जयंती : अजेय योद्धा कुंवर सिंह
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में बाबू कुंवर सिंह का नाम अग्रणी योद्धाओं में शामिल है। बिहार के जगदीशपुर में जमींदार परिवार में उनका जन्म हुआ।
![]() जयंती : अजेय योद्धा कुंवर सिंह |
इतिहासकार गिरधारी अग्रवाल ने लिखा है, ‘1857 की क्रांति में 80 वर्षीय योद्धा ने अपने युद्ध कौशल व पराक्रम से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। इस युद्धवीर ने 25 जुलाई, 1857 से 23 अप्रैल, 1858 तक नौ माह के युद्ध में 15 भीषण लड़ाइयां लड़ीं और यूनियन जैक का झंडा उतरवा कर देश का झंडा लहराया।’ टी.आर. होम्स ने तो यहां तक लिखा है, ‘एक ऐसा व्यक्ति बिहार में था, जो आयु में लॉयड से भी वृद्ध था लेकिन युवावस्था की उमंग से भरा था। अंग्रेजों को परास्त करने के लिए संकल्पबद्ध था।’
सर्व धर्म और समभाव के आग्रही कुंवर सिंह की सेना में हिंदू, मुस्लिम, दलित और पिछड़ी जाति के लोग समर्पित भाव से शामिल थे। अली करीम, वारिस अली, इब्राहिम खां (गाजीपुर, यूपी), बसावन महतो उनके सैन्य पदाधिकारी और विश्वासपात्र थे जबकि किफायत हुसैन, द्वारिका माली, रणजीत ग्वाला, देवी ओझा आदि आम जनता के प्रतिनिधि थे। 23 अप्रैल, 1858 को उन्होंने स्वतंत्र आरा में पहली बार याहिया खां को कलक्टर नियुक्त कर आजाद भारत का झंड़ा फहरवाया था। इसी याद में प्रति वर्ष 23 अप्रैल को ‘विजयोत्सव दिवस’ मनाया जाता है। दानापुर छावनी के विद्रोह के बाद कुंवर सिंह ने इस क्षेत्र की कमान संभाल ली थी। विद्रोही सिपाहियों और अपने सहयोगियों के साथ उन्होंने आरा पर कब्जा किया। फिर कायमनगर और बीबीगंज में घमासान लड़ाइयां लड़ते हुए बांदा, रींवा, आजमगढ़, बनारस, गोरखपुर एवं बलिया में भी अंग्रेजी सलतनत के विरुद्ध विपल्व का नगाड़े बजाते रहे।
अपने लोगों के मध्य वे कितने लोकप्रिय थे, इसका प्रभाव 21 अप्रैल, 1858 को उनके गंगा पार करने के अवसर पर दिखा। आजमगढ़ जिला मजिस्ट्रेट आर. डेविस, जो शिवपुर घाट (बलिया यूपी) पर ब्रिटिश सेना के साथ कैम्प कर रहा था, ने लिखा है, ‘मजिस्ट्रेट के कड़े निर्देश के पश्चात सारी नावें गंगा नदी से हटा ली गई थीं। लेकिन कुंवर सिंह की सेना को गंगा पार कराने के लिए एकाएक नावें लहराने लगीं।’ बाबू साहब की वीरता को लेकर बिहार और उत्तर प्रदेश के गांवों में वीर रस से ओतप्रोत गीत गाए जाने लगे। उस समय की एक होली ‘बाबू कुंवर सिंह तेगगवा बहादुर, बांग्ला में उड़ेला अबीर। आरे लाल बंगला..’, बिहार, झारखंड एवं उत्तर प्रदेश में खूब गाई जाती है। भोजपुरिया क्षेत्र में व्यवस्था परिवर्तन का आग्रह-गीत ‘अठारह सौ संतावन के फिर से बिगुल बजाव, दादा फिर एक बार तू आव..’ भी अक्सर सुना जाता है।
आजादी के लिए लालयित एक बड़े इलाके में लोगों का जनाक्रोश और कुंवर सिंह के शागिदरे द्वारा सैन्य संगठन के निर्माण की आशंका से अंग्रेज आशंकित थे। आशंका को समूल नष्ट करने के लिए उन्होंने लंदन में उच्चस्तरीय बैठक कर अपनी पारंपरिक नीति ‘डिवाइड एंड रूल’ से अलग ‘डायवर्ट एंड रूल’ की नई रणनीति की शुरुआत की। ‘भारतीयों को अवश्य ईसाई बना लेना चाहिए, हिन्दुस्तानी जुबान को खत्म कर उसकी जगह अपनी मातृभाषा अंग्रेजी प्रचलित कर देनी चाहिए या उन्हें डायवर्ट करने को कोई ठोस उपाय करना चाहिए।’ मार्च, 1858 के कलकत्ता रिव्यू में इसका उल्लेख मिलता है।
बाबू कुंवर सिंह ने क्षेत्र में सिंचाई के लिए अनेक बांध बनवाए थे, जो बाबू बांध के नाम से आज भी प्रचलित हैं। इसलिए अंग्रेजों ने 1869 में शाहाबाद के जिला मुख्यालय आरा में कलक्ट्रेट तथा आरा एवं जगदीशपुर में नगर पालिका की स्थापना कराई। शाहाबाद के किसानों को ‘कृषि कार्य में डायवर्ट’ करने की रणनीति बनाई, जिसमें यहां की उर्वर मिट्टी एक साधन के बतौर उपलब्ध थी। अंग्रेजों ने लाल सागर और भूमध्य सागर को जोड़ने वाली 168 किमी. लंबी स्वेज नहर (1869 में तैयार) का अनुकरण करते हुए 1873-74 में आरा सोन नहर (101 किमी.) की शुरुआत की। इस नहर में स्वेज नहर और पनामा नहर (तब निर्माणाधीन) की भांति लॉक की व्यवस्था की गई ताकि सिंचाई के साथ यातायात की भी व्यवस्था सुनिश्चित हो सके। आरा के निचले छोर से अकोढ़ीगोला तक 13 लॉक के सहारे स्टीम इंजन वाले बोट और नावें चलती थीं। इस नहर ने शाहाबाद (अब भोजपुर, बक्सर, कैमूर एवं रोहतास जिला) के लोगों को न सिर्फ सिंचाई, बल्कि यातायात के साधन भी उपलब्ध कराए। जनहित में अंग्रेजों को अपनी नीति बदलने को मजबूर कर देने वाले अजेय योद्धा को आज 23 अप्रैल वीर कुंवर सिंह विजयोत्सव दिवस पर शत-शत नमन!
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