तिब्बत : चीन की कुदृष्टि से बचके
लद्दाख की गलवान घाटी में भारत के निहत्थे सैनिकों पर चीनी सैनिकों द्वारा किये गये अप्रत्याशित हमले से भारत ही नहीं बल्कि विश्व बिरादरी भी स्तब्ध है।
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क्योंकि 1960 के दशक से ही नेफा (अरुणाचल) से लेकर लद्दाख तक की भारत चीन सीमा पर दोनों देशों के सैनिकों के बीच विवाद धक्का-मुक्की और पथराव की घटनाएं नई तो नहीं हैं, लेकिन लद्दाख क्षेत्र में सन् 1962 के 58 साल बाद और उत्तर पूर्व में अरुणाचल में 1975 की झड़प, जिसमें एक भारतीय सैनिक हताहत हुआ था, के 45 साल बाद इस बार भारत-चीन सीमा पर इतने सैनिकों की जानें गई।
सन 2005 और 2015 की संधियों में स्थाई शांति बनाए रखने और हिंसा से बचने के उद्देश्य से सैनिकों के लिए तय प्रोटोकॉल के बावजूद चीनी सैनिकों की इस हरकत ने एक बार फिर साबित कर दिया कि चीन किसी भी हाल में विश्वास के काबिल नहीं है। 15 जून की खूनी रात की इस घटना के प्रति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने न केवल चीन के बल्कि समूची विश्व बिरादरी के समक्ष भारत की जनता के आक्रोश को इन नपे-तुले और दृढ़ शब्दों के साथ प्रकट कर दिया कि, भारत शांति चाहता है, लेकिन उकसाने पर उचित जबाब देने और अपनी सम्प्रभुता की रक्षा करने में पूर्ण सक्षम है। यही नहीं प्रधानमंत्री ने 15 जून की रात्रि को हुए संघर्ष में निहत्थे भारतीय सैनिकों द्वारा प्राण छोड़ने से पहले दुश्मनों के छक्के छुड़ाने का भी उल्लेख कर स्पष्ट संकेत दे दिया कि भारत की सेना किस तरह जवाबी कार्रवाई कर सकती है। इसके बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सीमा पर सैनिकों को खुली छूट की देने घोषणा कर साफ कर दिया कि नौबत आई तो भारत की सेना वैसा ही जबाब देगी जैसा कि उसने सितम्बर 1967 में नाथू ला और चो ला में दिया था, जिसमें चीन के लगभग 300 सैनिक मारे गए थे। लद्दाख का संकट अभी टला नहीं है। चीनियों को गलवान घाटी से बाहर करने के बाद ही मिशन पूरा होगा।
इसके लिए कूटनीतिक प्रयास तो हो ही रहे हैं और वे प्रयास सफल न हुए तो भारत के पास सैन्य विकल्प बचता है। भारतीय सेना के पास माउंटेन वारफेयर का अनुभव भी पूरा ही है, जिसका नमूना कारगिल युद्ध में दिया जा चुका है। देखा जाए तो चीन का मकसद केवल सीमा विस्तार या भारतीय भारतीय क्षेत्र को हड़पना नहीं है। सीमा विवाद तो उसके अन्य पड़ोसी देशों जापान, फिलिपींस, वियतनाम और मलेशिया से भी हैं। दरअसल, वह भारत को एशिया की उभरती शक्ति के रूप में सहन नहीं कर पा रहा है। विश्व मंच पर भारत का रुतबा भी उसकी आखों में खटक रहा है। अप्रैल 1954 में सम्पन्न हुए पंचशील समझौते से लेकर चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की 11 एवं 12 अक्टूबर 2019 की नवीनतम भारत यात्रा तक दोनों देशों के बीच स्थाई शांति और दीर्घकालीन मैत्री के लिए हरसंभव प्रयास किए गए। मगर उन प्रयासों का फल दगाबाजी के रूप में ही भारत को मिला। सन पचास के दशक में तिब्बत पर कब्जा करते समय माओ जेडन्ग ने कहा था कि तिब्बत वह हथेली है, जिस पर कब्जे के बाद उसकी पाचों ऊंगलियों, लद्दाख, नेपाल, भूटान, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश को कब्जे में लेना है। चीन की मंशा भांप कर इनमें से भूटान के साथ 1949 और नेपाल के साथ 1950 में भारत ने मैत्री संधि कर ली थी, जबकि 1975 में सिक्किम को भारत में मिला दिया था। लद्दाख को 1947 में ही जम्मू-कश्मीर में मिलाया जा चुका था।
चीन के मुकाबले के लिए भारत को अपनी सैन्य शक्ति तो बढ़ानी ही है, लेकिन उसका पूरा मुकाबला करने के लिए हमें अपनी आर्थिक शक्ति को अवश्य ही बढ़ाना होगा। वर्तमान में चीन ने दुनिया के 150 से अधिक देशों को 112.5 लाख करोड़ रुपये का कर्ज बांट रखा है। नेपाल उसके जाल में फंसा चुका है और भारत को घेरने के लिए अब बांग्लादेश पर डोरे डाल रहा है। श्रीलंका भी उसके प्रभाव में आ गया है। इन दिनों बाद चीनी उत्पादों के खिलाफ देा भर में बॉयकाट की लहर तो चली है, मगर केवल बयानबाजियों और दिखावे के लिए टेलीविजन फोड़ने से काम नहीं चलेगा। एक अनुमान के अनुसार 2014 तक चीन ने भारत में 1.6 अरब डलर निवेश किया था जो कि 2017 तक 8 अरब डॉलर तक पहुंच चुका था। कई भारतीय कंपनियां भी चीन के कर्ज तले दबी हुई हैं। ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019-20 में भारत के कुल निर्यात का 5 प्रतिशत अकेले चीन को किया गया, जबकि भारत में कुल आयात का 14 प्रतिशत अकेले चीन से था। ऐसी परिस्थितियों में भारत को अपनी आर्थिक ताकत बढ़ानी पड़ेगी। इसके साथ ही हमें अपने नेपाल जैसे रूठे पड़ोसियों को पुन: भरोसे में लेना होगा।
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