पश्चिम एशिया : फिर युद्ध की आशंका
इजरायल में पिछले एक वर्ष में तीन उपचुनाव बेनतीजा रहे। लम्बे अरसे से सत्ता की बागडोर संभाल रहे वहां के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू पुन: जोड़ तोड़ कर सत्ता प्राप्त करने में कामयाब रहे।
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उन्हें इस बार वहां की मुख्य विपक्षी दल ‘ब्लू एंड वाइट पार्टी’ के नेता और पूर्व सेनाध्यक्ष बेनी गेट्ज ने मदद की। बेंजामिन पर इस समय वहां की सर्वोच्च अदालत में भ्रष्टाचार के मामले भी चल रहे हैं, इसलिए कानून और न्याय मंत्री के पद को लेकर दोनों सत्ताधारी दलों में काफी खींचतान भी बनी रही। अंतत: बेंजामिन को ही सफलता मिली और पिछले 17 महीने से चल रहा राजनैतिक गतिरोध तो समाप्त हो गया, लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा शपथ ग्रहण के बाद संबोधित एक प्रेस वार्ता में दिए वक्तव्य ने गंभीर चिंताएं बढ़ा दी हैं।
1967 में इजरायल ने फिलिस्तीन के साथ-साथ सीरिया, लेबनान और वेस्ट बैंक के कई हिस्सों पर कब्जा कर लिया था इसे ‘सिक्स डे वॉर’ के नाम से जाना जाता है। बेंजामिन ने चेतावनी भरे शब्दों में पुन: दोहराया है कि वेस्ट बैंक पर कब्जा करने का इससे बेहतर अवसर नहीं होगा। 1948 में अस्तित्व में आए इजरायल के इतिहास में ये सबसे बड़ी घटना होगी। इस कार्यक्रम को जुलाई माह में अंजाम दिया जाएगा।
बेंजामिन द्विराष्ट्र के सिद्धांत को ही समाप्त करना चाहते हैं, लेकिन इसे इजरायल राज्य की सीमा स्वीकार नहीं किया गया है। फिलिस्तीन के साथ-साथ अरब मुल्क समेत यूरोपियन यूनियन के विभिन्न राष्ट्र और यू. एन. भी इसे इजरायल का हिस्सा मानने को तैयार नहीं है। डोनाल्ड ट्रंप पुन: अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उमीदवार हैं। अेत आंदोलन, आर्थिक मंदी, कोरोना संक्रमण से निपटने में असफलता उनके लिए एक गंभीर चुनौती बन गई है। अमेरिका पश्चिम एशिया में इजरायल का सबसे बड़ा पैरोकार है और इस समय उठाए गए सवालों को अमेरिकी चुनाव से भी जोड़कर देखा जा रहा है। इजरायल द्वारा कब्जा किए क्षेत्र गोलन हाइट्स पर भी अमेरिका उसी का हिस्सा स्वीकार कर चुका है। यद्यपि ये क्षेत्र लम्बे समय से सीरिया का हिस्सा रहा है। संयुक्त राष्ट्र परिषद्, अमेरिका के डेमोक्रेट्स सांसद आदि इस कदम का खुलकर विरोध कर चुके हैं। रूस, ईरान, तुर्की, सीरिया समेत कई और राष्ट्र भी खुलकर सामने आ गए हैं। ज्यादातर मामलों में अमेरिकी समर्थक सऊदी अरब ने चेतावनी देकर इसे शांति प्रक्रिया और क्षेत्रीय स्थिरता के लिए घातक बताया है। अमेरिकी राष्ट्रपति की उस घोषणा को भी आपत्तिजनक माना गया है जिसके तहत अमेरिकी दूतावास को येरुसलम स्थानांतरित कर दिया गया है। यू. एन. महासचिव अंटोनिओ गुटरेस तक ने इस कदम को दो देशों के बीच शांति की स्थापना को नष्ट करने वाला कदम बताया है। येरुसलम की धार्मिंक संवेदनशीलता भी एक कारण है, यहां यहूदी, मुस्लिम और ईसाई तीन धर्मो की आस्था के केंद्र है। अल अक्सा मस्जिद दुनिया भर के मुसलमानों के लिए सर्वाधिक तीन पवित्र स्थानों में से एक है। कई अवसरों पर फिलिस्तीनियों की आवाजाही यहां निषेद्य होती है श्रद्धालुओं को कई तलाशियों के बाद ही प्रवेश मिलता है।
बेंजामिन ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए गोलन हाइट्स की पहाड़यिों पर बनी बस्ती को ट्रंप के नाम से स्थापित कर दिया है। गोलन हाइट्स नमक पहाड़ी का लगभग 1300 वर्ग: किलोमीटर क्षेत्र 1967 तक सीरिया का भूभाग रहा है। 1967 के ‘सिक्स डे का युद्ध’ के बाद यह इजरायल के कब्जे में आ गया। इससे मिस्र के लगभग 1500 सैनिक मारे गए थे। संयुक्त राष्ट्र परिषद् के प्रस्तावों को भी इजरायल द्वारा समय-समय पर नकारा जाता रहा है। परिषद् ने प्रस्ताव संख्या 497 के तहत इस अतिक्रमण को निर्थक करार दिया था। आज तक यू. एन गोलन हाइट्स को सीरिया का ही हिस्सा मान कर चलता है। इन सब विवादों के पीछे अमेरिका का सीधा हस्तक्षेप रहा है। अमेरिका शुरू से ही इजरायल को सैनिक सुविधा दे रहा है। 1948 में भी अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन दुनिया के पहले नेता थे, जिन्होंने इजरायल को मान्यता दी थी। ऐतिहासिक येरु सलम विवाद की गंभीरता को स्वीकारते हुए बिल क्लिंटन, जॉर्ज बुश, ओबामा आदि अमेरिकी राष्ट्रपतियों द्वारा येरुसलम पर यथास्थिति बरकरार रखी गई। मगर अपने चुनावी वायदों और यहूदी प्रेम के कारण ट्रंप इजरायल तुष्टिकरण के लिए प्रतिबद्ध रहे। उनके मंत्रीपरिषद् के कई महत्त्वपूर्ण मंत्रियों को भी यहूदियों का कड़ा समर्थक माना जाता है।
भारत की विदेश नीति में भी आए बदलाव आश्चर्यजनक है। अरब मुल्कों के बाद भारत पंडित नेहरू और भारत पहला देश था, जिसने फिलिस्तीन को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता दी। बदलती दुनिया के दौर में भारत के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने 1992 में पहली बार इजराइल को मान्यता देकर भारत को गुटनिरपेक्ष देशों में आशंकित कर दिया। इस स्थिति में मजबूत वैश्विक हस्तक्षेप ही एकमात्र उपाय है। अमेरिकी चुनाव की तिथियां जैसे-जैसे करीब आएंगी ट्रंप प्रशासन और बेंजामिन अड़ेंगे और शांति वार्ता को भंग करने में लगेंगे। अमेरिकी चुनाव में विदेश नीति भी एक बड़ी भूमिका निभाती रही है। यूं भी ट्रंप और बेंजामिन की जोड़ी चर्चा में बनी हुई है। बेंजामिन भी ट्रंप को राजनैतिक मदद और सुझावों का श्रेय देते हैं और कर्ज उतारने का इससे अच्छा अवसर और क्या हो सकता है। अमेरिका को रोकने की तमाम कोशिशें यूं भी व्यर्थ ही प्रतीत होती जा रही है।
फिलिस्तीन आंदोलन भी अब पहले जैसा सशक्त नहीं रह गया है। यासिर अराफात के समय इसका फैलाव काफी व्यापक था। तीसरी दुनिया के सभी प्रशिद्ध नेता पंक्तिबद्ध होकर फिलिस्तीन के पीछे खड़े रहते थे, जिसमें पंडित नेहरू, चाउ एन लाई, अब्दुल गुलाम नासिर, मार्शल टीटो, एनक्रोमा और सुकर्णो यद्यपि आज भी भारत समेत सभी बचे-खुचे देश इस बात के पक्षधर हैं कि पश्चिमी एशिया की चुनौतियों का समाधान राजनैतिक कूटनीतिक तरीके से किया जाए। दुर्भाग्यवश इन क्षेत्रों में हिंसक घटनाएं निरन्तर जारी हैं। पिछले दिनों इजराइल द्वारा गाजा पट्टी पर किए गए हमले के बाद माहौल और भी विषाक्त हो चुका है। फिलिस्तीन आंदोलन पर भी गरम विचार के संगठन हमास का कब्जा है जो युद्ध द्वारा ही फिलिस्तीन मुक्ति का मार्ग मानता है। समय रहते संयुक्त राष्ट्र, अरब मुल्क, यूरोपियन यूनियन और तृतीय दुनिया के देश अगर सार्थक प्रयास करें तो अमेरिकी-इजराइल आक्रामकता को चेक किया जा सकता है।
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