मीडिया : एक क्राइम थ्रिलर की तरह

Last Updated 16 Aug 2020 12:14:04 AM IST

जब कोई खबर बार-बार रिपीट होती है तो वह खबर, ‘खबर’ न रहती, अंतत: वह ‘रबर’ बन जाती है। जब किसी खबर के पीछे खबर बहुत से चैनलों के अपने-अपने हेतु काम करने लगते हैं और उसी हिसाब से मुद्दे को परिभाषित करने लगते हैं, तो उसके इतने ‘पाठ’ बनने लगते हैं कि उसका अपना ‘सच’ गायब हो जाता है।


मीडिया : एक क्राइम थ्रिलर की तरह

मीडिया के पास ‘बाइट’ तो एकाध ही होती है, लेकिन उसको रिपीट कर करके, रोज धुन-धुनकर, वह उसे रुई की तरह इतना फैला देता है कि ‘बाइट’ का ‘बाइट’ (कटखनापन) गायब हो जाता है। उसकी व्याख्या प्रमुख्य हो जाती है और फिर व्याख्या पर व्याख्या की अनगिनत परतें लग जाती हैं। इस तरह खबर का ‘मूल’ गायब हो जाता है या कहें गायब कर दिया जाता है और हम अपनी-अपनी व्याख्याओं को सही ठहराने की जिद करते रह जाते हैं। मीडिया इन दिनों जब भी खबर देता है तो किसी ‘नैरेटिव’ (किस्से, कहानी या आख्यान) की तरह देता है और मीडिया की यह किस्सेबाजी मूल खबर को ‘खबरपन’ से रहित कर देती है। और जब ज्यादा मीडिया-मीडिया होता है, जब अत्यधिक सोशल मीडिया होता है और सारे समय एक ही खबर को बार बार ‘पेरता’ रहता है, तो खबर की छूंछ ही निकल जाती है।

खबर का बार-बार धुना जाना, खबर को रेशा -रेशा बनाकर उड़ा देता है और इस तरह हर रेशा एक किस्से की तरह उड़ने लगता है और मूल चेहरा हवा हो जाता है। तिस पर जब कुछ राजनीतिक सत्ताएं, अपने लाभ के लिए, ‘खबर की राजनीति’ करने लगती हैं, उसे अपने-अपने तरीके से कंट्रोल और मैनेज करने लगती हैं तब तो खबर का भगवान ही बेली होता है।  सुशांत की ‘आत्महत्या’/‘हत्या’ की खबर इन दिनों इसी तरह की बेहद धुनी हुई कहानी की तरह बन चली है और उसके इतने ‘पाठ’ बन चले हैं कि एकमुश्त समेटे नहीं जा सकते। यह मीडिया की ‘खबरनबीसी की अति’ का नमूना है। और इस खेल में, अगर खबर देने वाले एंकरों की अपनी-अपनी निजी राजनीति भी  कूद पड़ती है तो सच का ‘मलीदा’ बन जाता है। सुशांत की आत्महत्या/हत्या के सच की कहानी बहुत सारे कहानीकारों (यानी खबरनबीसों) के हाथ में पड़कर एक दूसरे को काटती कई कहानियों का मुरब्बा बन चुकी है। सुशांत की ‘कहानी’ को लेकर चलती ‘रस्साकशी’ बताती है कि इन दिनों हर वह कहानी जिससे बड़ा पैसा, और बड़ी राजनीति जुड़ी होती है अथवा बड़ा पैसा, बड़ी राजनीति जिसमें दिलचस्पी रखती है उसका असली चेहरा कभी सामने नहीं आ पाता। हम उसका हर बार एक विकृत चेहरा ही देखते हैं। बालीवुड के इस नये हीरो की आत्महत्या की खबर शुरू में बड़ी सनसनीखेज कहानी की तरह आई थी और खबर चैनलों द्वारा उसे उसी तरह दिया-लिया गया था, लेकिन जैसे ही उसमें बहुत से तत्वों के हित जुड़े, वैसे ही यह कहानी अखाड़ा बन गई।
इसका कारण यह है कि आज हमारा मीडिया अब सिर्फ मीडिया नहीं है, बल्कि खबर की राजनीति करने वाला, सत्ता की राजनीति करने वाला, एक ‘औजार’ बन चला है। इसीलिए उसकी दी जाती हर खबर पर ऐसी-ऐसी ‘रस्साकशी’ होती नजर आती है जैसी ‘रस्साकशी’ किसी अन्य देश के मीडिया में नजर नहीं आती। यही कारण है कि आज हम सुशांत की मौत की कम-से-कम एक दर्जन कहानियों के ‘सचों’ में रहते हैं। एक है सुशांत का सच जो अभी किसी को  नहीं मालूम, दूसरा है महाराष्ट्र पुलिस और सरकार का सच, तीसरा है बिहार पुलिस का सच, चौथा है ईडी का सच, पांचवां है रिया का सच, छठा है दिशा सालियान की ‘आत्महत्या’/‘हत्या’ का सच, सातवां है अंकिता लोखंडे का सच, आठवां है उसके रसोइये का सच, नवां है उसके पिठानी का, दसवां है संदीप सिंह का सच, ग्यारहवां है उस बॉलीवुड माफिया का सच जिसको सुशांत की ‘मौत’ का जिम्मेदार बताया जा रहा है। बारहवां सच हो सकता है सीबीआई का सच हो!
अंत में हमें एक ही ‘सच’ मिलने वाला है: हमारे चिर ‘शक-संदेह’ का सच यानी वो शक जो हम सबको तब भी होगा जब केस की आखिरी रिपोर्ट आ जाएगी या अदालत की मुहर लग जाएगी और हम फिर भी न जान पाएंगे कि कौन, कितना सच बोल रहा है? लेकिन तब तक तो हम सुशांत के केस को भूल ही जाएंगे क्यों कि उसकी जगह कोई दूसरा लटक जाएगा और हमारा मीडिया फिर से ‘सच-झूठ’ की कुश्ती लड़ने लगेगा और हम फिर एक जासूसी रहस्य कथा या ‘क्राइम थ्रिलर’ का आनंद लेने लगेंगे। और अंत में जिस तरह बॉलीवुड के किसी ‘काइम थ्रिलर’ का अंत होता है, उसी तरह बॉलीवुड के इस हीरो के इस ‘क्राइम थ्रिलर’ का भी अंत हो सकता है!

सुधीश पचौरी


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