कोरोना : संकट के प्रति उदासीन मंदिर
पूरा विश्व कोरोना के कहर से कांप रहा है। चीन के वुहान शहर से निकले इस वायरस ने पूरी दुनिया को घुटने पर ला दिया है।
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इसके कारण आर्थिक गतिविधियों पर विराम लगने से आम-ओ-खास सभी परेशान हैं, लेकिन सबसे ज्यादा मुसीबत उनके सामने है, जो दो जून की रोटी के लिए अपने श्रम पर ही निर्भर हैं। जहां तक भारत की बात है, तो यहां सबसे बड़ी समस्या यही है कि करोड़ों गरीबों और मेहनतकश लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था कैसे की जाए। संकट से उबरने के लिए अनेक उद्योगपतियों और कॉरपोरेट घरानों समेत सरकारी कर्मचारी तक सरकार को आर्थिक सहयोग दे रहे हैं। अनेक धार्मिंक संगठन भी जरूरतमंद लोगों को सहायता पहुंचाने का काम कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सहयोग करने के लिए लोगों से अपील की है और इसका असर भी हुआ है। लोगों ने दिल खोलकर पीएमकेयर्स फंड में पैसे डाले, लेकिन ऐसे भयानक संकट में भी हमारे मंदिर सहयोग के लिए आगे आने से कतराते नजर आ रहे हैं। उनकी उदासीनता खलने वाली है, क्योंकि मंदिर वे जगह हैं, जहां आर्थिक मंदी का कोई असर नहीं होता, उनके कारोबार हमेशा समान रूप से चलते रहते हैं। हमारे देश के अनेक मंदिर तो इतने संपन्न हैं कि चाहें तो देश की आर्थिक स्थिति को सुधार सकते हैं।
आइए, देखते हैं अपने देश के कुछ मालामाल मंदिरों की आर्थिक हैसियत। तिरुवनंतपुरम का पद्मनाभ मंदिर देश का सबसे धनी मंदिर है। एक आकलन के अनुसार इसकी वार्षिक आय एक लाख करोड़ रुपये है। 2018-19 में इसकी कमाई 2,894 करोड़ी रुपये आंकी गई थी। वैष्णो देवी मंदिर की 600 करोड़ और सबरीमाला मंदिर की आय 105 करोड़ रुपये थी। काशी विनाथ मंदिर की सालाना आमदनी लगभग 15 करोड़ है। मंदिर के वित्तीय रिकॉर्ड के अनुसार 100 करोड़ रुपये फिक्स्ड डिपोजिट खाते में जमा हैं। इसके बावजूद इस मंदिर ने किसी राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय संकट में शायद ही कभी अपनी तिजोरी खोली हो। हां, ऐसे संकटों के निवारण के लिए मंदिर ‘शांति पाठ’ का आयोजन अवश्य करता है, जिसमें हजारों रुपये रोजाना खर्च होते हैं। शिरडी साई मंदिर की सालाना आमदनी लगभग 10 करोड़ है। मालूम हो कि इसमें दान में मिले सोने-चांदी का हिसाब शामिल नहीं है। मंदिर प्रबंधन का कहना है कि उसने अभी इसका आकलन नहीं किया है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर समेत देश में सैकड़ों मंदिर हैं, जिनकी आमदनी लाखों-करोड़ों रुपये है। कोई यह न समझे कि केवल मंदिरों के पास ही अकूत धन है। अनेक ऐसे गुरु द्वारे, मस्जिदें और चर्च हैं, जिन्हें चढ़ावे से बेपनाह धन मिलता है। अजमेर शरीफ दरगाह की सालाना आमदनी 200 करोड़ रुपये से भी ज्यादा है। कैथॉलिक चर्च की सालाना आमदनी लगभग 100 करोड़ रुपये है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि धार्मिंक स्थलों की कमाई का सबसे बड़ा स्त्रोत आम लोगों द्वारा दिया जाने वाला चढ़ावा होता है।
कोरोना के कारण आज देश में करोड़ों लोगों के पास खाने के लिए भी कुछ नहीं है। लॉकडाउन में फंसे मजदूरों की स्थिति देखकर हर किसी का दिल रो रहा है। जिससे जो संभव है, वह सहायता कर रहा है। गुरु द्वारों को छोड़ दिया जाए तो लोगों को राहत पहुंचाने में हमारे मंदिर नकारा साबित हो रहे हैं, जबकि चाहें तो देश और लोगों को आर्थिक परेशानी से सहज ही उबार सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य कि वे अपनी तिजोरी पर कुंडली मारे बैठे हैं, भूखे लोगों को खाना तक मुहैया कराना उन्हें नागवार गुजर रहा है। जिस तरह गुरु द्वारों में गरीब लोगों के लिए खाना मुहैया कराया जा रहा है, क्या किसी मंदिर में ऐसा हो रहा है? कहीं हो भी रहा होगा तो वे स्थानीय छोटे मंदिर ही होंगे जबकि बड़े और धनाढ्य मंदिर पता नहीं किस खोल में समा गए हैं। पिछले कुछ वर्षो में देश में अनेक प्राकृतिक और गैर-प्राकृतिक विपदाएं आई लेकिन शायद ही किसी विपदा में मंदिरों ने अपनी तिजोरी के मुंह खोले हों। भूकंप हो या बाढ़ की विभीषिका, लोग मरते रहे और हमारे मंदिर भजन करते रहे। आखिर, यह कैसा धार्मिंक आचरण है, जो उन्हें लोगों की सहायता करने से रोकता है? धार्मिंक नैतिकता तो मानव सेवा को ही सर्वश्रेष्ठ मानती है। जो धर्म मानव सेवा से विमुख होता है, वह वास्तव में अधर्म है।
बंगाल के भयानक दुíभक्ष के समय विवेकानंद ने कहा था कि मनुष्य रहेगा, तभी धर्म बचेगा, इसलिए मानव सेवा ईश्वर की सबसे बड़ी सेवा है। इतना ही नहीं, जब मठ के पास राहत कार्यों के लिए धन की कमी हुई, तो उन्होंने मठ की परिसंपत्तियों को बेचने तक का निर्णय ले लिया था। उन्होंने कहा कि धन के अभाव में लोग काल कवलित हो रहे हैं, इसलिए हमें मठ की परिसंपत्तियों को बेचकर सेवा का कार्य जारी रखना चाहिए क्योंकि मनुष्य बचेंगे, तभी मठ या मंदिर बचेंगे। मठ-मंदिर के नहीं रहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि सेवा तो पेड़ के नीचे बैठकर भी की जा सकती है। सेवा के लिए मठ का परित्याग करना पड़े तो भी हमें तैयार रहना होगा। अन्यथा नहीं कि विवेकानंद भारत की आत्मा में बस गए, जबकि कोई नहीं जानता कि पद्मनाभ, तिरु पति मंदिर, जगन्नाथपुरी का पुजारी कौन है, या किसी कैथॉलिक चर्च या अजमेर शरीफ का इंचार्ज कौन है। देश के मंदिरों के पूजारी और प्रबंधन बात-बात में विवेकानंद का नाम लेते हैं। गर्व करते हैं कि उन्होंने हिंदू धर्म की पताका दुनियाभर में फैलाई लेकिन उनके बताए कदमों पर चलने को तैयार नहीं होते।
सहज सवाल उठता है कि मंदिर दुखियों की सेवा के लिए तत्पर क्यों नहीं होते? इसका सबसे बड़ा कारण है उनकी धार्मिंक समझ। वे बताते हैं कि उनका मुख्य काम धार्मिंक है, जिसमें मंदिरों का निर्माण, परिसर में श्रद्धालुओं के लिए सुविधा मुहैया कराना और अधोसंरचना तैयार करना होता है। मालूम हो कि यह सारा काम लोगों की राहत के लिए नहीं, बल्कि मंदिर की आमदनी बढ़ाने के लिए किया जाता है। फूल से लेकर प्रसाद बेचने तक का काम मंदिरों की देख-रेख में ही होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इनसे उनकी कमाई होती है।
तर्क और जरूरत तो यही कहती हैं कि सभी धार्मिंक स्थलों की कमाई का कुछ हिस्सा लोगों को राहत पहुंचाने के लिए आवश्यक बनाया जाए। सरकार चाहे, तो ऐसा करना कोई कठिन काम नहीं है। यहां एक बात साफ है कि हमारे देश के मंदिर मुक्त-हस्त से लोगों को राहत पहुंचाने में जुट जाएं, तो वे न केवल लोगों का पेट भर सकते हैं, बल्कि सरकार की अनेक आर्थिक परियोजनाओं को सफल भी बना सकते हैं। मंदिरो, अपने कपाट खोलो, आज यही आपसे प्रत्याशा है।
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