मेडिकल वेस्ट : उचित निदान से ही बनेगी बात

Last Updated 22 Jun 2020 01:07:49 AM IST

बीमारियों को अक्सर हम डेंगू-मलेरिया, हैजा, एड्स, कैंसर, सार्स, मर्स और बर्ड फ्लू आदि नामों से जानते हैं।


मेडिकल वेस्ट : उचित निदान से ही बनेगी बात

अक्सर इन बीमारियों के लिए वातावरण के प्रदूषण, प्रकृति के नियमों से खिलवाड़ और सेहत के प्रतिकूल व्यवहार को जिम्मेदार माना जाता है, लेकिन इन सारी बीमारियों की जड़ अस्पतालों से निकलने वाला कचरा यानी मेडिकल वेस्ट भी हो सकता है-इसकी चिंता इस कोरोना काल में बढ़ी है। हालात ये हैं कि अस्पतालों से निकला कचरा (सर्जिकल ग्लव्ज, मास्क) आदि इधर समुद्रों तक भी पहुंच गया है और वातावरण के साथ इंसानी सेहत के लिए और बड़े खतरे का सबब बन गया है।
यूं कोरोना से पैदा महामारी कोविड-19 के उपचार और बचाव के उपायों के तौर पर इस्तेमाल होने वाली पीपीई किट, सर्जिकल मास्क, ग्लव्स, सैनिटाइजर बोतलों आदि के निपटारे (निस्तारण) के लिए अलग से कोई चिकित्सकीय दिशा-निर्देश जारी नहीं किए गए हैं, लेकिन इधर इन चीजों का इस्तेमाल कई गुना बढ़ने से खतरे का एक संकेत है। वजह यह है कि अस्पतालों और पैथोलॉजी लैब्स से बाहर आम जनता भी इन चीजों को इस्तेमाल में ला रही है। हर स्तर पर मेडिकल वेस्ट के निस्तारण के सामान्य सुझाव यह हैं कि ये चीजें किसी भी रूप में पर्यावरण और इंसानों समेत अन्य जीवों के संपर्क में नहीं आनी चाहिए।

कोरोना वायरस के संहारक प्रसार के मद्देनजर यह और भी जरूरी हो जाता है कि ऐसा मेडिकल वेस्ट बिना उचित प्रक्रिया के निस्तारित नहीं होना चाहिए, लेकिन इस काम में हर स्तर पर अक्सर इतने झोल छोड़ दिए जाते हैं कि एक स्वस्थ इंसान भी कब ऐसे कचरे की चपेट में आकर किसी गंभीर मर्ज की चपेट में आ जाए-कहा नहीं जा सकता। बायो मेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट और हैंडलिंग एक्ट 1998 के संशोधित नियम 2016 के मुताबिक इस कचरे के निस्तारण में कोई गड़बड़ी ना हो, इसके लिए जरूरी है कि मेडिकल वेस्ट की उचित छंटाई के बाद जिन थैलियों में उन्हें बंद किया जाए उनकी बार-कोडिंग हो। इससे हरेक अस्पताल से निकलने वाले मेडिकल कचरे की ऑनलाइन निगरानी मुमकिन हो सकती है। इसके बावजूद यह कचरा अक्सर खुले में, नदी-नालों में और यहां तक कि खेतों तक में पहुंच जाता है। कानून में ऐसी लापरवाही के लिए पांच साल तक की जेल और जुर्माने का प्रावधान है। लेकिन शायद ही कभी सुना गया हो कि किसी बड़े अस्पताल या पैथ लैब संचालक को इसके लिए जेल में डाला गया हो।
तथ्य बताते हैं कि बीते दो से तीन दशकों में देश की राजधानी दिल्ली-एनसीआर में ही अस्पतालों, नर्सिंग होम्स और पैथ लैब्स की संख्या में कई गुना इजाफे के साथ हॉस्पिटल वेस्ट की मात्रा भी कई गुना बढ़ गई है। दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक राजधानी में अब प्रतिदिन 25 टन बायो-मेडिकल वेस्ट निकलता है, जिसमें कोरोना संकट काल में कुछ बढ़ोत्तरी और हुई है। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का भी मानना है कि हॉस्पिटल वेस्ट में सिर्फ 15 फीसद कचरा ही नुकसानदेह होता है, लेकिन अगर इस हिस्से में मौजूद पट्टियों, रूई के बंडलों के बीच मौजूद इंजेक्शन में दवा की शेष मात्रा और मरीज के रक्त को उचित ढंग से अलग करके नष्ट नहीं किया गया, तो इससे शेष मेडिकल वेस्ट भी खतरनाक ढंग से दूषित हो जाता है। इस बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन अपने एक अध्ययन से बता चुका है कि 2010 में इंजेक्शनों के असुरक्षित निस्तारण के कारण एचआईवी के 33,800, हेपेटाइटिस-बी के 17 लाख और हेपेटाइटिस-सी के तीन लाख से ज्यादा मामले पैदा हुए थे।
यह अंदाजा बेमानी नहीं है कि कोरोना वायरस में लिप्त कोई पीपीई किट, ग्लव्ज या यूं ही कूड़े के ढेर पर फेंक दिए मास्क की चपेट में कोई पालतू जानवर और फिर कोई इंसान आ जाए तो नतीजा क्या हो सकता है? विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया के 24 देशों में से 58 फीसद में हॉस्पिटल वेस्ट की निगरानी, उसके रखरखाव, भंडारण, परिवहन और रीसाइक्लिंग में ठीक इंतजाम दर्ज किए, लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। यहां तो हजारों प्राइवेट पैथ लैब प्राय: किसी निगरानी और मानकों के बिना चल रही हैं, तो उनसे हॉस्पिटल वेस्ट के उचित निस्तारण की क्या उम्मीद की जाए। अस्पतालों के पीछे नालों और बाड़ के पार बायो-मेडिकल वेस्ट के ढेर देख लिये जाएं, तो इलाज को पांच सितारे देकर विदेशी मुद्रा अर्जित करने और मेडिकल टूरिज्म का दम भरने का हमारा सपना एक झटके में टूट जाए। ऐसे सपने देखना बुरा नहीं है, बशर्ते जमीन पर मौजूद असलियत से नजरें मिलाकर हम मेडिकल वेस्ट रूपी समस्या का कोई बेजोड़ हल निकाल लें।

डॉ. संजय वर्मा


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