कोरोना संकट : पृथ्वी दिवस का एजेंडा

Last Updated 22 Apr 2020 01:02:32 AM IST

कोविड-19 के रूप में आई जिस महामारी संकट का सामना आज दुनिया कर रही है, वह अपूर्व और भयानक है। इसने तकनीक, आविष्कार, मेडिकल रिसर्च सहित तमाम क्षेत्रों में किए गए बड़े-बड़े दावों के आगे बड़ी चुनौती पेश कर दी है।


कोरोना संकट : पृथ्वी दिवस का एजेंडा

इस तरह से यह चुनौती पृथ्वी के सबसे श्रेष्ठ और काबिल जैविक प्रजाति (होमो सेपियंस) के तौर पर मनुष्य के सामने भी है कि वह इस आपद चुनौती से खुद को कैसे बाहर निकाले। दिलचस्प है कि कोविड-19 से निपटने के क्रम में दुनियाभर में एक ठहराव जैसी स्थिति आ गई है। वैश्विक आवागमन, आपूर्ति श्रृंखला, आर्थिक गतिविधियां सब एक साथ रुक गई हैं। इस ठहराव का विस्तार मनुष्य की आजीविका तक है, जिससे निपटना कहीं से भी न अभी आसान है और न ही आगे होगा।

आज जो हालात हैं, उसकी कल्पना किसी ने भी 2019 के आखिर तक नहीं की थी। बहरहाल, इस महासंकट को लेकर आरोपों का खेल शुरू हो गया है। इस सवाल को भेदने की कोशिश लगातार जारी है कि यह महामारी जैविक है या प्रकृति प्रदत्त। एक बड़ी आशंका इस बात को लेकर कहीं न कहीं गहरा रही है कि इस सब के पीछे असली मकसद कहीं एडवांस्ड बॉयोलॉजिकल रिसर्च टूल्स के जरिए नये वैश्विक आर्थिक क्रम का पुनर्निर्धारण तो नहीं है। 22 मार्च को इस बार 50वां पृथ्वी दिवस के तौर पर पूरी दुनिया मनाएगी। इस बार का थीम है- क्लाइमेट एक्शन। कोविड-19 के तौर पर जिस तरह के संकट से दुनिया घिरी है, उसमें हमारे सामने यह मौका है कि हम इन बातों का आत्मावलोकन करें कि पृथ्वी के संरक्षण के जुड़े विविध आयामों को लेकर अब तक की हमारी समझ क्या है, तैयारी क्या है?

यहां यह समझ लेना जरूरी है कि भविष्य में मानवता और मानवीय स्वास्थ्य के साथ मनुष्य के अस्तित्व से जुड़े तमाम कारकों की सुदृढ़ता इस बात पर ही तय होनी है कि हमारे पारिस्थितिकी तंत्र की अपनी सेहत कैसी रहती है। गौरतलब है ‘पृथ्वी दिवस’ मनाने के पीछे जो कारण और इतिहास है उसमें यह चिंता शामिल रही है कि हम अपनी पारिस्थितिकी के प्रति लापरवाह रहते हुए न तो अपना विकास सुनिश्चित कर सकते हैं और न ही अपने भावी अस्तित्व को लेकर किसी तरह का इत्मिनान हासिल कर सकते हैं।  इंटरनेट पर जो जानकारी उपलब्ध है, उसमें 22 अप्रैल 1970 को तकरीबन हर दसवां अमेरिकी अपने घरों, दफ्तरों और स्कूल-कॉलेजों से निकलकर सड़कों पर आ गया था इस मांग को उठाते हुए कि हमें खुद को बचाने के लिए अपनी धरती को बचाने की चिंता प्राथमिक तौर पर करनी होगी। लोगों ने खासतौर पर स्मॉग, तेल के खतरनाक रिसाव और नदियों के प्रदूषण को लेकर दुनिया का ध्यान खींचा था। आज फिर से हम एक ऐसे चौराहे पड़ खड़े हैं, जहां हमें यह तय करना होगा कि हम मनुष्य के साथ हर जैविक प्रजाति की सेहत की सुरक्षा के लिए इस तरह का प्रतिमान गढ़ें, जिसमें कानून और योजनाओं से लेकर मानवीय व्यवहार तक सबका समेकित लक्ष्य धरती पर जीवन को सेहतमंद बनाना हो।
पृथ्वी दिवस के रूप में दुनिया के लिए मौका है कि वह एक जिम्मेदार रु ख का परिचय देते हुए एक नया आंदोलन खड़ा करे, जो जैव विविधता से लेकर जैव सुरक्षा तक के सारे सवालों के एकीकृत समाधान के लिए सरकारों को मजबूर करे, विश्व समाज को जागरूक करे। इसे हम चाहें तो ‘र्वल्ड कंजर्वेशन आर्डर पोस्ट कोविड-19’ का नाम दे सकते हैं। बेहतर हो कि लॉक-डाउन जैसी स्थिति से जब दुनिया बाहर आए तो उसके मन में सबक के साथ आगे के लिए एक धुली दूरदृष्टि हो, समन्वित योजनाओं-कार्यक्रमों और प्राथमिकताओं का एक सुविचारित ब्लूप्रिंट हो। दुनिया के तमाम देशों और वहां की सरकारों और नागरिक संगठनों के साथ संयुक्त राष्ट्र और उससे जुड़ी तमाम संस्थाओं को नई स्थिति में अलग-अलग राह पर बढ़ने के बजाय एक साथ आना होगा। उन्हें एक साझी समझ और साझा एजेंडा तैयार करना होगा ताकि धरती पर जीवन और उसकी सुरक्षा से जुड़े कारकों पर समेकित तौर पर ध्यान दे सकें और उनके संरक्षण के लिए जरूरी पहल को धरती पर उतार सकें। रियो सहमति या घोषणापत्र से लेकर संयुक्त राष्ट्र और दूसरे वैश्विक मंचों पर ग्लोबल वार्मिग के खतरों से बचाव, कार्बन उत्सर्जन में कमी से लेकर जैव विविधता को सुरक्षित बनाने को लेकर जितने भी तरह के विमर्शीय करार हुए हैं, आज की बदली हुई स्थिति में सब कहीं-न-कहीं अर्थहीन साबित हो रहे हैं। क्योंकि कोरोना बाद की दुनिया का संकट और एजेंडा एकदम से नया है। ऐसे में सेहत से लेकर संरक्षण तक हमें नये सिरे से इस बात का ध्यान रखना होगा कि जीवन और प्रकृति के साझे के साथ हम सुरक्षित रहेंगे, हमारा कल सुरक्षित रहेगा।
असल में अब मनुष्य सिर्फ अपनी चिंता करके नहीं बच सकता है, बल्कि उसे पूरी धरती की चिंता करनी होगी। इसलिए ऐसी तमाम कवायद और वैश्विक पहल, जो अब तक 2025, 2030 या 2050 तक की दूरदृष्टि के साथ बनाए गए थे, उन्हें अब नए संदभरे में देखना-समझना होगा। प्रकृति के साथ दोहन का नाता रखकर हम प्रदूषण जैसे खतरों को पहले ही आमंत्रित कर चुके थे। नया संकट अकेले मनुष्य पर नहीं बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र पर है। इसमें मनुष्य चाहकर भी सिर्फ  अपने बचाव या संरक्षण का रास्ता नहीं निकाल सकता। उसे पूरे पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा की चिंता करनी होगी। लिहाजा पृथ्वी दिवस पर हमारे सामने अपने और अपने देश-समाज की चिंता भर नहीं होनी चाहिए। यह समय है धरती और प्रकृति के साथ अपने संबंधों का आत्मावलोकन का, उसकी पुनव्र्याख्या का।
पृथ्वी दिवस के पांच दशक पूरे होने पर हम एक नितांत अपूर्व स्थिति में हैं। जान और जोखिम का भय कोरोना के रूप में एक साथ पूरी दुनिया को खाए जा रही है। आगे के लिए हमारी निर्भयता सुनिश्चित हो इसके लिए एक बड़े विश्व आंदोलन की जरूरत है। पृथ्वी दिवस इस आंदोलन की दिशा में पहला कदम साबित हो सकता है। यह आंदोलन महात्मा गांधी की इस सीख के साथ शुरू होनी चाहिए कि प्रकृति के पास विश्व की जरूरत के लिए सब कुछ है और पर्याप्त है। पर प्रकृति की यह पर्याप्तता एक आदमी की भी लालच के आगे कम पड़ सकती है। धरती की सबसे श्रेष्ठ प्रजातीय अस्तित्व के तौर मनुष्य को यह दिखाना होगा कि उसका विवेक अचूक है और वह मानवीय सभ्यता की अब तक की यात्रा को प्रकृति के साथ आगे ले जाने के धैर्य और प्रणसे पीछे नहीं हटेगा।

डॉ. विवेक सक्सेना
आईएफएस अधिकारी एवं आईयूसीएन में भारत के प्रतिनिधि


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