बतंगड़ बेतुक : एक घूंट गरीबों के नाम पर
इधर झल्लन को उठने में थोड़ी देर क्या हो गयी उधर ठेके पर लगी लंबी लाइन पहले से भी ज्यादा लंबी हो गयी।
![]() बतंगड़ बेतुक : एक घूंट गरीबों के नाम पर |
ठेका बंद होने का वक्त नजदीक आ रहा था और जिनकी तलब गहरी थी उन्हें अपना नंबर दूर तक नजर नहीं आ रहा था। फिर न जाने क्या हुआ कि देखते-ही-देखते सोशल डिस्टेंसिंग हवा हो गयी और दारूबाजों की बेचैनी फूट पड़ी और धकियाती-मुकियाती भीड़ काउंटर पर टूट पड़ी। पुलिस तुरंत हरकत में आयी, पहले उसने दारू की दुकान बंद करायी, फिर अंधाधुंध लाठी घुमायी। जिसको पड़ी वह तो भागा ही जिसको नहीं पड़ी वह भी भाग खड़ा हुआ और भागने वालों में झल्लन भी जा शामिल हुआ। वह हारा-थका सा पार्क में चला आया और उस समय उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा जब उसने अपने कल वाले यार को बोतल हवा में लहराते हुए पाया। झल्लन नजदीक आया तो उसका दारूयार बोला :
आ बैठ ए दोस्त, बमुकिल ये बोतल कबाड़ लाया हूं
तुझे पिलाने की खातिर यहां छिपते-छिपाते आया हूं।
झल्लन उसे बांहों में भरते हुए बोला :
नाउम्मीदी में जो उम्मीद का चिराग जला देता है
दोस्त वही है जो बुरे वक्त में दारू पिला देता है।
दारूयार ने पहले खुद चढ़ा ली फिर बोतल झल्लन की ओर बढ़ा दी, और बोला, ‘राम जाने कब तक ये लॉकडाउन चलेगा, कब तक रिंदों का बुरा हाल रहेगा।’ झल्लन बोला, ‘भाई, रिंद तो रिंद हैं कहीं न कहीं से दारू कबाड़ लाएंगे, इस ठेके से नहीं मिलेगी तो उस ठेके से मार लाएंगे, पर उनकी सोच जिनके पास न रोजगार है, न पैसे हैं, न रोटी है, इन बेचारों की तो किस्मत ही खोटी है। जो जहर उसे रोजी-रोटी दे रहा था वही उसे बाहर ठेल रहा है, बुरे दिनों की ओर धकेल रहा है। अब देख, पेट में भूख लिये, बीवी-बच्चों को संग साथ लिये, देह पर मौसम की मार लिये ये लोग नंगे सर, नंगे पांव खरामा-खरामा अपने वतन-गांव की ओर जा रहे हैं। कुछ भूख से मर जाएंगे, कुछ बीमारी से मर जाएंगे और कुछ रेल से कटकर निपट जाएंगे। उधर कोरोना मार रहा है इधर भूख मार रही है, इन बेचारों की तो जैसे जिंदगी ही हार रही है।’ दारूयार बोला, ‘ऐसे वक्त में इनके पक्ष में कुछ तो कहना चाहिए, कुछ नहीं तो एक घूंट इनके नाम पर पीना चाहिए और पीकर बहकना हो तो इनका नाम लेकर बहकना चाहिए। और वैसे भी :
जहां में हर चीज हर किसी को नहीं मिलती
किसी को दारू किसी को रोटी नहीं मिलती।
झल्लन बोला, ‘जिन्हें रोटी नहीं मिलती हमें उनके बारे में भी तो सोचना चाहिए, कुछ उनके लिए भी तो होना चाहिए।’ दारूयार बोला, ‘अगर ऐसी बात है तो बोतल हाथ में उठा लेते हैं और अगले दो घूंट गरीबों के नाम पर लगा लेते हैं।’ झल्लन बोला, ‘देखो मियां, हमारी जिंदगी तो चल रही है और हम चाहे गरीबों के नाम पर पियें या अपने नाम पर, मगर पी रहे हैं। पर यह सोच कि इस मुल्क के गरीब किन हालात में जी रहे हैं।’ दारूयार ने एक घूंट और गटका फिर अपना दार्शनिक विचार सामने ला पटका, ‘देखो मियां, सरकार की सांसत को समझो, सरकार पर बड़ी मुसीबत घिर आयी है, उसके लिए तो इधर कुआं है तो उधर खाई है। अगर वह कोरोना से लड़ती है तो गरीब मारा जाएगा और अगर गरीबों की सुनती है तो देशभर में पसर जाएगा।’ झल्लन बोला, ‘अच्छी सरकार वो होती है जो लॉकडाउन भी चलने दे और गरीबों के पेट में रोटी भी पड़ने दे। यानी कुछ ऐसा जुगाड़ लगाए कि कोरोना तो मिटे साथ में गरीबी भी मिट जाये।’ दारूयार ने बोतल झल्लन की ओर बढ़ायी और अपनी नजर आसमान की ओर उठायी :
गरीबी न मिटेगी न किसी को गरीबी मिटानी है
गरीबी महज एक चादर है जो सबको बिछानी है
गरीबी सिर्फ हुंडी है यहां सियासत की मंडी में
जो इसको भी भुनानी है जो उसको भी भुनानी है।
समझे झल्लन भाई, हमने इस जनतंत्र में जो सिस्टम ईजाद किया है वो गरीबी मिटाने के लिए नहीं किया है, गरीबी के नाम पर सरकार बनाने और सरकार गिराने के लिए किया है।’ झल्लन मायूसी से बोला :
गरीबी की बात करते हैं गरीबों की बात करते हैं
जो जड़ में हैं गरीबी की वे गरीबों की बात करते हैं
न इनकी जुबां पर कोई बंदिश न कोई शर्म आंखों में
ये कैसे कमाल लोग हैं जो गरीबों की बात करते हैं।
दारूयार ने झल्लन की ओर देखा, फिर बोला :
इक सियासी रस्म है गरीबी की बात करना
न इसको कुछ करना है न ही उसको कुछ करना।
कहकर दारूयार ने एक घूंट और लगा लिया और बोतल वाला हाथ झल्लन की ओर बढ़ा दिया और बोला, ‘झल्लन भाई, अब एक-एक घूंट और लगाया जाये, थोड़ा सुरूर में आया जाये, थोड़ा संजीदा हुआ जाये, फिर कुरूना और गरीबी पर जी खोलकर बतियाया जाये।’
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