मुद्दा : राजस्व में कोरोना का जहर
जिन जिन लोगों ने अर्थशास्त्र पढ़ा है, वे मांग के नियम के बारे में जानते होंगे। इसके मुताबिक अनिवार्य वस्तुओं की कीमतें घटने या बढ़ने से उनकी मांग में कोई बदलाव नहीं आता है, जैसे कि आटा।
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अगर इसकी कीमत बढ़ जाती है तो हम रोटी खाना कम नहीं कर देते हैं। इसी प्रकार अगर इसकी कीमत घट जाती है तो हम ज्यादा रोटी खाना शुरू नहीं करते हैं। इसलिए सरकार अनिवार्य वस्तुओं पर कम-से-कम कर लगाती है। इसकी बड़ी वजह यह है कि अनिवार्य वस्तुओं को अमीर-गरीब यानी हर वर्ग का व्यक्ति इस्तेमाल करता है। इसलिए इन पर इतना ही कर लगाया जाता है, जिससे ये किसी की पहुंच से बाहर न हों। दूसरी तरफ विलासिता की वस्तुओं को अमीरों की वस्तुएं माना जाता है इसलिए इन पर अनिवार्य वस्तुओं की तुलना में ज्यादा कर लगाया जाता है।
बड़ी-बड़ी विशेष सुविधाओं वाली मोटरगाड़ियां विलासिता की श्रेणी में आती हैं। इनकी कीमतों में एक बड़ा भाग करों का होता है। अर्थशास्त्र में यह भी बताया गया है कि जो वस्तुएं लोगों की सेहत के लिए नुकसानदेह हैं, उनका उपभोग हतोत्साहित करने के लिए उन पर ज्यादा-से-ज्यादा कर लगाया जा सकता है। इन वस्तुओं में पान मसाला, गुटखा, बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू, शराब आदि शामिल हैं। इसलिए सरकार इन पर भारी मात्रा में कर लगाती है। इसके बावजूद देखने में ये आया है कि इनकी मांग प्रभावित नहीं होती क्योंकि इनका उपभोग करने वाले व्यक्तियों को इनकी लत लग चुकी होती है और अपनी इस लत को पूरा करने के लिए ये लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं। अपनी इन बुरी आदतों की वजह से ऐसे लोग और उनका परिवार जीवन भर कर्ज में डूबे रहते हैं। इतना ही नहीं शराब की लत घरेलू हिंसा का भी एक बड़ा कारण है। अब ऐसे में सवाल ये उठता है कि जब तंबाकू, तंबाकू उत्पाद व शराब आदि सेहत के लिए नुकसानदेह हैं तो सरकार इनके उत्पादन और बिक्री को क्यों स्वीकृति देती है? इसके समर्थन में ये तर्क दिया जाता है कि जिन लोगों को इनकी लत लग चुकी है वे चोरी-छिपे या गैरकानूनी तरीके से अपनी तलब पूरी करेंगे। ऐसे में अवैध तरीके से बनने वाले ये उत्पाद खासतौर पर शराब उनके लिए जानलेवा साबित हो सकती है। इसलिए यदा-कदा इस तरह की खबरें भी आती रहती हैं कि जहरीली शराब पीने से इतने लोगों की मौत हो गई। इसलिए सरकार इनके उत्पादन को अनुमति देती है ताकि सही मानकों के अनुसार इनका उत्पादन हो और ये जानलेवा न हों। इसके साथ ही इनसे मिलने वाला राजस्व राज्य सरकारों के लिए किसी कुबेर के खजाने से कम नहीं है। मौजूदा वित्तीय वर्ष में शराब पर उत्पाद शुल्क से उत्तर प्रदेश को 25100 करोड़, कर्नाटक को 19750 करोड़, महाराष्ट्र को 15344 करोड़, पश्चिम बंगाल को 10554 करोड़ और तेलंगाना को 10314 करोड़ का राजस्व प्राप्त हुआ है। पिछले दिनों यूपी में एक ही दिन में 100 करोड़ से ज्यादा की शराब बिकी और महाराष्ट्र ने तीन दिन में शराब की बिक्री से 100 करोड़ का राजस्व हासिल किया। हाल ही में डूबती अर्थव्यवस्था का हवाला देते हुए दिल्ली ने शराब की कीमतों में 70 फीसद, आंध्र प्रदेश ने 75 फीसद, प. बंगाल ने 30 फीसद, कर्नाटक ने 17 से 25 फीसद, और राजस्थान ने 10 फीसद की वृद्धि की है। यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि जब बिहार और गुजरात में शराबबंदी लागू है तो ये दोनों राज्य अपनी अर्थव्यवस्था कैसे संभाले हुए हैं? यहां न तो शराब का उत्पादन हो रहा है और न ही बिक्री। यहां चिंताजनक बात यह है कि राज्य सरकारें कुबेर का यह खजाना हासिल करने के लिए लोगों को मौत के मुंह की तरफ धकेल रही हैं।
शराब की कीमतों में इतनी बड़ी वृद्धि के बावजूद लोग शराब खरीदने के लिए टूट पड़े हैं। कोरोना से बचने के लिए किसी कायदे कानून का पालन नहीं हो रहा है और इनका पालन कराना भी चुनौती बन गया है। सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। इससे तो कोरोना विस्फोट की आशंका और बढ़ गई है। तब्लीगी जमात पर जहां देश में कोरोना की आग लगाने का कलंक लगा है, अगर यही हालात रहे तो शराब की दुकानें खुलवाने वाली राज्य सरकारों और शराबियों पर इस आग को भड़काने का कलंक लगेगा। इस मामले में कुछ राज्य सरकारों ने समझदारी का भी परिचय दिया है। शराब के ठेकों पर भीड़ न लगे और राजस्व भी मिल जाए, इसके लिए छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने शराब की होम डिलीवरी शुरू की है। इन राज्यों में होम डिलीवरी के लिए शुल्क भी वसूला जा रहा है। शराब की दुकानों पर जुटी भीड़ को काबू में न आता देख सुप्रीम कोर्ट को भी राज्यों से कहना पड़ा है कि वे शराब की होम डिलीवरी पर विचार करें।
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