मुद्दा : प्रकृति और गरीबी के प्रति लापरवाही
दुनिया में बीते 100 सालो में स्पेनिश फ्लू, एशियन फ्लू, हांगकांग फ्लू, एचआईवी एड्स, सार्स फ्लू, स्वाइन फ्लू, इबोला, मर्स और अब कोविड-19 जैसी महामारियों के कारण लगभग 7 करोड़ से अधिक लोग मरे हैं।
![]() मुद्दा : प्रकृति और गरीबी के प्रति लापरवाही |
प्राकृतिक आपदा से भी करोड़ों लोगों की जान-माल को खतरा हुआ है। वैसे प्रत्येक शताब्दी में कोई-न-कोई रोग महामारी का कारण बना है, जिसमें मौत लोगों के सामने खड़ी हो जाती है, लेकिन 2002-2020 के बीच जल्दी-जल्दी आई कई महामारियां चिंता का कारण बन रहीं है।
देखा जाय तो जलवायु परिवर्तन के संकेत पिछले 50-60 वर्षो में सबसे अधिक इन्हीं रूपों में सामने आया है। लम्बी अवधि तक की बीमारी, बारिश, ठंड, धूप, सूखा, आगजानी आदि के प्रभाव से महामारियां फैल रही है। इसके कारण भूखे, नंगे, गरीब, निसहाय, मजदूर किसान बर्बाद हो रहे हैं। पता नहीं है कि घर से दूर नौकरी के लिए गए लोगों को कब महामारी के समय स्वयं अथवा घर वालों को जिंदा देख पाएंगे कि नहीं ऐसी स्थिति बन रही है। कोरोना वायरस के संक्रमण का प्रभाव यही बताता है कि जिन चौड़ी सड़कों पर गाड़ियों की तेज रफ्तार से मुसाफिर बच कर चलते हैं, वहां अब सन्नाटा पसरा है। और लोग बेबस होकर भोजन और निवास की चिन्ता किए बिना सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर घर लौट रहे हैं। इस महामारी के सामने मनुष्य की बनाई सभी सुविधाएं बौनी पड़ रही हैं। लगभग 180 देशों में कोरोना वायरस दस्तक दे चुका है, और 22 से अधिक देशों में महामारी का कारण बन गया है। इसे देखकर संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण प्रमुख इंगर ऐंडरसन मानती हैं कि यह पर्यावरण संकट के रूप में धरती हमें संकेत दे रही हैं।
जंगलों का लगातार कटान होंने से हम जानवरों और पौधों के इतने करीब हैं कि अब प्रकृति भी हमारा ध्यान नहीं रख सकेगी। आधुनिक विकास की सच्चाई यही है कि दुनिया के मजदूरों को काम नहीं मिल पा रहा है। स्वास्थ्य सेवाएं सब जगह नहीं पहुंच पा रही है। पानी इतना कम हो गया कि 3 अरब लोगों के पास हाथ धोने के लिए पानी नहीं है। बचपन भुखमरी के अगोश में है। किसानों की हालात वैीकरण और निजीकरण के प्रभाव से बेहतर नहीं हो सकती है। इन्हीं विषयों की ओर सेवर्न सुजुकी नामक 12 वर्षीय बालिका ने 1992 में रियो के पृथ्वी सम्मेलन में राष्ट्राध्यक्षों को कहा था कि मुझे जीने के लिए जरूरी सांस लेते हुए भी डर लगता है; न जाने इस हवा में कौन सा रसायन घुला है। उसने कहा कि आप लोग जो करते हैं, उसे देखकर मैं रात-रात भर रोती हूं। आप बड़े लोग हैं, कहते हैं कि हम बच्चों को प्यार करते हैं, इसलिए मेहरबानी से उस सच्चाई को बोलो जो आप करते हैं। आप और हम ओजोन परत में हो रहे छेद को बंद नहीं करना जानते हैं; जो जीव-जन्तु लुप्त हो गए हैं, उसे अब दोबारा नहीं ला सकते हैं। उन घने और हरे-भरे जंगलों को वापस नहीं लाया जा सकता, जो रेगिस्तान में बदल गए हैं। यह भी सचेत किया था कि युद्व में खर्च होने वाला पैसा अगर गरीबी दूर करने और पर्यावरण की समस्या के समाधान खोजने के लिए इस्तेमाल हो तो पृथ्वी कितना खूबसूरत ठिकाना बन जाएगी। इसी तरह स्वीडन की 16 वर्षीय ग्रेटा थनबर्ग ने भी अभी हाल के अमेरिकी जलवायु सम्मेलन में विश्व के नेताओं को कहा था कि पर्यावरण को बर्बाद करने की आपकी हिम्मत कैसे हुई? उसने कहा कि कार्बन उत्सर्जन और इको सिस्टम (पारिस्थितिकी) पर सिर्फ बातें हो रही हैं।
सभी मुल्क अपने-अपने आर्थिक विकास की मजबूती धरती की कीमत पर चाहते हैं, जिसमें हम सब सामूहिक विनाश की तरफ आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ रहे हैं। इसे रोकने के लिए पिछले 30 वर्षो के वैज्ञानिक ‘शोधों की तरफ देखने की सलाह दी है, जिसको नजरअंदाज करके जलवायु परिवर्तन के कारण धरती का संतुलन गड़बड़ाने लगा है। वर्तमान में कोरोना वाइरस का संक्रमण भी जैव विविधता में हो रहे अनियोजित छेड़छाड़ का परिणाम है। मनुष्य अपने भौतिक सुख के लिए जानवरों और पेड़-पौधों का नुकसान कर रहा है। आधुनिक जीवनशैली में प्रकृति का शोषण इतना अधिक है कि उसमें प्रकृति के पोषण की गुंजाइश ही नहीं बच पा रही है। विभिन्न अध्ययनों से निकलकर आ रहा है कि इसमें अमीर वर्ग अधिक प्रभावी है। इसलिए मौका है कि संसाधनों को बचाने, बनाने व संतुलित दोहन के लिए गरीबों की भी चिंता करें।
| Tweet![]() |