वैश्विकी : विश्व को बदलेगा विषाणु
कोरोना वायरस अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और विदेश संबंधों को भी एक नया रूप और दिशा दे रहा है।
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यह सूक्ष्म अदृश्य विषाणु युद्ध भी करवा सकता है और शांति व सहयोग के नये दौर की शुरुआत भी कर सकता है। महामारी को लेकर हाल तक चीन को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बात करने का लहजा भी बदला नजर आ रहा है। व्हाइट हाउस में प्रेस ब्रीफ्रिंग के दौरान उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि अमेरिका इस महामारी का उपचार करने के लिए वैक्सीन का निर्माण इस वर्ष के अंत तक कर लेगा, लेकिन वास्तविकता यह है कि अमेरिका ही नहीं चीन, भारत, इंग्लैंड और यूरोपीय संघ भी वैक्सीन निर्माण के लिए जी-तोड़ प्रयास कर रहे हैं। कोई यह नहीं कह सकता कि सबसे पहले वैक्सीन कौन बनाएगा? ट्रंप से जब यह सवाल पूछा गया कि यदि सबसे पहले चीन यह वैक्सीन विकसित कर लेता है तो क्या अमेरिका उससे वैक्सीन हासिल करेगा? इसका उत्तर ट्रंप ने सकारात्मक रूप में दिया। वैक्सीन निर्माण करने में चीन की क्षमता अमेरिका से कम नहीं है। अमेरिका के पास यदि व्यापक वैज्ञानिक अनुसंधानशालाएं और वैज्ञानिक हैं तो चीन के पास कोरोना वायरस जैसी बीमारियों से निपटने का अनुभव है। इसके पहले कोरोना वायरस की जिन किस्मों का पता लगा था, उनके बारे में चीन में काफी कुछ हद तक शोध हुआ है। चीन में वुहान स्थित विषाणु अनुसंधान प्रयोगशाला में चमगादड़ों से मानव समुदाय में आने वाले संक्रमण के बारे में वर्षो से शोध चल रहा है। ऐसी एक शोध परियोजना के लिए अमेरिका धनराशि उपलब्ध कराता है।
यह सही है कि जो भी देश कोरोना वायरस के विरुद्ध वैक्सीन तैयार करेगा, वह उसके वितरण में प्राथमिकता तय करेगा। सबसे पहले वह अपनी घरेलू आवश्यकता पर ध्यान देगा तथा उसके बाद अपने मित्र देशों की मदद करेगा। वह देश अपने प्रतिद्वंद्वी या शत्रु देशों को सीधे तौर पर वैक्सीन देने से मना नहीं कर सकता, लेकिन इसमें टाल-मटोल और देरी हो सकती है। चीन निर्मित वैक्सीन पश्चिमी देशों और चीन के बीच सद्भावना का माहौल बना सकती है। पश्चिमी देशों में जो लोग वुहान वायरस या चीनी वायरस जैसा नामकरण कर चीन पर लांछन लगा रहे हैं, वे चीन से वैक्सीन मिलने पर उदारता का गुणगान कर सकते हैं। वैक्सीन निर्माण में भारत और चीन की औषधि कंपनियों की दुनिया में धाक है। भारत में कई कंपनियां वैक्सीन तैयार करने के लिए शोध कर रही हैं। यदि सबसे पहले भारत यह वैक्सीन तैयार करता है तो यह उसकी चिकित्सा वैज्ञानिकों की बड़ी सफलता होगी और देश के औषधि उद्योग को विश्व बाजार में अपना प्रभाव जमाने का मौका मिलेगा।
भारतीय औषधियों के संबंध में उल्लेखनीय बात यह है कि वे बहुत सस्ती होती हैं। भारत की सिप्ला कंपनी ने एचआईवी संक्रमण से लड़ने के लिए जो दवा तैयार की थी, उसकी कीमत पश्चिमी देशों की ऐसी ही दवाओं के मुकाबले सैकड़ों गुना कम थी। अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों में भारतीय दवाओं से ही एचआईवी संक्रमण के विरुद्ध जंग जीती जा सकी।
यह विडंबना है कि आगामी वर्षो में किस प्रकार की विश्व व्यवस्था उभरेगील इसका निर्धारण करने में एक सूक्ष्म विषाणु की महत्त्वपूर्ण भूमिका होगी। इस विव्यापी संकट से यदि सकारात्मक संदेश लिया जाए तो बहुत सी समस्याओं का समाधान संभव है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने करीब 26 लाख डॉलर की कीमत के 200 वेंटिलेटर भारत को उपहारस्वरूप देने की घोषणा की है। भारत को यह वेंटिलेटर अगले तीन हफ्ते में उपलब्ध हो जाएगा। पिछले दिनों भारत ने अमेरिका की मांग पर कोरोना के उपचार में काम आने वाली हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन औषधि उपलब्ध कराई थी। हालांकि उस समय ट्रंप ने भारत को चेतावनी भी दी थी कि यदि भारत यह औषधि उपलब्ध नहीं कराएगा तो हम भी उसका जवाब देंगे। औषधि प्राप्त होने के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की बढ़-चढ़कर प्रशंसा की थी। राष्ट्रपति ट्रंप इसी औषधि के प्रतिदान स्वरूप भारत को चिकित्सा उपहार के रूप में वेंटिलेटर दे रहे हैं। कोरोना वायरस से नये संकट पैदा हो रहे हैं तो आगे बढ़ने के नये द्वार भी खोल रहे हैं। इस महामारी ने यह बता दिया है कि उग्र राष्ट्रवाद के इस दौर में दुनिया के तमाम देश एक-दूसरे पर निर्भर हुए बिना न स्वयं को बचा सकते हैं और न आगे बढ़ सकते हैं।
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