मीडिया : मीडिया और मजदूर
एक टीवी रिपोर्टर जब हजारों किलोमीटर दूर पैदल घर जाते एक गरीब मजदूर की टूटी चप्पलों और पैर के पड़े छालों को देखता है, तो उससे सहा नहीं जाता और वह अपने जूते उसे पहनने को दे देता है।
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एक अन्य टीवी रिपोर्टर सुबह जिस टेंपो ड्राइवर से बात करता है जो अपने बीबी-बच्चों को सुदूर अपने गांव ले जा रहा है, शाम को जब उसी ड्राइवर को एक्सीडेंट में मरा पाता है और उसके बीबी-बच्चों को घायल पाता है तो बिलख उठता है। वह कायदे से ‘पीस टू कैमरा’ तक नहीं दे पाता।
तीसरा सीन एक नामी अंग्रेजी एक्स टीवी पत्रकार का है, जो घर वापस जाते इन प्रवासी मजदूरों से अक्सर पूछती हैं कि वे क्यों वापस जा रहे हैं और फिर उनकी व्यथा कथा को अंग्रेजी में निचोड़ कर राजनीति करने लगती हैं और सोशल मीडिया पर उनके चमचे उनको पुलित्जर सम्मान का हकदार बताने में लग जाते हैं। कुछ के लिए मजदूर हमदर्दी का विषय हैं, तो कुछ के लिए कॅरियर का माध्यम। हमदर्द हमदर्दी दिखाते हैं, कॅरियर वाले सोचते हैं कि एक मैगसेसे, एक पुलित्जर उनको अब मिला कि अब मिला। कुछ भक्त या विरोधी पत्रकारों को छोड़ दें तो अधिकांश मीडिया बहुत दिन बाद अपनी ‘यथार्थवादी भूमिका’ में लौटा है। इनकी व्यथा-कथाओं को दिखा दिखाकर क्षुब्ध एंकर और रिपेर्टर नेताओं और प्रशासकों को ताना देते हैं कि क्या उनको ये मजबूर मजदूर नहीं दिखते? इनकी हालत पर उनको जरा भी तरस नहीं आता? वे इनके घर तक के लिए फ्री बसों इंतजाम नहीं कर सकते ताकि ये सही-सलामत पहुंच सकें।
इतने नेता हैं, इतनी सरकारें हैं, लेकिन इन करोड़ों प्रवासी मजदूरों की सुनने वाला कोई नहीं है। यही नहीं, लॉकडाउन के पचपन दिन बाद अब यह भी साफ होने लगा है कि कोरोना के खिलाफ लड़ाई में सरकारों ने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं और जनता को उसके भाग्य के भरोसे छोड़ दिया है। अब तो हमारे उद्धारक नेता लोग भी हमें यह समझाने में लगे हैं कि कोरोना कहीं नहीं जाने वाला और अब हमें उसके साथ ही जीना सीखना होगा। उसके लिए मास्क लगाना है, दूरी रखनी है, हाथ धोने हैं इत्यादि। कई भक्त एंकर और भक्त विशेषज्ञ यह भी समझाने में लगे हैं कि अपने यहां हर साल दो लाख तो एक्सीडेंट में ही मर जाते हैं, लाखों टीबी और कैंसर से मर जाते हैं, पचासों हजार मलेरिया से मर जाते हैं। उसके मुकाबले कोरोना से मरने वाले तो कम ही हैं यानी लाख-दो लाख कोरोना से मर जाएं तो भी परेशानी की बात नहीं। यानी वही ट्रंप वाली बात कि एक लाख अमेरिकी तो मर ही सकते हैं। और यह कैसा मजाक है कि इतनी आफत के बाद भी नेता उसी तरह सुसज्ज नजर आते हैं जबकि लोग कंगाल होते नजर आते हैं। यह कैसा कंट्रास्ट है और कैसा दुर्भाग्य कि एक ओर अपनी घर-गृहस्थी को किसी तरह संभाल कर, हजारों किलोमीटर दूर अपने घरों को पैदल या साइकिल या रिक्शा या किराये के ट्रकों, टेंपो, ऑटो में जाते लाखों-करोड़ों थके-हारे-भूखे-प्यासे मजूदर किसान हैं और दूसरी ओर हमारे नेता हैं जो जब टीवी पर आते हैं तो एक से एक डिजाइनर मास्क या स्टायली दुपट्टे लपेट कर आते हैं ताकि कहीं उनकी बेमिसाल स्टायल बनी रहे।
जिन नगरों, महानगरों को इन्होंने दिन-रात अपने श्रम से बनाया, सजाया और विश्व स्तर का दरजा दिलाया वही उनके लिए ‘पराए’ हो गए हैं। यही नहीं, जिन राज्यों के गांव-कस्बों को ये हर महीने अपनी कमाई में से हजारों करोड़ रुपये के मनी ऑर्डर भेजते रहे और उनकी इकनॉमी का पेट भरते रहे, उन्हीं के सीएम आदि इनको इनके घर भेजने का इंतजाम तक नहीं करते। उल्टे इनको अपनी राजनीति की फुटबॉल बनाने में लगे हैं। इसीलिए आज गरीब आदमी का न अपने गृह राज्य के नेताओं का भरोसा है, न अपने कर्मक्षेत्र की सरकारों पर। सबने इनको ‘भाग्य के भरोसे’ छोड़ दिया है। जरा सोचिए : पचास पचपन दिनों से सरकार आदेश पर आदेश देती रही कि यह करो वो करो और लोगों ने उन आदेशों का आंख मूंदकर पालन किया और अब सरकारें और विशेषज्ञ समझाने में लगे हैं कि कोरोना कहीं जाने वाला नहीं है। हमें उसके साथ ही जीना सीखना होगा।
सर जी! जब यही कहना था कि आपके किए कुछ नहीं होगा और जनता को अपनी हिफाजत आप करनी होगी तो पचास पचपन दिन तक बंद रखकर पूरे मुल्क को तपाया क्यों? कहने की जरूरत नहीं कि मीडिया ने पहली बार अपनी क्रिटिकल भूमिका निभाते हुए हम सबको समझा दिया है कि ये सरकारें किसी की नहीं हैं। अगर आपको जीना है, तो अपने भरोसे जीना होगा। इसी कारण आज सारी सरकारें और सारे सत्तासीन नेता हिले नजर आते हैं।
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