कोरोना : हम नहीं बदलेंगे
इस हफ्ते के पहले दिन यानी 10 अगस्त को, देश भर में कोरोना पॉजिटिव केस की संख्या में 62,064 नये लोग जुड़ गए।
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यह संख्या, इस रोज दुनिया के किसी भी देश में आये नये केसों की संख्या से कहीं ज्यादा थी। वास्तव में हफ्ते भर से ज्यादा से भारत में हर रोज केसों की बढ़ोतरी का आंकड़ा, दुनिया भर में सबसे ऊपर चल रहा था। इनमें अमेरिका और ब्राजील के रोजाना नये केसों के आंकड़े भी शामिल हैं, हालांकि कुल केसों की संख्या के मामले में भारत अब भी इन दोनों देशों से पीछे है। बेशक, 22 लाख से ज्यादा केस के अपने आंकड़े के साथ भारत, ब्राजील के 30 लाख से ज्यादा और अमेरिका के 50 लाख से ज्यादा केसों से अभी ठीक-ठाक पीछे है। कोविड के मौतों का भारत का 45 हजार का आंकड़ा तो, ब्राजील की एक लाख से ज्यादा मौतों से आधा और अमेरिका की डेढ़ लाख से ज्यादा मौतों से तिहाई से भी कम है, लेकिन कब तक?
वास्तव में भारत में हर रोज केसों की और मौतों की भी संख्या जिस रफ्तार से बढ़ रही है, उससे यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि यही रफ्तार रही तो भारत जल्द ही ब्राजील को पीछे छोड़ देगा और उसके बाद अमेरिका को भी। बेशक, यही रफ्तार रहना कोई जरूरी नहीं है, लेकिन दुर्भाग्य से इस रफ्तार के धीमा पड़ने के कोई आसार अब तक तो नजर नहीं आ रहे हैं। उल्टे पॉजिटिविटी रेट यानी टेस्ट किए गए लोगों में से कोविड-पॉजिटिव निकलने वालों का अनुपात, एक हफ्ते पहले के मुकाबले बढ़ोतरी ही दिखा रहा था। हफ्ते भर पहले जहां हर सौ टेस्ट किए जाने वालों में 8.93 पॉजिटिव निकल रहे थे, अब यह संख्या 9.01 हो गई है।
यह इसका निश्चित संकेतक है कि महामारी का जोर अभी चढ़ाव पर ही है। महामारी का जोर बढ़ रहे होने का ऐसा ही एक और संकेतक यह है कि 10 अगस्त को 62,064 लोगों के कोविड-पॉजिटिव पाए जाने के मुकाबले में, इसी रोज स्वस्थ होकर घर लौटने वालों की संख्या 54,859 ही थी। बेशक, इसी दौरान केस फेटिलिटी रेट यानी पॉजिटिव केसों में से मौत की गोद में समाने वालों का हिस्सा पिछले हफ्ते के 2.11 फीसद से घटकर 2.0 फीसद पर आ गया है, जो एक शुभ लक्षण है? बेशक, 54 दिन के देशव्यापी लॉकडाउन के बाद, ओपन के विभिन्न चरणों में दी गई छूटों से आमतौर पर जबरन कराई जाती सोशल डिस्टेंसिंग का दौर एक प्रकार से खत्म हो गया है। इससे इस संक्रामक बीमारी का जोर, लॉकडाउन के दौर के मुकाबले कुछ-न-कुछ बढ़ना स्वाभाविक ही था। हमारे देश में करीब सात हफ्ते के इस लॉकडाउन का अर्थव्यवस्था पर जो घातक असर पड़ा है उसके अलावा सरकार की करनियों तथा अकरनियों के चलते, खुद लॉकडाउन से जनता के विशाल बहुमत के लिए बिना किसी विकल्प तथा समुचित सरकारी-सामाजिक सहायता के, रोजी-रोटी के साधन छिन जाने से जो भीषण समस्याएं पैदा हो गई थीं, उनके चलते तो लॉकडाउन अपने आप में कोविड महामारी से भी बड़ी समस्या बन गया था। प्रवासी मजदूरों की ‘घर वापसी’ का विस्फोट, इन समस्याओं का ही संकेतक था। स्वाभाविक रूप से लॉकडाउन और आगे नहीं चल सकता था, लेकिन यह लॉकडाउन इसलिए और भी महंगा पड़ा कि इससे मिली मोहलत का जिस तरह की तैयारियों के लिए उपयोग किया जाना चाहिए था, नहीं किया गया।
जिस तरह अचानक और नागरिकों से लेकर शासन के विभिन्न स्तरों तक, किसी भी तैयारी का मौका दिए बिना लॉकडाउन कर दिया गया, उसने न सिर्फ प्रवासी मजदूरों के विस्फोट को जन्म दिया बल्कि बड़े-छोटे शहरों में इन मजदूरों को सुविधाओं से रहित छोटी-छोटी जगहों में ठूंस-ठूंसकर बंद करके रखने की अदूरदर्शी कोशिश के जरिए, संक्रमण को रोकने की जगह और फैलाने का ही इंतजाम किया और अंतत: जब इन मजदूरों की घर वापसी हुई, उनके अपने साथ संक्रमण लेकर घर लौटने तथा वहां संक्रमण फैलाने की संभावनाएं बढ़ चुकी थीं। वास्तव में जिस तरह से लॉकडाउन लागू किया गया, उसकी इस विफलता को रेखांकित करने वालों में, कोरोना से निपटने के लिए खुद सरकार द्वारा गठित कमेटियों से जुड़े वैज्ञानिक भी शामिल हैं। बहरहाल, लॉकडाउन की इन विफलताओं को अगर हम छोड़ भी दें तब भी, जबरन सोशल डिस्टेंसिंग के जरिए, संक्रमण के फैलाव को सीमित करने से मिली मोहलत का इस्तेमाल, लॉकडाउन के बाद की स्थितियों का भी सामना करने के लिए जिस तरह की तैयारियों के लिए किया जाना चाहिए था, उसका तो कहीं अता-पता ही नहीं है। सिर्फ एक उदाहरण ही काफी है।
लॉकडाउन के दौरान सरकार द्वारा घोषित पैकेजों में, चिकित्सा सुविधाओं को मजबूत करने के लिए सिर्फ 17,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था, वह भी अपेक्षाकृत लंबी अवधि के लिए। इसके अलावा पीएम केयर्स फंड से कुछ पैसा वेंटीलेटर के लिए खर्च किया गया लगता है। इसके अलावा तो इस मोच्रे पर सरकार की ओर से एक ही काम हुआ है कि सरकार ने, रातों-रात टीका तैयार करने का फरमान जारी करने की जल्दबाजी दिखाई, जो स्वाभाविक रूप से उल्टी ही पड़ गई। दूसरी ओर अब तक, डाक्टर तथा अन्य फ्रंटलाइन कोरोना योद्धा जगह-जगह पीपीई से लेकर उचित तनख्वाह तक की मांग ही कर रहे हैं; टेस्ट के मामले में भारत, दुनिया भर में सबसे निचले स्तर पर है; और कुछ ऐसा ही हाल डाक्टरों, अस्पताल बेडों आदि की उपलब्धता का है। सचाई यह है कि भारत में आज अगर स्वास्थ्य व्यवस्था के पूरी तरह से बैठ जाने की ही स्थिति पैदा नहीं हो गई है, तो इसीलिए कि कोविड के मरीजों की भी बढ़ती संख्या को ‘घर पर ही उपचार’ की ओर धकेल दिया गया और यह कोविड-इतर रोगों के मरीजों को पहले ही आम तौर पर चिकित्सकीय सहायता के दायरे से बाहर कर दिए जाने से हुआ है; और ऐसा क्यों हुआ?
क्योंकि हमारी सरकार नवउदारवाद के खूंटे से बंधे होने के चलते, इस संकट के बीच भी अपनी तिजोरियां खोलने के लिए तैयार नहीं थी; न बड़े पैमाने पर लोगों के इस घातक महामारी से बचाव के प्रबंध करने के लिए और न इस महामारी तथा उसे थामने के लिए किए जा रहे लॉकडाउन से सामान्य जीवन तहस-नहस हो जाने की मार से, मेहनत-मजदूरी करने वालों के विशाल बहुमत को बचाने के लिए। नतीजा सामने है। महामारी की मार तेज हो रही है और तरह-तरह के आंकड़ों से सरकार या तो इस सचाई को झुठलाने में ही लगी है या फिर मंदिर जैसे मुद्दों के सहारे ध्यान बंटाने में।
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