लोकल से ग्लोबल : पूंजीवाद, समाजवाद और धम्मा

Last Updated 18 May 2020 01:11:04 AM IST

कोरोना महामारी ने पूरी तरह से पूंजीवाद और समाजवादी विश्व व्यवस्था के राजनीतिक और आर्थिक तंत्र को हाशिये पर लेकर खड़ा कर दिया है।


लोकल से ग्लोबल : पूंजीवाद, समाजवाद और धम्मा

अमेरिका और चीन के बीच ट्रेड संघर्ष विकट बनता जा रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति ने चीन के साथ पूरी तरह से संबंध विच्छेद की धमकी दी है। क्या कारण है कि अपराजित पूंजीवाद चारों खाने चित्त हो गया?
चीन का राजनीतिक ढांचा साम्यवादी है, लेकिन अर्थतंत्र बखूबी पूंजीवादी बन चुका है। ऐसे में कौन सी सोच दुनिया को बचा सकती है? प्रधानमंत्री मोदी द्वारा आनन-फानन में 20 लाख करोड़ की भारत उत्थान अभियान की शुरुआत की गई, जिसमें एक विचार लोकल से ग्लोबल बनाने की कही गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रीय  सह-प्रचार प्रमुख सुनील अम्बेकर कहते भी हैं कि धम्मा में प्राकृतिक ऑर्डर के अनुपालन के साथ ही आर्थिक व्यवस्था चलती है। धम्मा में प्राकृतिक श्रृंखला को संचालित करने कि अभूतपूर्व क्षमता है, यह आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था को एक ढांचे में बांधकर प्रकृति के नियमों का अनुसरण करता है। प्रश्न गंभीर यह कि क्या भारत इतने सीमित साधन में अपनी उलटी चाल को सीधी कर लेगा? अर्थात हम अभी तक ग्लोबल से लोकल की भागदौड़ में शामिल थे, सब कुछ लुटा कर एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था के अंग बन गए, जिसमें यह तो दिखाई दे रहा था कि आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत में मध्यम वर्ग की तादाद तेजी से बढ़ रही थी, लोग धनी हो रहे थे, लेकिन इस दौर में हम यह देखना भूल गए कि हमारी पहचान और योग्यता निरंतर धूमिल होती जा रही थी। कुटीर और लघु उद्योग दम तोड़ रहे थे, भारतीय कंपनिया विदेशी कंपनियों के हाथों बिक रही थी।

फिर अचानक कोरोना ने विश्व को रोक लिया जैसे बुद्ध भगवान ने अंगुलीमाल डाकू को यह कहा ‘कब तक इसी तरह दौड़ते रहोगे, लोगों की उंगलियों को काटकर माला बनाते रहोगे, डाकू थम गया’। क्या विश्व व्यवस्था भूल जाएगी अमेरिकी पापों को जो उसने लैटिन अमेरिका से लेकर इराक और अफगानिस्तान में किया है? क्या दुनिया माफ कर देगी चीन की निरकुंशता जो उसने इनर मंगोलिया, सिक्यांग और तिब्बत में किया है? जिस तरीके से आज भी चीन दुनिया को अपनी मुट्ठी में करना चाहता है क्या वह बंद हो जाएगा? ये तमाम तरह के प्रश्न भारत के सामने हैं। भारत का बुनियादी ढांचा धम्मा पर आधारित था, जिसमें प्राकृतिक श्रृंखला से जुटकर आर्थिक ढांचे का निर्माण करना था। गांधी ने यही सोचा था, लेकिन हुआ इसका उल्टा। पिछले 70 वर्षो में भारत ग्लोबल से लोकल की लकीर पर रेंगता रहा। हमारे देश में बनने वाली चीजें ग्लोबल मार्केट की प्रतिस्पर्धा में दम तोड़ती गई और हम समय की  धारा  से कब लोकल से ग्लोबल बन गए पता ही नहीं चला। कोको कोला और पेप्सी भारत के गांव की दुकानों में बिकने लगी। भागलपुर की रेशमी साड़ी जो माचिस की डिबिया में समा जाती थी, पश्मीना का शॉल और कानपुर का जूता समय के साथ दम तोड़ता गया। बहुत कुछ अंग्रेजों की मेहरबानियों से। खत्म हुआ तो बहुत नेहरू जी के पश्चिम प्रेम ने लोकल को हमेशा-हमेशा के लिए ताला लगा दिया। आज यह वैश्विक महामारी दुनिया को अपने अस्तित्व का बोध करा रही है। भारत के लिए भी यह एक सीख है। 1999 में इम्माउनेल वलस्तीन ने एक पुस्तक की रचना की थी जिसका शीषर्क ही था, ‘दुनिया वैसी नहीं रहेगी जैसी दिखती है।’ उनके शीषर्क के पीछे आणविक हथियारों का भय था, ठीक एक साल पहले भारत और पाकिस्तान ने आणविक परीक्षण किया था। उनकी बात सही निकली, हां कारण भले कुछ और बना।
सभी इस बात को मानते हैं कि दुनिया अब पहले जैसी नहीं होगी। न ही आर्थिक व्यवस्था और न ही सामाजिक संबंध। और इन दोनों के साथ पूरी दुनिया की राजनीति और कूटनीति भी बदल जाएगी। प्रधानमंत्री की सोच में कोई बुराई नहीं है, लेकिन प्रश्न उठता है कि बड़े औद्योगिक घराने ऐसा होने देंगे? राजनीति और व्यापारिक घरानों में एक-दूसरे के बीच की लेनदेन क्या इसे सफल होने देंगी? गांधी का ग्राम स्वराज भी धम्मा पर आधारित था, किसी भी चीज के लिए शहरों के मोहताज नहीं होगा। शिक्षा स्वास्थ्य और रोजगार तीनों ही बातें गांव के इर्द-गिर्द स्थापित होगी, इसलिए पलायन की नौबत ही नहीं आएगी, लेकिन गांधी की बातें किताबों के पन्नों तक सिमट कर रह गई। बुद्ध की तरह कोरोना का दो टूक संदेश दुनिया समझकर अंगुलीमाल डाकू से परोपकारी संत में अपने आप को बदल लेगी या अंधी गलियों में भटकती दिखेगी? यह तो समय ही बताएगा।

प्रो. सतीश कुमार


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