चीन : वोल्फ डिप्लोमेसी पर चोट
भारत के साथ सीमा विवाद को शुरू करने के बाद चीन एक देश के रूप मदहोशी में घूमता हुआ दिखाई दे रहा है।
चीन : वोल्फ डिप्लोमेसी पर चोट |
पहले दक्षिण चीन सागर फिर ताइवान और अब रूस के विरु द्ध सीमा विवाद का मसला उठा दिया है। व्लादिवोस्तक को चीन अपना क्षेत्र मानता है। चीन के अनुसार ब्रिटेन और फ्रांस ने अफीम युद्ध के दौरान यह क्षेत्र जबरन ले लिया था। अर्थात किंग शासन काल में यह चीन का हिस्सा हुआ करता था। अगर इतिहास को आधुनिक सीमा विवाद का आधार बना लें तो हर देश दूसरे देश का दुश्मन बन जाएगा। उस नजरिये से तो दक्षिण और बहुत हद तक पूर्वी एशिया अखंड भारत के अंग रहे हैं।
अगर भारत मौर्य काल और गुप्त काल या अकबर के समय का भारत की बात करे तो मध्य एशिया भी भारत के अंग होंगे। चीन इस मिजाज के साथ अपनी विस्तारवादी नीति को दुनिया के सामने रखना चाहता है। उसका दमखम उसका पैसा है, जिसके बूते पर वह सबकुछ शक्ति के द्वारा हथिया लेना चाहता है। इसी का जवाब देने भारत के प्रधानमंत्री पूर्वी लद्दाख पहुंचे थे। प्रधानमंत्री की अचानक लद्दाख यात्रा के मायने कई है। सहज शब्दों में तो यही कहा जा रहा है कि सेना और पारा मिलिट्री फोर्सेज के मनोबल को बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री पूर्वी लद्दाख के नीमू सैनिक ठिकाने से सेना के जवानों से रू-ब-रू हुए, लेकिन बात इतनी सहज नहीं है। मन की बात में भी प्रधानमंत्री ने चीन की विस्तारवादी नीति और भारतीय जवानों के शहादत की चर्चा की थी। साथ में यह भी चेतावनी दी थी कि इसका बदला भारत जरूर लेगा।
जब लद्दाख में सेना को संबोधित किया उसमे भी बिना चीन का नाम लिये उन्होंने स्पष्ट शब्दों में चीन की विस्तारवादी और हिंसक मानसिकता की बात कही, जबकि पूरी दुनिया विकाश और शांति के लिए उद्विग्न है, वहीं कुछ देश दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने कि साजिश रच रहे हैं। चीन ने भारतीय प्रधानमंत्री की लद्दाख यात्रा को अत्यंत गंभीरता से लिया है। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता जहु लीजियन ने कहा कि दोनों देशों के बीच सैनिक, राजनीतिक और कूटनीतिक स्तर की वार्ता चल रही है इसलिए शांति बनाए रखना जरूरी है। अगर चीन की नीतियों को गलवान वैली संघर्ष के बीच समझने की कोशिश करेंगे तो इसके कई पहलू दिखाई देंगे। पहला, चीन कई दशकों से विशेषकर 2013 से जबसे शी जिनिपंग राष्ट्रपति बने हैं, तबसे उनकी कूटनीति का महत्त्वपूर्ण हथियार ‘सलामी स्लैश’ रहा है। यह तरकीब कूटनीति नहीं बल्कि चोरी मानी जा सकती है। प्राय: भारत के ग्रामीण इलाकों में खेतों के मेड़ बनाते समय कई लालची किसान यह देखते हैं कि मेरा पड़ोसी तो शहर में रहता है, मेड़ को उसकी तरफ खिसकाकर जमीन का कुछ हिस्सा हड़प लिया जाए। जब विवाद होगा और सरकारी तौर पर जांच-पड़ताल होगी तो देखा जाएगा। ठीक यही काम चीन अपने पड़ोसी देशों के साथ कई वष्रो से करता आ रहा है।
गलवान वैली की उसकी चोरी पकड़ी गई और भारत ने कड़ा रुख अपनाया। पहले भारत की समझौतावादी नीति के कारण चीन की दादागीरी चल जाती थी, लेकिन इस बार पासा पलट गया। हिंसक झड़प में दोनों देशों के सैनिक हताहत हुए, चीन अपने आंकड़ों पर चुप्पी साधे रहा। पिछले दो तीन वर्षो में चीन में एक नई कूटनीति की खूब चर्चा होती है, जिसे ‘वोल्फ वॉरियर’ कूटनीति के नाम से जाना जाता है। यह चीन के लोकप्रिय मूवी का हिस्सा है, जिसमें चीन की आक्रामकता को खूब बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया है। जो भी देश चीन की बातों में हां नहीं मिलाता; चीन उसको तबाह करने की साजिश रचता है। कोरोना के दौर में चीन की आलोचना करने वाले देशों को चीन अपनी आर्थिक शक्तियों के बूते पर रौंदने की कोशिश करता दिखा। इसका दूसरा पहलू अपने पड़ोसी देशों के साथ अपनी मन मर्जी के आधार पर सीमाओ का नये तरीके से सीमांकन करना। इसी उद्देश्य के साथ पीएलए की सेना गलवान वैली पहुंची थी। उसे अंदाज था कि पकड़े जाने के बाद हमारी ‘वोल्फ कूटनीति’ इसे संभाल लेगी, लेकिन चीन को बिल्कुल यह अंदेशा नहीं था कि भारत ईट का जवाब पत्थर से देंगे और इसको लेकर चीन के विरुद्ध एक गंभीर मुहिम भारत शुरू कर देगा।
अगर व्यापक दृष्टिकोण के साथ देखा जाए तो यह संघर्ष महज क्षेत्रीय संघर्ष भर नहीं है, यह एशिया महादेश के भीतर नये भूराजनीतिक परिभाषा को निर्धारित करने वाला है। जब शक्ति का हस्तातांतरण अटलांटिक महासागर से हिन्द महासागर में हो रहा है तो चीन एशिया का निष्कंटक मठाधीश बनने की बेताबी में है। उसकी नजर में भारत एक सबल प्रतिद्वंद्वी हो सकता है। इसलिए उसे पहले से ही झकझोर दो। लेकिन दाल चीन की गली नहीं, पासा उल्टा पड़ गया। यहां यह भी जानना उतना ही जरूरी है कि चीन की मंशा क्या थी? चीन इस फिराक में था कि कोरोना की मार में भारत की आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह से झुलसी हुई है और इसी का फायदा उठाकर सीमा विवाद का मसला ही खत्म कर देते हैं। दरअसल, यह चीन कि एक सोची समझी चाल है। कुल मिलाकर गलवान में किसी भी तरह से पीछे हटना या भारत के प्रतिकूल बात देश की इमेज पर भी गंभीर सवाल उठाता। शायद 1962 से भी ज्यादा। चीन जब यह कहते हुए गुजरेगा कि भारत की औकात क्या है? मेरे बूते पर जिन्दा है तो भारत के लिए भूराजनीतिक रूप से दक्षिण एशिया में ही जिन्दा रहना मुश्किल हो जाएगा। नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका भी दूर खिसक जाएंगे। इसलिए लेह की यात्रा प्रधानमंत्री के लिए भी ज्यादा अहम थी। मोदी की विशेषता रही है कि उनका हर मूव एक नई कूटनीति की व्याख्या करती है। 2014 में तिब्बत के प्रधानमंत्री को शपथ ग्रहण के दौरान निमंतण्रदेकर चीन की बेचैनी किस कदर बढ़ गई थी, यह हर कोई जानता है।
आज फिर भारत चीन से दो-दो हाथ के लिए तैयार है। हांगकांग और ताइवान पर भारत ने चीन को कुरेदेने का काम शुरू कर दिया है। स्थिति बिगड़ी तो ‘वन चीन’ की संज्ञा में भी बदलाव आ सकता है। भारत किसी बाहरी देश के बूते पर युद्ध की गर्जना नहीं कर सकता, लेकिन आज अमेरिका सहित पश्चिमी दुनिया भारत के साथ है। चीन की ‘विस्तारवादी’ और ‘वोल्फ डिप्लोमेसी’ खतरे में घिर गई है। अगर परिस्थिति का लाभ भारत को मिलता है तो इसे उठाना चाहिए क्योंकि चीन की नीयत और दोस्ती का अंदाजा सबको हो चुका है। चीन के साथ बेतहाशा नरमी और प्यार देकर नेहरू जी ने भारत के पहचान एक कमजोर देश के रूप में स्थापित कर दी थी, आज भारत उस केंचुल से बाहर निकल कर फुफकार रहा है।
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