह सवाल कोई पहली बार नहीं उठाया जा रहा है। इसके पहले भी भारतीय राजनीति में इस तरह के मामले आए हैं, जब एक दल के निर्वाचित सदस्य दूसरे दल में जाते हैं और सरकारें बनती-बिगड़ती रही हैं।
यह सवाल भी पहले से उठाया जाता रहा है कि यदि कोई जनप्रतिनिधि किसी खास दल के उम्मीदवार के रूप में जनता का वोट पाता है और विजय प्राप्त करने के बाद किसी और दल में चला जाता है तो क्या इससे जनता की उम्मीदों को नुकसान नहीं पहुंचता। फिर इसका एक पहलू यह भी कि आजकल जनप्रतिनिधि बनना मतलब अकूत धन प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करना हो गया है। इसमें कई बातें हैं, लेकिन सबसे अहम यह कि लोकतांत्रिक राजनीति की बुनियाद संविधान में तय प्रावधानों से अधिक लोकाचार में निहित है। जनता के लिहाज से भी लोकलाज ही महत्त्वपूर्ण है। वजह यह कि जनता चाहे भी तो अपने द्वारा निर्वाचित जनप्रतिनिधि पर दबाव नहीं बना सकती। दरअसल, होता यह है कि एक बार जीतने के बाद जनप्रतिनिधि फिर चाहे वह कोई सांसद हो अथवा विधान सभा का सदस्य, अपनी ही मर्जी का मालिक होता है। यदि कोई चीज उसे बाध्य करती है तो वह केवल लोकाचार और लोकलाज ही है।

एक संवेदनशील जनप्रतिनिधि हमेशा इस बात का ख्याल रखता है कि जनता उसके लिए सर्वोपरि है, परंतु भारतीय राजनीति में इसका दूसरा पक्ष भी है। हर विधायक और सांसद यही चाहता है कि वह मंत्री बने, मुख्यमंत्री या फिर प्रधानमंत्री बने। यदि सत्ता के शीर्ष तक न भी पहुंच सके तो कम-से-कम मंत्री तो बन ही जाए। जाहिर तौर पर इसका एकमात्र मकसद जनता की सेवा करना तो नहीं ही होता है। दूसरी ओर कारपोरेट शैली बदलती भारतीय राजनीति के बीच कई और सवाल भी हैं, जिनके बारे में चिंतन-मनन जरूरी है। यह इसलिए भी कि आज के दौर में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की अपनी स्वतंत्रता समाप्त हो चुकी है। वह कारपोरेट घरानों में तब्दील होती राजनीतिक पार्टयिों के कर्मचारी बनते जा रहे हैं। वे चाहें भी तो कुछ नहीं कर सकते। मतलब यह कि लोक सभा का एक सदस्य, जिसे लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है और माना जाता है कि उसकी बुनियाद में अभिव्यक्ति की आजादी है। एक जनप्रतिनिधि जनता के हित के लिए अपनी ही सरकार से सवाल कर सकता है। वह अपनी ही सरकार की आलोचना भी कर सकता है। इतनी आजादी उसे संविधान में है, लेकिन असलियत इसके विपरीत है। यह परिस्थिति 15 फरवरी, 1985 के पहले नहीं थी। इसी दिन भारत में दल-बदल कानून प्रभावी हुआ था।
इसके सृजनकार थे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी, जिन्होंने 24 जनवरी, 1985 को 52वां संविधान संशोधन विधेयक सदन में प्रस्तुत किया था। इस कानून के बाद यह तय कर दिया गया कि कोई भी निर्वाचित सदस्य यदि एक दल को छोड़ दूसरे दल में जाता है या फिर अपने दल के सिद्धांत के खिलाफ जाता है अथवा आचरण करता है तो उसकी सदस्यता समाप्त कर दी जाएगी। पहले यह तय किया गया कि किसी भी दल के यदि एक तिहाई सदस्य एक साथ दल का परित्याग करते हैं, परित्याग कर दूसरे दल में जाते हैं तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी। यह तय करने का अधिकार लोक सभा अध्यक्ष और राज्य के स्तर पर विधान सभा के अध्यक्षों को दी गई। यह कानून इसलिए बनाया गया ताकि देश में ‘आया राम-गया राम’ वाली स्थिति न हो। परंतु, इसके बावजूद ऐसे कई उदाहरण हैं कि निर्वाचित सदस्यों ने एक दल को छोड़कर दूसरे दल की सदस्यता ली। राजस्थान के पहले मध्य प्रदेश में हुआ तख्तापलट इसका उदाहरण है और जब-जब ऐसा हुआ है; मामला सदन से निकलकर अदालत तक पहुंचा है। अदालत ने भी दल-बदल कानून की अपने हिसाब से व्याख्या की है। मसलन, 1994 में सर्वोच्च अदालत ने एक फैसले की सुनवाई में साफ कहा कि दल-बदल कानून के अनुसार निर्वाचित सदस्य की सदस्यता केवल लिखित रूप में इस्तीफा देने के बाद ही जाएगी, बल्कि यदि कोई अपने दल के विरुद्ध आचरण करेगा तब भी उसे दल-बदल कानून का उल्लंघन माना जाएगा और उसकी सदस्यता जाएगी। जैसा कि वर्ष 2003 में तब हुआ जब बहुजन समाज पार्टी के 13 विधायकों ने मुलायम सिंह यादव को अपना समर्थन दिया था। वर्ष 2007 में इस मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च अदालत ने कहा कि बसपा के सदस्यों ने खुले तौर पर दसवीं अनुसूची में शामिल दल-बदल कानून के दूसरे उपबंध के पहले खंड वर्णित प्रावधानों का उल्लंघन किया है। एक मामला 2011 में कर्नाटक में सामने आया था। तब भाजपा के 11 विधायकों ने राज्यपाल से मिलकर पत्र दिया था कि वे येदियुरप्पा सरकार से समर्थन वापस ले रहे हैं क्योंकि येदियुरप्पा भ्रष्ट हो चुके हैं और जनता का विश्वास खो चुके हैं। इन 11 विधायकों के इस्तीफे को तब कर्नाटक विधानसभा के अध्यक्ष ने मान्यता नहीं दी तब यह मामला सर्वोच्च अदालत पहुंचा और कोर्ट ने भी इसे दल-बदल कानून का उल्लंघन नहीं माना। कोर्ट का मत रहा कि सभी 11 विधायक अपनी पार्टी नहीं बल्कि येदियुरप्पा के खिलाफ थे। निस्संदेह यह बड़ा सवाल है कि एक निर्वाचित जनप्रतिनिधि की लक्षमण रेखा क्या होनी चाहिए? क्या उसके पास इतना भी अधिकार नहीं होना चाहिए कि यदि उसके दल की सरकार जनता के विरुद्ध व्यवहार कर रही हो तो उसकी आलोचना कर सके?
फिर सवाल यह भी उठता है कि केवल कुर्सी और पैसे के लोभ में एक दल से दूसरे दल में जाने की प्रवृत्ति पर रोक कैसे लगेगी। जाहिर तौर पर दल-बदल कानून से एक बड़ा दरवाजा तो है, लेकिन उसमें कई सारे छोटे-छोटे द्वार हैं, जिसके सहारे आज भी सांसदों/विधायकों की खरीद-फरोख्त होती है। बहरहाल, यह तो साफ है कि केवल कानून से बात नहीं बनेगी। जरूरी है कि राजनीति में लोकलाज और लोकाचार को बल मिले। फिर कई सारे संशोधनों की भी आवश्यकता होगी, जिनसे जनप्रतिनिधि बनने का मतलब केवल धन अर्जित करना नहीं रहे। जरूरत कानून की भी है और लोकलाज भी।

नवल किशोर कुमार
फार्वड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक


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