सामयिक : और भी हैं सुशांत सिंह जैसे
आत्महत्या के बाद से बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत के जीवन और व्यक्तित्व के बारे में जितनी जानकारी सामने आई है, उससे यह स्पष्ट है कि ये नौजवान कई मायनों में अनूठा था।
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उसकी सोच, उसका ज्ञान, उसकी लगन, उसका स्वभाव और उसका जुनून ऐसा था जैसा बॉलीवुड में बहुत कम देखने को मिलता है। कहा जा सकता है कि सुशांत सिंह राजपूत अपने आप में एक ऐसी शख्सियत था जो अगर जिंदा रहता तो एक संजीदा सुपर स्टार बन जाता।
जितनी बातें सोशल मीडिया में सुशांत के बारे में सामने आ रहीं हैं; उनसे तो यही लगता है कि बॉलीवुड माफिया ने उसे तिल-तिल कर मारा। पर ये कोई नई बात नहीं है। बॉलीवुड में गॉडफादर या मशहूर खानदान या अंडर्वल्ड कनेक्शन के सहारे चमकने वाले तमाम सितारे ऐसे हैं, जिनका व्यक्तित्व सुशांत के सामने आज भी कोई हैसियत नहीं रखता। पर आज तक कोई भी इस अनैतिक गठबंधन को तोड़ नहीं पाया। इसलिए वे बेखौफ अपने कुटिल विचार को अंजाम देते रहते हैं। पर इस त्रासदी का शिकार सुशांत अकेला नहीं था। हर पेशे में कमोबेश ऐसी ही हालत है। आजादी के बाद से अगर आंकड़ा जोड़ा जाए तो देश भर में सैकड़ों ऐसे युवा वैज्ञानिकों के नाम सामने आएंगे, जिन्होंने इन्हीं हालात में आत्महत्या की। ये सब युवा वैज्ञानिक बहुत मेधावी थे और मौलिक शोध कर रहे थे। पर इनसे ईष्र्या करने वाले इनके सुपर बॉस वैज्ञानिकों ने इनकी मौलिक शोध सामग्री को अपने नाम से प्रकाशित किया।
इन्हें लगातार हतोत्साहित किया और इनका कई तरह से शोषण किया। मजबूरन इन्होंने आत्महत्या कर ली। यही हाल कारपोरेट सेक्टर में भी देखा जाता रहा है। जहां योग्य व्यक्तियों को उनके अयोग्य साथी अपमानित करते हैं और हतोत्साहित करते हैं। मालिक की चाटुकारिता करके उच्च पदों पर कायम हो जाते हैं। हालांकि सूचना क्रांति के बाद से अब योग्यता को भी तरजीह मिलने लगी है। क्योंकि अब योग्यता छिपी नहीं रहती। पर पहले वही हाल था। यही हाल राजनीति का भी है। जहां गणोश प्रदक्षिणा करने वाले तो तरक्की पा जाते हैं और सच्चे, मेहनती, समाजसेवी कार्यकर्ता सारा जीवन दरी बिछाते रह जाते हैं। पिछले 30 वर्षो से तो हर राजनैतिक दल पर परिवारवाद इस कदर हावी हो गया है कि कार्यकर्ताओं का काम केवल प्रचार करना और गुजारे के लिए दलाली करना रह गया है। संगीत, कला, नृत्य का क्षेत्र हो या खेल-कूद का, कम ही होता है जब बिना किसी गॉडफादर के कोई अपने बूते पर अपनी जगह बना ले। भाई-भतीजावाद, शारीरिक और मानसिक शोषण और भ्रष्टाचार इन क्षेत्रों में भी खूब हावी है। आश्चर्य की बात तो यह है कि दुनिया की पोल खोलने वाले पत्रकार भी इन साजिशों से अछूते नहीं रहते। किसको क्या असाइनमेंट मिले, कौन सी बीट मिले, कितनी बार वीआइपी के साथ विदेश जाने का मौका मिले, ये इस पर निर्भर करता है कि उस पत्रकार के अपने सम्पादक के साथ कैसे संबंध हैं। कोई मेधावी पत्रकार अगर समाचार सम्पादक या सम्पादक की चाटुकारिता न कर पाए तो उसकी सारी योग्यता धरी रह जाती है।
इसी तरह अवार्ड पाने का भी एक पूरा विकसित तंत्र है जो योग्यता के बजाए दूसरे कारणों से अवार्ड देता है। फिर वो चाहे बॉलीवुड के अवार्ड हों या खेल जगत के या पद्मश्री या पद्मभूषण जैसे राजकीय सम्मान हों। सब के सब योग्यता के बजाए किन्हीं अन्य कारणों से मिलते हैं। इन्हीं सब कारणों से युवा या अन्य योग्य लोग अवसाद में चले जाते हैं और आत्महत्या जैसे गलत कदम उठा बैठते हैं। इन सब परिस्थितियों से लड़ने में आध्यात्म भी एक उत्तम साधन सिद्ध हो सकता है और ये पीड़ित को शोषण के खिलाफ लड़ने में मदद कर सकता है। चूंकि यह समस्या सर्वव्यापी है इसलिए इसे एकदम रातों रात में खत्म नहीं किया जा सकता पर इसके समाधान जरूर खोजे जा सकते हैं। मसलन सरकारी विभागों में बने शिकायत केंद्रों की तरह ही हर राज्य और केंद्र के स्तर पर ‘शोषण निवारण आयोग’ बनाए जाएं, जिनमें समाज के वरिष्ठ नागरिक, निशुल्क सेवाएं दें।
वकालत, मनोविज्ञान, प्रशासनिक तंत्र, कला व खेल और पुलिस विभाग के योग्य, अनुभवी और सेवानिवृत्त लोग इन आयोग के सदस्य मनोनीत किए जाएं। इन आयोग के पते, ईमेल और फोन इत्यादि, हर प्रांतीय भाषा में प्रचारित किए जाएं, जिससे ऐसे शोषण को झेल रहे युवा अपने अपने प्रांत के आयोग को समय रहते लिखित में सूचना भेज सकें। आयोग की जिम्मेदारी हो कि ऐसी शिकायतों पर तुरंत ध्यान दें और जहां तक सम्भव हो, उस पीड़ित को नैतिक बल प्रदान करें। जैसा महिला आयोग, महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों पर करते हैं। इन आयोगों का स्वरूप सरकारी न होकर स्वायत्त होगा तो इनकी विसनीयता और प्रभाव धीरे-धीरे स्थापित होता जाएगा। अनेक समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों ने समाज का अध्ययन कर के कुछ ऐसे सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं, जिनसे ऐसी शोषक व्यवस्था का चरित्र उजागर होता है। जैसे ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’, ‘शोषक और शोषित’।
ये सब सिद्धांत समाज की उस प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं जो ताकतवर व्यक्ति के सौ खून भी माफ करने को तैयार रहता है किंतु मेधावी व्यक्ति की सही शिकायत पर भी ध्यान नहीं देता। पर जिस तरह अमेरिका में हाल ही में एक अेत जज फ्लॉयड की मृत्यु पुलिसवाले के अमानवीय व्यवहार से हो गई और उस पर पूरा अमेरिकी समाज उठ खड़ा हुआ और उन गोरे सिपाहियों को कड़ी सजा मिली। या जिस तरह विश्वविद्यालय प्रशासन की तानाशाही का देशभर में छात्र एकजुट होकर विरोध करते हैं। उसी तरह हर व्यवसाय के लोग, खासकर युवा जब ऐसे मामलों पर सामूहिक आवाज उठाने लगेंगे तो ये प्रवृतियां धीरे-धीरे कमजोर पड़ती जाएंगी। इसलिए शोषण और अत्याचार का जवाब आत्महत्या नहीं बल्कि हमलावर होकर मुकाबला करना है।
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