प्रवासी मजदूर : बंधुआ बनाने का कुचक्र
देशव्यापी लॉक-डाउन के पहले विस्तार के आखिर तक आते-आते, जब यह साफ हो गया कि 40 दिन के ‘लॉक-डाउन’ से कोरोना संक्रमण रुकना तो दूर, उसका जोर थमने तक नहीं जा रहा था और कुछ ढील के साथ लॉक-डाउन को और आगे बढ़ाना जरूरी होगा, तब सरकार को किसी भी तरह से अपने गांव/घर जाने के लिए छटपटा रहे, प्रवासी मजदूरों का ध्यान आया।
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लॉक-डाउन की शुरुआत से लेकर, उसके पहले विस्तार तक का अनुभव बता रहा था कि लॉक-डाउन के एक और विस्तार में, इन मजदूरों को अपने घरों से दूर रोककर रखना बहुत मुश्किल होगा।
लॉक-डाउन के पांच हफ्ते से ज्यादा के दौरान लगातार इसकी हैरान करने वाली और कई बार दिल-दहला देने वाली खबरें आती रही थीं कि देश भर में दसियों हजार की संख्या में प्रवासी मजदूर, अपनी सारी गृहस्थी सिर पर उठाए, अपने घरों के लिए सैकड़ों किलोमीटर के सफर पर, अक्सर पैदल ही और खुशनसीब हुए तो साइकिल, साइकिल ठेला वगैरह से ही या फिर टैंकरों, ट्रकों यहां तक कि मिक्सरों तक में छिप-छिपाकर, निकल पड़े थे। इनमें कामयाबी के साथ घर पहुंच जाने वालों की खबरें उतनी नहीं थीं, जितनी पुलिस द्वारा पकड़कर बीच रास्ते में क्वारंटीन के नाम पर सुविधाहीन अनौपचारिक जेलों में डाले जाने वालों की और कई मामलों में तो भूख, प्यास, थकान से रास्ते में ही मर-खप जाने वालों की थी। फिर भी यह सिलसिला लगातार जारी रहा था और लगभग सभी महानगरों से ही नहीं मामूली शहरों से भी पलायन जारी था।
मजदूरों का कहना था कि ‘जब मरना ही है तो परदेस में काम के बिना भूखे-प्यासे मरने से अच्छा है, अपने घर जाकर मरें’ और यह भी कि ‘कोरोना तो बाद में मारेगा, लॉक-डाउन में भूख से पहले ही मर जाएंगे।’ और मुंबई में बांद्रा से लेकर, सूरत तक में बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों के ‘घर जाने’ की एकमात्र मांग के साथ सड़कों पर उतरने ने, इस मांग को और अनदेखा करना मुश्किल कर दिया था। लॉक-डाउन के ताजातरीन विस्तार की घोषणा की पूर्व-संध्या में बाकायदा एलान कर दिया गया कि लॉक-डाउन के चलते दूसरे राज्यों में फंसे मजदूरों, तीर्थयात्रियों, छात्रों तथा पर्यटकों आदि को निकाला जाएगा। चूंकि मामला मजदूरों का था, जिनकी संख्या लाखों में होने वाली थी, रेलवे द्वारा श्रमिक ट्रेनों के नाम से विशेष ट्रेनें चलाने का भी एलान किया गया। बहरहाल, रेलवे और उसका संचालन करने वाली केंद्र सरकार, दोनों ही शुरू से इस संबंध में बिल्कुल स्पष्ट थे कि इन मजदूरों के इस सफर का पैसा वसूल किया जाएगा। 1 मई को जारी रेलवे की विज्ञप्ति में यह स्पष्ट भी किया गया था कि यह किराया इस प्रकार होगा-मेल/एक्सप्रेस का स्लीपर का किराया Rs 30, सुपर फास्ट चार्ज Rs 20 अतिरिक्त शुल्क। यानी हरेक यात्री से पूरे Rs 50 अतिरिक्त वसूल किए जाने थे। इसके साथ ही 1 तथा 2 मई के अपने दिशा-निर्देशों में रेलवे ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि वह स्टेशनों पर टिकट मुहैया नहीं कराएगी। इन विशेष ट्रेनों के प्वाइंट टू प्वाइंट टिकट, रेलवे राज्यों को ही मुहैया कराएंगे और राज्य ही संबंधित यात्रियों से टिकट का पैसा जमा इकट्ठा करेंगे और रेलवे को देंगे।
ऐसा भी नहीं है कि रेलवे तथा उसे चलाने वाली सरकार तक इसकी बढ़ती आवाज पहुंची ही नहीं हो कि ये मजदूर, जो करीब चालीस दिनों से रोजी-रोटी के साधनों से कटे हुए थे, इस यात्रा के लिए पैसा कहां से लाएंगे? एक अंग्रेजी दैनिक की 3 मई की एक रिपोर्ट में रेलवे बोर्ड के चेयरमैन का इस आशय का बयान मौजूद है कि ‘सरकार ने सोच-समझ कर यह तय किया था कि इन ट्रेनों को मुफ्त में नहीं चलाया जाए, ताकि उन्हें ही ले जाया जाए जो वाकई जाने के इच्छुक थे।’ इस किराए के बोझ को बहुत ज्यादा पाकर, कुछ प्रवासी मजदूरों के पैदल ही यात्रा करने का तय करने, कई जगहों पर बहुत से मजदूरों के इसी वजह से अपने राज्यों में जा रही ट्रेनों में नहीं चढ़ पाने तथा बहुतों के घर से पैसे मंगवाकर जैसे-तैसे टिकट का इंतजाम करने की बढ़ती खबरों की पृष्ठभूमि में, एक ओर कांग्रेस पार्टी ने खुद सभी जरूरतमंद मजदूरों की ट्रेन टिकट के पैसे देने का एलान किया तथा राजद ने बिहार में मजदूरों की 50 ट्रेनें लाने का पैसा देने का एलान किया। दूसरी ओर महाराष्ट्र सरकार ने केंद्र से यह भार उठाने की मांग की और खुद सुब्रमण्यम स्वामी जैसे भाजपा नेताओं ने इस पर सवाल उठाना शुरू कर दिया कि ‘पीएम केयर्स’ के नाम से जो कोष ऐसी ही आपदा में सहायता देने के नाम पर, सरकार के सारे साधन लगाकर जमा किया जा रहा है, उसमें से यह खर्चा क्यों नहीं किया जा सकता है? तब भाजपा और सरकार की नींद टूटी। लेकिन प्रवासी मजदूरों को इस बोझ से मुक्त करने के बजाए, सरकार और सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ता, यह साबित करने में ही जुट गए कि रेलवे की ओर से तो मजदूरों की यह यात्रा एक प्रकार से मुफ्त ही थी।
राज्यों से सिर्फ 15 फीसद खर्चा उठाने की अपेक्षा की जा रही थी और यह पैसा भी रेलवे इन मजदूरों को खाना और पानी आदि देने पर ही खर्च कर रही थी। वास्तव में यह तक बताया गया कि रेलवे ने बड़ी उदारता से तय किया था कि ये यात्री जितना पानी मांगें, उन्हें दिया जाए; एक बोतल की कोई पाबंदी नहीं रखी जाए! प्रवक्ताओं ने यह साबित करने में पूरा जोर लगा दिया कि सामान्य से Rs 50 अतिरिक्त किराया, वास्तव में रेलवे द्वारा 85 फीसद माफी दिए जाने के बाद का नाममात्र का किराया है! पर कोरोना से युद्ध के नाम पर खासतौर पर प्रवासी मजदूरों के साथ सरकार के सौतेले बर्ताव का अंत इतने पर भी नहीं होने वाला है। प्रवासी मजदूरों को ट्रेनों से घर वापसी की उम्मीद बंधाने के बाद, अपने दिशा-निर्देशों के स्पष्टीकरण मुहैया कराने के नाम पर सरकार अब, इस वादे से भी पीछा छुड़ाने की कोशिश कर रही है।
केंद्रीय गृह सचिव ने, 3 मई को राज्यों के मुख्य सचिवों को पत्र लिखकर, यह स्पष्ट किया कि ट्रेन, बस आदि से परिवहन की सुविधा सिर्फ ऐसे मुसीबत के मारों के लिए है, ‘जो लॉक-डाउन से पहले अपनी काम करने की जगहों से चलना शुरू कर, बीच में फंस गए थे।’ इस बीच कर्नाटक सरकार ने राज्य से चलने वाली श्रमिक ट्रेनों को इस दलील से रद्द ही कर दिया कि राज्य में इन मजदूरों की जरूरत है। यह तब है जबकि सरकार न इन मजदूरों की रोजी-रोटी की भरपाई करने के लिए कोई बोझ उठाने के लिए तैयार है और न इस सचाई को समझने के लिए तैयार है कि इन गरीबों का शहरों में बिना सुविधाओं की तंग जगहों में कैद कर रखा जाना, कितना ज्यादा नुकसानदेह है। लगता है कि महामारी तो बहाना है, मकसद मजदूरों को बंधुआ बनाना है।
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