मुद्दा : रूपहले मंच के पीछे का दर्द
देश के एक हिस्से में बढ़ती संपन्नता भी युवाओं के अकेलेपन, दुख और तनाव को कम नहीं कर पा रही है।
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युवा और बेहद प्रतिभाशाली फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को इस संदर्भ में देखें तो हमें कई सवालों के जवाब मिल सकते हैं। अपनी पिछली ही फिल्म ‘छिछोरे’ में निभाए गए चरित्र में सुशांत अपने बेटे को जिंदगी की हताशा से तब लड़ना सिखाते हैं, जब वह एक नाकामी से घबराकर आत्महत्या का प्रयास करता है। पर अफसोस कि जब मौका पड़ा, यह सबक सुशांत खुद पर लागू नहीं कर सके और गहरे अवसाद में घिरकर आत्मघाती कदम उठा लिया।
अच्छा नाम-दाम कमाने के बावजूद पैसे की तात्कालिक तंगी और निजी जीवन की कुछ निराशाओं के हावी हो जाने के शुरुआती अनुमान ही फिलहाल इस बारे में लगाए जा सकते हैं, लेकिन यह मामला चमक-दमक भरे जीवन के पीछे के अंधेरों और पारंपरिक रूप से परिवार को अहमियत देने वाले भारतीय समाज में अकेले पड़ते व डिप्रेस्ड होते युवाओं की समस्याओं को एक साथ उजागर कर रहा है। अवसाद की समस्या में फिलहाल कोरोना संकट ने कुछ और इजाफा ही किया है। काम न मिलने और वेतन कटौती या नौकरी जाने के साथ रोजी-रोटी के विकल्प सीमित हो जाने के कई खतरे हैं, जो युवाओं के एक बड़े वर्ग के सामने नई चुनौतियां खड़ी कर रहे हैं। पर ये समस्याएं निम्न और मध्य वर्ग की ज्यादा लगती हैं। कई फिल्मों में शानदार अभिनय के बल पर पैसा और ख्याति अर्जित करने वाले सुशांत की मौत (या आत्महत्या) के जो संकेत हैं, वे इससे अलग और कहीं ज्यादा गहरे हैं। ये संकेत हमारी सामाजिक व्यवस्था के खोखलेपन को जाहिर करते हैं। इनसे समाज में परस्पर वास्तविक संवाद के अवसरों का स्पेस खत्म होने का पता चलता है। ये ऐसे आत्मकेंद्रित समाज का खुलासा करते हैं, जिसमें लोगों के पास अपने सुख-दुख को दूसरों से साझा करने की ताकत और समझ-बूझ खत्म होने का संकेत देते हैं।
अपना अहं परे रखकर दूसरों के साथ मन की बातें साझा करने से लोगों का तनाव कम होता है और सामाजिक रूप से संबल मिलता है, लेकिन अब क्षणिक सफलताओं में खुद को दूसरों से विशिष्ट मानने का चलन कामयाब युवाओं को जल्द ही अंदर से तोड़ भी देता है। नौकरी या प्रेम में असफलता जैसी चीजें पहले भी रही हैं पर पहले युवा इतनी जल्दी जिंदगी से उकता नहीं जाते थे। इसलिए यह देखना और समझना होगा कि आखिर क्यों कई सफलताओं के बाद भी एक छोटे दौर की नाकामी या काम न मिलने की मायूसी बड़े सितारों को भी अंदर से तोड़ देती है। सुशांत से पहले भी टीवी और फिल्म जगत के कई और उदाहरण हैं, जिनमें प्रतिभावान सितारों ने ज्यादातर निजी दबाव और अवसाद में घिरकर आत्मघात का रास्ता चुन लिया। चार साल पहले टीवी अभिनेत्री प्रत्यूषा बनर्जी की आत्महत्या, श्रीदेवी की संदिग्ध मौत, दिव्या भारती, सिल्क स्मिता, फिल्म ‘निशब्द’ की युवा अभिनेत्री जिया खान से लेकर इस साल की शुरु आत में टीवी एक्ट्रेस सेजल शर्मा तक की मौतों का लंबा सिलसिला है जो काफी संदिग्ध है, लेकिन इनमें से एक-दो अपवादों को छोड़कर ज्यादातर घटनाएं इसी तथ्य का खुलासा करती हैं कि टीवी, सिनेमा, फैशन की ग्लैमर की यह दुनिया घुप्प अंधेरों से जूझ रही है। यह विडंबना ही है कि जिन सितारों के अभिनय के चौतरफा चर्चा हो और जिनका कॅरियर आम तौर पर अच्छा ही चल रहा होता है, वे सितारे निजी जीवन में जरा से उतार-चढ़ाव भी सहन नहीं कर पाते हैं। यानी ग्लैमरस पेशों से जुड़े युवा जल्दी तनाव और असुरक्षा के शिकार होकर हो जाते हैं। फिल्मों की कामयाबी-नाकामी और नये कलाकारों-सितारों के आगमन के साथ आने वाली यह असुरक्षा इतनी ज्यादा होती है कि जरा सा दबाव बड़े से बड़े सितारे को अंदर से तोड़ देता है।
इन सितारों को देखकर हमें पता नहीं चलता कि चमक-दमक भरी इनकी जिंदगी अनिगनत दर्द की दास्तानों में पैबस्त होती है। एक बार सफलता के शीर्ष पर पहुंचने के बाद खुद से भी ज्यादा अपेक्षाएं लगाने वाली यह त्रासदी वापसी की कोई राह नहीं छोड़ती है। सार्वजनिक जीवन में बेहद चर्चित रहने वाले सितारों की जिंदगी में कायम अकेलापन कम हो सकता है और वे अवसाद से बच सकते हैं, अगर शोहरत और पैसे का निवेश वे खुद को समाज से जोड़ने में करें। सोनू सूद ने प्रवासी मजदूरों की मदद के उदाहरण के साथ यही साबित किया है। खुद फिल्म और फैशन इंडस्ट्री यदि कुछ ऐसे संतुलन बना सके, जिसमें कामयाब होने का मतलब फिल्मी पर्दे पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक स्क्रीन पर भी चमकना माना जाए तो कह सकते हैं कि युवाओं की ऐसी त्रासदियों पर कुछ रोक लग सकेगी।
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