बिहार विस चुनाव : जाति से पार पाएगी क्या?

Last Updated 04 Aug 2020 12:42:43 AM IST

बिहार में इस साल के अंत तक विधानसभा चुनाव होने हैं। कोविड-19 के संक्रमण के बावजूद निर्वाचन आयोग की तरफ से इसके स्पष्ट संकेत दिए जा चुके हैं कि चुनाव होंगे।


बिहार विस चुनाव : जाति से पार पाएगी क्या?

विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा इसकी तैयारी भी शुरू हो चुकी है। भाजपा की ओर से खुद अमित शाह ने वर्चुअल रैली शुरू की और एक तरह से चुनावी जंग का एलान कर दिया। अब उनका अनुसरण कर रहे नीतीश कुमार के द्वारा भी वर्चुअल रैलियां आयोजित की जा रही हैं। वहीं मुख्य विपक्षी दल राष्ट्रीय जनता दल के द्वारा भी चुनावी बिसात पर मोहरे कौन होंगे, इस दिशा में पहल किए जा रहे हैं। सवाल यह है कि इस बार के चुनाव में वे कौन से मुद्दे होंगे, जिनका असर चुनाव के परिणामों पर संभावित है?
इस प्रश्न पर विचार करने से पहले यह समझना आवश्यक है कि क्या वाकई बिहार में मुद्दे चुनाव को प्रभावित करते हैं? फिर यह भी मतदाताओं का व्यवहार क्या इस बात पर निर्भर करता है कि वे किस तरह के दुख और परेशानी से दो-चार होते हैं? इस संबंध में बटलर कहते हैं कि ‘सामाजिक राजनीतिक मुद्दों के प्रति मतदाता की राजनीतिक प्राथमिकताओं, दृष्टिकोण और राजनीतिक झुकाव का निर्धारण उसका सामाजिक परिवेश कैसा है-इस आलोक में तय होता है, जिसमें वह निवास करता रहा है। इस संदर्भ में विद्वानों के अध्ययन ने भी ऐसे ‘सामाजिक परिप्रेक्ष्य’ के नियामक होने की पुष्टि की है, जिसके माध्यम से मतदाता अपने-अपने ‘चुनावी व्यवहार’ और राजनीतिक प्राथमिकताओं के स्वरूप का निर्धारण करते हैं।’ (बर्टल्स, 2008)।

जाहिर तौर पर इस प्रकार के ग्रहण किए गए सामाजिक लक्षण एवं प्राथमिकताएं, मतदाताओं के मतदान करने की अवधि के दौरान उनके व्यवहार में भी दृष्टिगत होते हैं। मसलन, उनकी किसी राजनीतिक विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता या किसी राजनीतिक दल के समर्थन का आधार अथवा किसी उम्मीदवार के समर्थन में उनके तर्क। फिर, राजनीतिक वरीयताएं प्राथमिक सामाजीकरण के द्वारा भी प्रभावित होती हैं। वस्तुत: चुनावी व्यवहार के अंतर्गत मतदाताओं की राजनीतिक उन्मुक्तता या झुकाव एवं किसी राजनीतिक विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता और मतदाता के रूप में व्यवहार जैसे तत्व समाहित होते हैं। यह कथित व्यवहार वस्तुत: अनेक कारकों द्वारा प्रभावित होता है। जैसे-सामाजिक वर्ग, लिंग, नस्ल, धार्मिंक उन्मुक्तता या झुकाव और सामाजिक अस्मिता। इस प्रकार यह कमोबेश स्पष्ट ही है कि किसी विशेष निर्धारित अवधि में होने वाले चुनाव से तत्कालीन सामाजिक विशेषताओं का तो पता चलता ही है, किन्तु इसके साथ ही इसके स्याह पक्षों की भी जानकारी होती है। प्रत्येक राज्य की एक बनावट होती है, जैसे- राजनीतिक बनावट, सामाजिक बनावट, भौगोलिक बनावट इत्यादि। बिहार की आबादी की बनावट पर गौर करें तो इसमें भिन्न-भिन्न जातियां हैं। बिहार की राजनीति में जाति हमेशा से ही अपेक्षाकृत महत्त्वपूर्ण रही है। राजनीतिक दल इसका अपने सामाजिक और राजनीतिक आधार के रूप में व्यवहार करते रहे हैं।
बिहार की राजनीति में जाति की इतनी सघन केंद्रीयता है कि इसके आधार पर यह भी तय होता है कि टिकट कैसे वितरित किए जाएं और चुनाव पश्चात मंत्रालयों का आवंटन भी जाति को ध्यान में रखकर किया जाता है। मतदाताओं का व्यवहार भी एक महत्त्वपूर्ण फैक्टर है, जिसके कारण बिहार की राजनीति में ‘जाति’ निर्णायक भूमिका का निर्वहन करती है। बानगी के तौर पर वर्ष 2015 में हुए विधानसभा चुनाव में मतदाताओं के व्यवहार को देखें। इस चुनाव में दो मुख्य गठबंधन थे। पहला गठबंधन था राजद, जदयू और कांग्रेस का महागठबंधन तो दूसरा गठबंधन भाजपा का था, जिसमें रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा शामिल थी। सीएसडीएस द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक इस चुनाव में 84 फीसद अगड़ी जातियों ने भाजपानीत राजग गठबंधन को वोट किया। यह आंकड़ा महत्त्वपूर्ण है, जो यह बताता है कि बहुसंख्यक अगड़ी जातियों का वोट जदयू को तभी मिलता है जब उनका गठबंधन भाजपा के साथ होता है।
भाजपा के बगैर जदयू का कोई महत्त्व अगड़ी जातियों में नहीं है और इसकी वजह यह कि भले ही नीतीश कुमार ने अपनी टीम में अगड़ों को प्रमुख स्थान दिया है, शीर्ष पर वे स्वयं हैं जो पिछड़े वर्ग से आते हैं। बिहार में यादव जाति के मतदाताओं का चुनावी व्यवहार क्या है, इस संबंध में सीएसडीएस का आंकड़ा बताता है कि वर्ष 2015 में 68 फीसद यादव मतदाताओं ने राजदनीत महागठबंधन को वोट किया। वहीं 71 फीसदी कुर्मी जाति (नीतीश कुमार इसी जाति से आते हैं) ने भी महागठबंधन को वोट किया। सबसे दिलचस्प कोइरी जाति के मतदाताओं का व्यवहार रहा जो वर्ष 2015 में इस दुविधा में थे कि उपेंद्र कुशवाहा उनके नेता हैं या नहीं। सीएसडीएस का आंकड़ा बताता है कि 30 फीसद कोइरी मतदाताओं ने महागठबंधन तो 28 फीसद ने राजग को वोट दिया। जाहिर तौर पर उपरोक्त आंकड़े यह स्पष्ट करते हैं कि बिहार में चुनावी राजनीति के केंद्र में जाति महत्त्वपूर्ण है। मुद्दे मायने नहीं रखते। इसे और समझने के लिए 2010 में हुए विधानसभा चुनाव के आंकड़ों पर गौर करते हैं।
यह माना जा रहा था कि अगस्त, 2008 में आए कोसी महापल्रय का असर चुनाव परिणामों पर पड़ेगा। कम से कम उत्तर बिहार के 9 जिलों में जहां कोसी में आए बाढ़ के कारण लाखों जिंदगियां तबाह हुई थीं, लेकिन जब चुनाव हुए तो बाढ़ और बाढ़ के दौरान सरकारी बदइंतजामी के मुद्दे हवा हो गए। सीएसडीएस के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2010 में हुए विधानसभा चुनाव में 69 प्रतिशत यादवों ने राजद को तो 58 प्रतिशत कुर्मी व कोईरी मतदाताओं ने भाजपा-जदयू गठबंधन को वोट दिया। खैर, यह तो साफ है कि इस बार भी बिहार में चुनाव जाति के आधार पर लड़े जाएंगे और जीत उसी की होगी जो अधिक-से-अधिक जातियों को अपने पाले में लाने में कामयाब होगा। इनमें अति पिछड़ा वर्ग की जातियों का चुनावी व्यवहार अहम होगा। दूसरी तरफ गरीबी, बेरोजगारी, कोरोना के कारण उत्पन्न हुई समस्याएं, स्वास्थ्य अधिसंरचनाओं का अभाव आदि मुद्दे हवा होंगे। यही बिहार की राजनीति की विशेषता भी है और सबसे बड़ा अवगुण भी।

नवल किशोर कुमार


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