मुद्दा : अनसुनी न हो मौत की वजह

Last Updated 09 Jul 2020 01:22:57 AM IST

यूं तो एक भी बेकसूर इंसान की मौत पूरी इंसानियत की मौत करार दी जाती है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि पुलिस हिरासत में पिटाई के चलते सैकड़ों लोगों के मरने की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रहीं।


मुद्दा : अनसुनी न हो मौत की वजह

हालिया मामला तमिलनाडु के थुथूकुड़ी जिले का है, जहां पुलिस हिरासत में एक ही परिवार के दो लोगों की मौत हो गई। लॉकडाउन के दौरान तय समय-सीमा से ज्यादा देर दुकान खोले रखने के आरोप में पुलिस ने जयराज (58) और बेनिक्स (31) को 19 जून को गिरफ्तार किया था। लेकिन 22 जून को बेनिक्स और 23 जून को जयराज की पुलिस हिरासत में मौत हो गई। खबरों के मुताबिक पुलिस की बर्बर पिटाई के कारण दोनों की मौत हुई। इसका संज्ञान मद्रास हाई कोर्ट ने ले लिया है। कुल मिलाकर देखें, तो इस घटना ने एक बार फिर पुलिस को कठघरे में ला खड़ा किया है।
हालांकि पुलिस की छवि को निखारने की कोई कम कोशिश नहीं हुई है। प्रताड़ना, क्रूरता, अमानवीय व्यवहार जैसे दाग को मिटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट अनेक बार निर्देश जारी कर चुका है। गिरफ्तारी के दौरान पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए डीके बसु केस (1996) में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला नजीर है। लेकिन सवाल है कि तमाम कवायदों के बावजूद पुलिस पर से बर्बरता का दाग क्यों नहीं धुल रहा? दरअसल, पुलिस हिरासत में मौत के मामले में दोषसिद्धि की दर बेहद कम है। ऐसे मामलों में पुलिसकर्मी का आसानी से बचकर निकल जाना चिंताजनक है। एनसीआरबी के मुताबिक 2017 में सौ कैदियों की पुलिस हिरासत में मौत हुई लेकिन उन मौतों के लिए अब तक एक भी पुलिस अधिकारी दोषी नहीं ठहराया जा सका है। 2001 से 2018 के बीच 1,727 लोगों की मौत पुलिस हिरासत में हुई लेकिन उन मामलों में सिर्फ  26 अधिकारी ही दोषी ठहराए जा सके हैं। इनमें भी ज्यादातर जमानत पर बाहर हैं।

मानव अधिकारों पर आवाज बुलंद करने वाली संस्था नेशनल कैम्पेन अगेंस्ट टॉर्चर के मुताबिक 2000 से 2018 के दौरान पुलिस के खिलाफ मानवाधिकार उल्लंघन के 2,041 मामले दर्ज हुए लेकिन महज 344 पुलिस वाले ही दोषी साबित हो सके। इसकी दूसरी वजह है पुलिस सुधार की कवायदों से सरकारों का मुंह चुराना। प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ मामले (2006) में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि डीएसपी रैंप तक के लिए जिलास्तर और एसपी रैंक तक के लिए राज्यस्तर पर शिकायत प्राधिकरण की स्थापना की जाए ताकि एक नागरिक किसी भी मामले को लेकर पुलिसकर्मिंयों के खिलाफ आसानी से शिकायत दर्ज करा सके। लेकिन कुछ राज्य जैसे केरल, झारखंड, हरियाणा, पंजाब और महाराष्ट्र ही आदेश लागू कर सके जबकि अन्य राज्यों ने मामले को गंभीरता से लिया ही नहीं। संस्थागत सुधार को लेकर सरकारों की बेरुखी भी एक बड़ी वजह है जिससे पुलिसकर्मिंयों को अनैतिक कार्य करने का प्रोत्साहन मिलता है।
सबसे पहले तो प्रकाश सिंह मामले में कोर्ट द्वारा दिए गए निर्देशों को राज्य सरकारें अक्षरश: लागू करें। दूसरे, प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी पुलिस-कदाचार के मामलों में जांच के लिए स्वतंत्र शिकायत प्राधिकरण होने की जरूरत महसूस की थी। उदाहरण के लिए यूनाइटेड किंग्डम में पुलिस से जुड़े मामलों के लिए स्वतंत्र कार्यालय है, जिसमें ताज द्वारा नियुक्त महानिदेशक और पुलिस अधिकारियों के खिलाफ शिकायतों की निगरानी के लिए कार्यकारी और मौजूदा सदस्यों द्वारा नियुक्त छह अन्य सदस्य शामिल हैं।
डीके बसु केस में गिरफ्तारी को लेकर जो निर्देश सुप्रीम कोर्ट ने दिए, उनका भी पालन हो। गिरफ्तार करने वाले पुलिस वाले को नेम प्लेट लगा कर रखना, गिरफ्तारी का ब्यौरा रजिस्टर पर दर्ज करना, परिवार के किसी सदस्य या सम्माननीय व्यक्ति द्वारा सत्यापित सभी विवरण दर्ज करना, गिरफ्तार व्यक्तिकी समय-समय पर मेडिकल जांच और सभी सूचनाओं को एक केंद्रीय पुलिस नियंत्रण कक्ष में केंद्रीकृत करना जैसे निर्देशों का कड़ाई से पालन हो। सबसे बड़ी बात है कि हिरासत में हत्या रोकने के लिए सरकारों को राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी होगी। अपनी छवि चमकाने के लिए पुलिस के गुनाहों पर पर्दा डालने की कोशिश से बचना होगा। तभी नागरिकों के जीवन और उनके अधिकारों की रक्षा और सुरक्षा हो सकेगी।

रिजवान अंसारी


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