कोरोना संकट : एकजुट अपना साझा घर
कोरोना वायरस सिर्फ स्वास्थ्य केंद्रित संकट नहीं हैं। इस महामारी से हमारे समाज, अर्थतंत्र, लोकतंत्र एवं राजनीति से जुड़े कई सवाल सामने आ खड़े हुए हैं।
![]() कोरोना संकट : एकजुट अपना साझा घर |
एक तरह से इसने हमें आईना दिखा दिया है कि हम किस प्रकार के विसंगत समाज हैं और हमारी शासन-संचालन व्यवस्था कितनी चरमराई हुई है।
हालांकि मानव प्रजाति के इतिहास में कई महामारियां आती रही हैं। प्लेग, हैजा, मलेरिया जैसे प्रकोप एवं नजदीकी भूतकाल में एड्स, इबोला, सार्स जैसी बीमारियों ने लाखों जानें लीं। फर्क सिर्फ इतना है कि आधुनिक तकनीकी और इंटरनेट के तथाकथित विकसित युग में एक महामारी आती है और उसका सामना करने के लिए हम अपने आपको पूरी तरह अक्षम पाते हैं। 130 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में शायद लॉकडाउन ही सबसे सरल एवं व्यावहारिक तरीका हो सकता है परन्तु इसी लॉकडाउन ने यह भी दिखा दिया कि आजादी के 70 सालों के बाद भी हमारे समाज में कितना बड़ा असंतुलन है।
अलग-अलग लोगों के लिए लॉकडाउन का अलग-अलग अर्थ है। कुछ लोगों के जीवन में लॉकडाउन से मची खलबली वायरस से भी ज्यादा खतरनाक साबित हुई है। कुछ लोग तो बखूबी वातानुकूलित घरों की बालकनी में आकर थालियां बजा सकते हैं, लेकिन एक बहुत बड़े वर्ग के पास रहने के लिए घर ही नहीं है। मुंबई, दिल्ली और अन्य बड़े शहरों में एक-एक कमरे में 8-9 कामकाजी लोग रहते हैं। प्रधानमंत्री ने खड़ाखड़ी में लॉकडाउन की घोषणा कर दी। वे दृश्य सभी को याद हैं, जहां हजारों की तादाद में काम करने वाले लोग सड़कों पर फंसे हुए हैं, जिनके पास न रहने को घर हैं, न खाने को रोटी और न ही कोई सामाजिक सुरक्षा।
पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था के तहत ये सारे लोग रोजगार के लिए गांव छोड़ कर शहर में रह रहे थे। छोटे-मोटे कामकाज में लगे हुए ये मजदूर मेहनत की कमाई बचा के अपने अपने गांव में बसे परिवारों का गुजारा कर रहे थे। अचानक लॉकडाउन के चलते ट्रेन, बस, टैक्सी सब कुछ बंद हो गया। ऐसे में लाखों की तादाद में मजदूर पैदल ही गांव की ओर चल पड़े। भूख और प्यास के मारे कुछ लोगों ने सड़क पर दम तोड़ दिया; पुलिस की मार-पीट और दमन की कई घटनाएं सामने आई। ये नमूना मात्र हैं। कोरोना वायरस ने विकास और आर्थिक प्रगति के दावे को खोखला साबित कर दिया है। आर्थिक प्रगति के चरम पर पहुंचे चीन और वैश्विक ताकत बनने का सपना रखने वाले भारत को अपनी नीतियों के बारे में मूलत: नये सिरे से सोचना होगा।
कुछ सामाजिक विचारकों का कहना है कि तानाशाही राज्य प्रणाली के चलते चीन ने कोरोना वायरस की हकीकत को छुपाया। इस बात के कई प्रमाण भी मिले हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि दुनिया भर में वायरस से लड़ाई के नाम पर आम नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों के छीने जाने का खतरा मंडरा रहा है। भारत में भी जरूरी है कि इस लड़ाई में नागरिकों को बराबरी का साझेदार बनाया जाए। नागरिकों को सही जानकारी मिलना और उन पर विश्वास करना भी उतना ही जरूरी है। महामारी के नाम पर राज्य और पुलिस के हाथों में सत्ता और बल का केंद्रीकरण सही नहीं होगा। सरकार को चाहिए कि नागरिक की सूझ-बुझ एवं विवेक पर भरोसा रखा जाए और उसका सहयोग मांगा जाए। डंडे की व्यवस्था से काम नहीं चलेगा। कोरोना वायरस से लड़ने में पारदर्शिता जरूरी हैं। साथ ही बायोमेट्रिक टेक्नोलॉजी के चलते एप्प आधारित प्रोग्राम्स भी निजी गोपनीयता के लिए खतरा बन सकते हैं। कोई भी सरकारी प्रोग्राम नागरिक के स्वायत्व की कीमत पर नहीं हो सकता। पिछले दिनों तब्लीगी जमात की गैरजिम्मेदाराना हरकत के चलते मीडिया के कुछ तबकों में कोरोना वायरस प्रोग्राम का साम्प्रदायिकरण देखने को मिला। सरकार को चाहिए कि जिस तरह तब्लीगी जमात के खिलाफ कानूनी करवाई की गई, उसी तरह देश का धार्मिंक विभाजन करने की साजिश पर भी रोक लगाई जाए।
कोरोना वायरस ने यह भी दिखा दिया है कि हमें विकास की नई परिभाषा की जरूरत है। विकास ऐसा हो जहां सभी के लिए जगह हो और सभी के लिए सेहत, शिक्षा, प्रगति। विकास ऐसा हो जहां जल, जंगल, जमीन जैसे नैसर्गिक संसाधन और पृथ्वी को हानि न पहुंचे; लॉकडाउन के चलते हमारे महानगरों की जहरीली हवा खुशनुमा हो गई है। विकास ऐसा हो जहां एक सुसंगत समाज का सृजन हो, जहां चंद लोग अरबपति न हों। हमें ऐसी आर्थिक नीतियां सोचनी पड़ेंगी जहां देश का हर नागरिक गरिमा से सर उठा कर जी सके।
निजी रूप से मेरा मानना है कि हमारे देश में छुआछूत और भेदभाव आधारित सोच के चलते उत्कृष्ट वगरे को सामाजिक दूरी बनाने में कोई खास दिक्कत नहीं आई और मोदी जी का यह प्रयोग सफल रहा। दिलचस्प बात है कि हमारे धार्मिंक देश में लोग समझ रहे हैं कि महामारी के संकट में विज्ञान एवं मेडिकल जानकारी ही काम आ सकती है ना कि धार्मिंक आस्था! मंदिर, मस्जिद, चर्च हैं। ईस्टर, राम नवमी और रमजान घर पर बैठ कर मनाया जा रहा है, या फिर इंटरनेट पर। डॉक्टर, नर्स, मेडिकल स्टाफ और वैज्ञानिक भगवान स्वरूप सामने आ रहे हैं। वे दिन-रात लगातार मेहनत में लगे हुए हैं कि कैसे मरीजों को बचाया जाए। वैज्ञानिक कोरोना वायरस के खिलाफ वैक्सीन जुटाने में लगे हुए हैं। धार्मिंक गुरु दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आ रहे! आम इंसान देख रहा है कि विज्ञान, नॉलेज और जानकारी ही मानव प्रजाति के लिए कल्याणकारी है, ना की धार्मिंक नुस्खे!
सालभर में वैज्ञानिक अध्ययन से कोरोना वायरस का टीका एवं दवाई ढूंढ ली जाएगी; तकनीकी चिकित्सा के पैमाने पर कोरोना वायरस से जीत तय है। इस लड़ाई की असली कामयाबी लड़ाई की सोच तय करेगी। यह सोच अगर लड़ाई का आधार बने तो हमें इस संकट से बेहतरी से पार पाने का मौका मिलेगा। इस लड़ाई में अपनाए तौर-तरीके व रणनीति पर भी जोर देना जरूरी है। असली कामयाबी तब कहलाएगी जब हम इस नासूर की जड़ में जाएं और इसे समझें। हमें समझना होगा कि हम सब आपस में जुड़े हुए हैं। हर इंसान दूसरे इंसान से जुड़ा हुआ है और पृथ्वी हम सब का साझा घर है। जैसे स्वार्थी इंसान किसी काम का नहीं हो सकता वैसे ही स्वार्थी सोच पर आधारित विकास व्यवस्था से देश और दुनिया का भला नहीं हो सकता।
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