यूपीएससी : हिंदी माध्यम का डूबता सूरज
पिछले दिनों केंद्र सरकार ने नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं को आगे बढ़ाने पर जोर दिया।
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उसी के तुरंत बाद यूपीएससी ने वर्ष 2019 का परिणाम घोषित किया, जिसमें हिंदी माध्यम का परिणाम विगत वर्षो की भांति लगभग शून्य ही रहा। एक तरफ जहां केंद्र सरकार क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने पर लगातार प्रयास कर रही है वहीं दूसरी तरफ देश की सर्वोच्च परीक्षा में जिसको आम भाषा में आईएएस की परीक्षा कहते हैं, लगातार हिंदी माध्यम का परिणाम पिछले 6 वर्षो से 2 प्रतिशत के ऊपर नहीं उठ पा रहा है। ऐसे में यदि सरकारें अन्य पहलुओं पर ध्यान दिए बिना क्षेत्रीय भाषाओं को सिर्फ कागजों में तवज्जो देती रही तो आने वाले वर्षो में देश के सर्वोच्च पदों पर जो परीक्षा के माध्यम से भरे जाते हैं, उनमें हिंदी माध्यम के छात्रों के लिए दरवाजे बंद हो जाएंगे।
सरकार को क्षेत्रीय भाषा को बढ़ावा देने के साथ-साथ यूपीएससी जैसे विभिन्न आयोगों में जहां हिंदी माध्यम के छात्रों का अनुपात लगातार घट रहा है उनके कारणों की भी जांच करानी चाहिए। आईएएस अधिकारियों के प्रशिक्षण का प्रमुख संस्थान लाल बहादुर शास्त्री प्रशासनिक अकादमी मसूरी में अब हिंदी माध्यम से चयनित भविष्य के अधिकारियों की संख्या अब शून्य हो चुकी है। इसी तरह सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय पुलिस अकादमी में भी हिंदी माध्यम से चयनित भावी पुलिस अधिकारियों की संख्या 1 से 2 रह गई है। पिछले कुछ वर्षो के आंकड़ों की बात करें तो यूपीएससी के अंतिम परिणाम में वर्ष 2013 तक हिंदी माध्यम के छात्र लगभग 11 प्रतिशत तक सफल होते थे, लेकिन वर्ष 2014 में 2.1 प्रतिशत, वर्ष 2015 में 4.8 प्रतिशत, वर्ष 2016 में 3.4 प्रतिशत, वर्ष 2011 में 4.5 प्रतिशत, वर्ष 2018 में 2.16 प्रतिशत, और वर्ष 2019 के हालिया परिणाम में लगभग 2 प्रतिशत छात्र दूसरे शब्दों में संख्या के आधार पर लगभग 15 छात्र सफल घोषित हुए हैं।
आंकड़ों से स्पष्ट है जहां वर्ष 2019 के परिणाम में 800 से ज्यादा छात्र अंग्रेजी माध्यम के सफल हुए हैं। वही हिंदी माध्यम के सफल छात्रों की कुल संख्या लगभग 15 है। यदि दुख इस बात का है की लगभग दो सौ सांसद हिंदी भाषी क्षेत्रों से चुनकर संसद भवन में पहुंचते हैं, लेकिन उनके पास इतना समय नहीं होता कि वे हिंदी भाषी छात्रों के साथ हो रहे अन्याय की आवाज संसद भवन में उठा सकें। इसके अतिरिक्त मौजूदा केंद्र सरकार भी स्थानीय भाषा और हिंदी भाषा को लेकर लगातार भाषणों में बड़ी-बड़ी बातें करती रही है, लेकिन हिंदी माध्यम के लगातार गिरते परिणामों पर पिछले 5 वर्षो में एक वक्तव्य भी नहीं दिया है। निश्चित तौर पर जिस प्रकार से हिंदी भाषी छात्रों के साथ यूपीएससी आयोग भेदभाव कर रहा है उस पर केंद्र सरकार की चुप्पी कुछ और ही बयां करती है। पिछले कुछ वर्षो से लगातार हिंदी भाषी क्षेत्रों से छात्र बड़ी संख्या में अपने बेहतर भविष्य की तलाश में यूपीएससी की तैयारी करने के लिए बड़े-बड़े कोचिंग संस्थानों में प्रवेश लेते हैं। उनके माता-पिता अपनी जीवन की पूरी कमाई कोचिंग संस्थानों की फीस भरने में लगा देते हैं, लेकिन जब परिणाम घोषित होता है तो सभी को निराशा हाथ लगती है।
कुछ लोगों का मानना है कि हिंदी माध्यम का छात्र अंग्रेजी माध्यम के छात्र की तुलना में मेहनत नहीं कर पाता। जबकि सच यह है कि हिंदी माध्यम का छात्र अंग्रेजी माध्यम के छात्र से ज्यादा मेहनत भी करता है, प्रत्येक विषय पर उसको बेहतर जानकारी भी होती है, फिर भी अंतिम परिणाम में उसको जगह नहीं मिल पाती है। आखिर किसी को तो आवाज उठानी होगी? क्या ऐसा संभव नहीं है कि हिंदी माध्यम के छात्रों की कॉपियों का मूल्यांकन हिंदी माध्यम के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों से कराई जाए?
दूसरा कारण जो नजर आता है वह यह है कि यूपीएससी के बोर्ड में हिंदी भाषी क्षेत्रों से संबंधित सदस्यों को तवज्जो नहीं दी जाती, जबकि होना ऐसा चाहिए कि कम से कम पचास प्रतिशत यूपीएससी के सदस्य हिंदीभाषी क्षेत्रों से हो । इसका खामियाजा हिंदी माध्यम के छात्रों को साक्षात्कार में चुकाना पड़ता है। मौजूदा केंद्र सरकार के कार्यकाल में भी लगातार हिंदी माध्यम का परिणाम 5 प्रतिशत से कम ही रहा है । इस ज्वलंत मुद्दे को जल्द से जल्द केंद्र सरकार को संज्ञान में लेकर हिंदी माध्यम के गिरते परिणामों की समीक्षा अवश्य करानी चाहिए, जिससे शून्य के बेहद नजदीक पहुंचे हिंदी माध्यम के परिणाम को पुन: पुरानी पहचान दिलाई जा सके।
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