कोविड-19 : हौसले को सलाम
जब जब हमने अपनी वैदिक परम्पराओं और ज्ञान की उपेक्षा करके पश्चिम का अंधा अनुकरण किया है। तब-तब हम लुटे, पिटे और बर्बाद हुए हैं।
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आज कोरोना के आतंक से पूरी दुनिया सहमी हुई है। लेकिन भारत में हर कोने से ऐसी खबरें आ रही हैं कि लोगों ने पारम्परिक अनुभव और ज्ञान का सहारा लेकर कोरोना से जंग जीती है। ऐसे ही एक अनुभव की चर्चा इन दिनों सोशल मीडिया में खूब वायरल हो रही है।
62 वर्षीय वीरेंद्र के. बंसल दिल्ली के मॉडल टाउन में रहते हैं। देश में लॉकडाउन की घोषणा के बाद इनके पूरे परिवार ने इसका ईमानदारी से पालन किया। घर से कोई भी व्यक्ति सिवाय रोजमर्रा की चीजों के जैसे दूध, सब्जी, दाल, चावल इत्यादि के दो दिनों में एक बार के अलावा घर से बाहर नहीं गया। और इन सब चीजों को घर में लाने के बाद साफ-सफाई के सभी नियमों का पालन किया। वे खुद विशेष तौर से एक बार भी घर के गेट से बाहर नहीं निकले। परंतु पता नहीं कहां से इनको 26 अप्रैल 2020 को बुखार हो गया। शुरू में दो तीन दिन बुखार हल्का था, उन्होंने अपने पारिवारिक डॉक्टर के कहने पर बुखार के सभी रूटीन टेस्ट भी कराये, पर वो सब निगेटिव निकले। इसके बाद डॉक्टर से पुन: संपर्क करने पर उन्हें कोरोना टेस्ट के लिए बोला गया। बंसल जी इस बात को मानने को तैयार नहीं थे, क्योंकि उन्होंने लॉकडाउन का सही से पालन किया था। फिर भी 4 मई 2020 को दिल्ली की एक नामी लैब से टेस्ट कराने पर 6 मई को वह कोरोना पॉजिटिव निकले। बंसल ने तुरंत ही अपने आप को एक अलग कमरे में क्वारंटीन कर सारे घर से अलग कर लिया। इनके छोटे भाई (57 वषर्) व माताजी (89 वषर्) का टेस्ट भी कोरोना पॉजिटिव निकला, और वे दोनों भी क्वारंटीन हो गए।
गौरतलब है कि, सरकारी संस्थाओं से लगातार संपर्क करने पर व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ट्वीट करने पर दिल्ली के हिन्दू राव अस्पताल से एक डाक्टर 9 मई 2020 को अपनी टीम के साथ इन्हें देखने आए। और यह कह गए कि पूरा परिवार पॉजिटिव निकलेगा तथा सब के टेस्ट 11 मई 2020 को करा दिए जाएंगे। पर अफसोस की बात है कि 12 मई 2020 तक कुछ नहीं हुआ। पूरे बंसल परिवार ने कोरोना महामारी को एकजुट होकर 26 अप्रैल 2020 से ही इसे एक चैलेंज के रूप में लिया था। बंसल परिवार का सुबह से ही दिन भर का कार्यक्रम शुरू हो जाता। दिन में दो बार गर्म पानी के नमक डाल कर गरारे, दिन में 4 बार घर पर बना हुआ काढ़ा, दो बार आंवले का गर्म पानी, तीन बार स्टीम, दो बार एक चम्मच हल्दी का दूध, नींबू की गर्म शकिंजी, दो समय नाश्ता और दो बार हल्का खाना। जब भी बुखार 100 से ऊपर गया, तो वे डोलो 650 की एक गोली ले लेते और कई बार जब बुखार गोली लेने पर भी 102 से नीचे नहीं उतरा तो सिर पर ठंडे पानी की पट्टी बुखार हल्का होने तक रखते। इसके साथ ही दिन में दो बार प्राणायाम भी करते। बंसल जी का कहना है कि ईश्वर की कृपा से इनका बुखार पिछले कई दिनों से नार्मल चल रहा है, बिना किसी गोली के। इनके परिवार में 11 सदस्य हैं, जिसमें दो छोटी बच्ची तीन व चार साल की भी हैं। बंसल ने सभी से करबद्ध प्रार्थना की है कि कोरोना से घबराएं नहीं इसे एक वायरल बुखार के तौर पर लें।
उनकी सलाह है कि जहां तक सम्भव हो सके अपने आप को कोरोना से बचाइए, लेकिन यदि हो जाए तो हिम्मत से इसका सामना करें और इसको हराएं। आज जिन सवालों और चुनौतियों को लेकर पूरी दुनिया परेशान हैं, उनको और उनके कुछ समाधानों को मैंने 1988 में, शिकागो (अमेरिका) में एक वैश्विक सम्मेलन में बताया था। जिस पर तब मुझे वहां के टीवी पर दिखाया गया और अखबारों में छापा गया था। पिछले हफ्ते अचानक उस सम्मेलन पर आधारित (1989 में अमेरिका में छपी) ये पुस्तक पुरानी किताबों में रखी हाथ लगी, जिसमें कई जगह मेरे विचारों को उद्धृत किया गया है। वहां मेरा जोर पर्यावरण संतुलन, आध्यात्मिक जीवन और भौतिकता की आधुनिक दौड़ पर लगाम कसने पर था। मैंने उनसे कहा था आप अंधे हैं और हम लंगड़े। दोनों मिलकर अगर सफर तय करें तो मानव जाति का भला होगा। आप हमें पिछड़ा या विकासशील कहना बंद करो। हमारे पारम्परिक ज्ञान और जीवनशैली से रहना सीखो और हमसे अपना तकनीकी ज्ञान साझा करो। जैसे थर्माकोल की जगह पत्तल और डिब्बे के दूध की जगह मां का दूध, टॉयलेट पेपर की जगह पानी, रासायनिक खाद की जगह गोबर की खाद, ताकि पर्यावरण का विनाश न हो। मेरे बोलते ही सम्मेलन में सन्नाटा छा गया। क्योंकि मैंने अपने ग्रामीण अनुभवजन्य विचारों से उनकी उपदेशात्मक शैली में चल रहे भाषणों पर प्रश्न खड़े कर दिए थे।
सम्मेलन में कुल 35 लोग थे, जिनमें कई राष्ट्रों के प्रमुख लोग, विश्व बैंक के अध्यक्ष रहे और वियतनाम युद्ध के जिम्मेदार अमरीकी विदेश सचिव (मंत्री) रहे मैकनमारा और तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बुश की सचिव, दिवंगत राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की भतीजी और बाद में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के कार्यकाल में राज्यपाल रहीं जैसी बड़ी-बड़ी वैश्विक हस्तियां और नईजीरिया, अज्रेटीना और भारत से हम तीन युवा पत्रकार थे। मेरी फटकार का ये असर हुआ कि 1988 के बाद मुझे गोरों ने कभी भाषण देने अमेरिका नहीं बुलाया।
कोरोना लॉकडाउन के दौरान वृंदावन के अपने पैतृक निवास पर दिन में पुराने बक्से खोल कर देख रहा हूं तो 50 साल पुराने दस्तावेज और ग्रंथ सामने आ रहे हैं। इसी क्रम में पिछले हफ्ते जब एक बक्सा खोला तो ये ग्रंथ हाथ आया, सोचा आपसे साझा करूं। साथ ही यह भी कहना चाहता हूं कि गांधी जी के ग्राम स्वराज का ही एक मॉडल है, जो भारत की आम जनता को सुख, स्वास्थ्य, समृद्धि और सुरक्षा प्रदान कर सकता है। पर आजादी के बाद न तो पं. नेहरू ने इस पर ध्यान दिया, न उनके बाद आज तक के प्रधानमंत्रियों ने। आजाद भारत का राजतंत्र, पश्चिम की चकाचौंध के पीछे दौड़-दौड़ कर विदेश जाता रहा और देश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और लुटेरों के हाथ लुटता रहा। देर से ही सही मोदी जी ने भी आज आत्मनिर्भरता के महत्त्व को समझा है। पर यह तभी सफल हो पाएगा जब हमारे राजनेता, अफसर, वैज्ञानिक और हम सब तथाकथित पढ़े-लिखे लोग पश्चिम का मोह त्याग कर अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे और अपनी सोच और जीवनशैली को वाकई स्थानीय संसाधनों पर आधारित आत्मनिर्भर बनाएंगे।
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