साधुओं की हत्या : हर हाल में सामने आए सच

Last Updated 21 Apr 2020 12:33:31 AM IST

महाराष्ट्र के पालघर में दो निर्दोष, निरपराध संतों की भीड़ द्वारा पीट कर हत्या का दृश्य देखकर पूरा देश स्तब्ध है।


साधुओं की हत्या : हर हाल में सामने आए सच

ऐसा कोई मनुष्य नहीं होगा, जिसका दिल हत्या का वीडियो देखकर दहला नहीं होगा। इससे एक साथ व्यथा और क्षोभ दोनों पैदा होता है। यह बात आसानी से गले नहीं उतरती की आखिर मनुष्य या मनुष्यों का समूह इतना विवेकहीन और बर्बर कैसे हो सकता है कि इस तरह किसी की जिंदगी ले ले। दो साधु, जिनके चेहरे और हावभाव से उनकी निश्छलता साफ दिख रही है, जिनका चालक बता रहा है कि वो कौन हैं, उनको मार डालना भीड़ की हिंसा के दायरे में भी असामान्य घटना मानी जाएगी।

हमने भीड़ की हिंसा की ऐसी बर्बरता और विवेकहीनता के दृश्य पहले भी देखे और हर समय हम विचलित, विदग्ध और क्षुब्ध भी हुए हैं। हालांकि पिछले काफी समय से भीड़ की हिंसा लगभग रु क सी गई थी। ऐसा लगा जैसे इसके विरुद्ध बने कानून व विधान, न्यायालयों के कड़े रवैये तथा मीडिया एवं सामाजिक संगठनो की जागरूकता फैलाने का असर पड़ रहा है। किंतु इस एक घटना ने इस धारणा पर ऐसा तुषारापात किया है, जिससे उबरना कठिन है। इस दर्दनाक और बर्बर घटना के ऐसे अनेक पहलू हैं जो केवल हमें झकझोरते ही नहीं ऐेसे कई प्रश्न उभारते हैं, जिनका उत्तर और समाधान तलाशना ही होगा। 

सबसे पहले प्रतिक्रियाएं देख लीजिए। जब भी भीड़ की हिंसा में एक विशेष समुदाय का व्यक्ति शिकार हुआ, तो हमारे देश के स्वनामधन्य बुद्धिजीवियों, मीडिया के पुरोधाओं, एनजीओ सक्रियतावादियों, विधि सक्रियतावादियों तथा नेताओं का एक समूह ऐसा माहौल बनाता रहा है मानो पूरा देश ही उस समुदाय के खिलाफ घृणा से भरकर हिंसा कर रहा है। सबसे पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कठघरे में खड़ा होते हैं, उसके साथ पूरी भाजपा सरकार, पार्टी के रूप में भाजपा, फिर आरएसएस..। भारत और उसके बाहर यह प्रचारित किया जाता है कि यहां तो शासन ही एक समुदाय के विरु द्ध नफरत फैलाने का काम कर रहा है, शासन की शह है हत्यारों को।

आज आपको वे सब दिखाई नहीं देंगे और देंगे भी तो उनके चेहरे और शब्दों में आमूल बदलाव दिखेगा। आज न यह फासीवाद है, न सरकार की शह, न लोगों के अंदर पैदा नफरत का प्रमाण। तो फिर क्या है यह? इसका जवाब देश को इनसे चाहिए जो पिछले छह सालों से हर ऐसी घटना पर अपनी वैचारिक कुंठा की रोटियां सेंकते रहे हैं। हर संगठन एवं व्यक्ति ने उन हिंसा की निंदा की, विरोध किया, लोग भी गिरफ्तार हुए, लेकिन उन पर ये चर्चा तक नहीं करते थे। आज इस मामले में लोगों की गिरफ्तारी पर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को शाबाशी दे रहे हैं। आखिर यह किस दृष्टि से शाबाशी का मामला हो गया? यह घटना इन पंक्तियों के लिखे जाने से चार दिन पहले का बताया जा रहा है। यानी अगर वीडियो वायरल नहीं होता तो शायद आया-गया भी हो जाता। प्रश्न है कि क्या महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एवं गृहमंत्री का सूचना तंत्र इतना कमजोर है कि तीन दिनों पहले हुई ऐसी बर्बर हिंसा की जानकारी उन तक नहीं पहुंची? अगर पहुंची तो तत्काल उन्होंने क्या कार्रवाई की इसकी जानकारी देश को दें।

अब आइए दूसरे पहलू पर। मीडिया का एक वर्ग नैरेटिव गढ़ रहा है कि लोगों ने चोर समझकर मार डाला, कोई कहा रहा है उन्हें बच्चा चोर मान लिया, कोई उन्हें डकैत मानने की बात कर रहा है। क्या इनमें से किसी ने वहां जाकर लोगों से पूछा है कि वाकई सच क्या है? बिना जाने इस तरह का झूठ फैलाना भी हत्यारों को बचाने तथा इस मामले को छोटा करने का अपराध है। एक गाड़ी पर दो साधु जा रहे हैं और चालक गाड़ी चला रहा है तथा लोगों को उनमें डकैत, चोर, बच्चा चोर सब दिख गया। सबसे दुखद पहलू तो यह है कि टीवी डिबेट में और सोशल मीडिया में हिंसा की आलोचना करते हुए भी यह प्रश्न उठाया जा रहा है कि लॉक-डाउन में वे साधु निकले ही क्यों थे? प्रश्न यह क्यों नहीं उठ रहा है कि आखिर उतनी संख्या में लॉक-डाउन तोड़कर लोग सड़कों पर क्यों थे? पुलिस की उपस्थिति के बावजूद। पुलिस ने उन्हें भगाने का प्रयत्न क्यों नहीं किया? पूरे वीडिया में पुलिस न तो इन निरपराध साधुओं और उनके चालक को बचाने का प्रयास करती है और न ही लोगों को सड़कों से हटने के लिए कहती है।

महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा कोरोना संक्रमित मरीज हैं, मृतकों की संख्या सबसे ज्यादा है। वह पहला प्रदेश था पंजाब के साथ, जिसने आरंभ में कफ्र्यू तक लागू कर दिया था। ऐसे प्रदेश में तो लॉक-डाउन सबसे सख्त होना चाहिए। किंतु पुलिस ऐसे व्यवहार कर रही है मानो इतने लोगों का जमावड़ा सामान्य बात है। सबसे दर्दनाक वह दृश्य है जब स्वामी कल्पवृक्षगिरि महाराज पुलिस के पास जान बचाने के लिए छिपते हैं और पुलिस वाला उनका हाथ पकड़कर बाहर लाता है एवं भीड़ के बीच छोड़ देता है। वीडियो का यह दृश्य पहली नजर में यही संदेश देता है कि पुलिस ने जानबूझकर उनको मार देने के लिए भीड़ के सामने छोड़ दिया। मुदकमा दर्ज कर उस पुलिसवाले की गिरफ्तारी  क्यों नहीं हुई? वास्तव में पुलिस और प्रशासन की पूरी भूमिका संदिग्ध है। पालघर के जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक का बयान है कि भीड़ ज्यादा होने के कारण पुलिस उनको बचाने में सफल नहीं हुई। कम-से-कम वीडियो मे तो कहीं नहीं दिखता कि पुलिस उनको बचाने का प्रयास कर रही है। दूसरे, भीड़ तो वहां है, लेकिन जितनी बड़ी भीड़ की बात प्रशासन कर रहा है उतनी नहीं है। पुलिस उस भीड़ को समझा भी सकती थी और काबू भी कर सकती थी। लेकिन करना चाहते तब न।

चूंकि प्रशासन और पुलिस दोनों अपने बचाव में घटना को छोटा करने की कोशिश कर रहे हैं इसीलिए संदेह गहरा होता है कि कहीं इन हत्याओं के पीछे कुछ और बातें तो निहित नहीं हैं। आदिवासियों ने मार दिया कहने से पूरी सच्चाई स्पष्ट नहीं होती। प्रशासन और पुलिस को सामने आकर यह स्पष्ट करना पड़ेगा कि हत्यारे कौन लोग हैं? यह भी कि उनकी मंशा क्या थी? प्रशासन और पुलिस निष्पक्ष और निरपराध होता तो कम-से-कम वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिए पत्रकार वार्ता करके पूरा सच रखता तथा पत्रकारों के प्रश्नों का जवाब देता। यह नहीं किया तो संदेह गहराएगा ही। स्वयं मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को सारी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। अगर इसके पीछे कोई साजिश है तो फिर इस तरह की हत्या को देश का जागरूक समुदाय सहन भी कैसे कर सकता है? अत: त्वरित कार्रवाई से ही लोगों को संतोष हो सकता है।

अवधेश कुमार


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment