संकट : लॉक-डाउन के पीछे का सच
कोरोना संकट से जूझ रहे भारत में लॉक-डाउन क्या सही कदम नहीं है? यह चर्चा कांग्रेस नेता राहुल गांधी के उस बयान के बाद शुरू हुई, जिसमें उन्होंने कहा कि लॉक-डाउन कोरोना का हल नहीं है।
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यह एक तरह से पॉज बटन की तरह है। एक्सपर्टस की राय भी यही है कि लॉक-डाउन कुछ समय के लिए कोरोना को रोक सकता है, मगर खत्म नहीं कर सकता है। लॉक-डाउन सिर्फ तैयारी करने का वक्त देता है।
अब यहां सवाल उठता है कि लॉक-डाउन प्रीकाउशनरी स्टेप है और इस बात को सारा विश्व मानता है, जिसमें भारत भी एक है। भारत की तरफ से भी यही कहा जा रहा है कि घर में रहें, सुरक्षित रहें। कोरोना वैक्सीन की खोज में भारत सहित विश्व भर के वैज्ञानिक जुटे हैं और ऐसे में क्या इसकी खोज व सफल ट्रायल होने तक बचना क्या गलत स्टेप है? आखिर क्यों जरूरत पड़ी लॉकडाउन-एक व दो की? क्या जरूरी के साथ मजबूरी भी है वजह?
क्या इससे पूरी तरह से नहीं टूटती है कोरोना की चेन? क्या फिलहाल सोशल वेक्सीन से ही हासिल करना होगा लक्ष्य? ऐसे में एक भी संक्रमित नहीं बच पाए यही रखना होगा लक्ष्य? ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब आज लगभग सबके पास है, लेकिन जवाब देने से बचना चाहता है। बचे भी क्यों नहीं, बड़े-बड़े सुविधा संपन्न देशों का हाल वो देख रहे हैं कि किस तरह वे लोग घरों में दुबक कर बैठने को मजबूर हो गए हैं। वे लोग भी सोशल डिस्टेंसिंग का ही सहारा ले रहे हैं क्योंकि उन्हें भी पता है कि कोरोना की प्रॉपर वैक्सीन की खोज में अभी तक कामयाबी हाथ नहीं लगी है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अपने वैज्ञानिकों खासकर युवा वैज्ञानिकों का आह्वान करते हुए कहा है कि सीमित संसाधनों में कोरोना वैक्सीन की खोज कर वे लोग दुनिया में मिसाल पेश करें। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल कि जब तक प्रोपर वैक्सीन की खोज नहीं हो पाती है तब तक सोशल डिस्टेंसिंग से ही क्या काम चलाना पड़ेगा? और ऐसा अभी मजबूरी है तो फिर यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ है कि लॉक-डाउन के जरिए सोशल डिस्टेंसिंग की कवायद कब तक चलती रहेंगी? हालांकि यह भी सच है कि कामचलाऊ व्यवस्था लॉक-डाउन से ही फिलहाल कोरोना की रोकथाम की कोशिश सारा विश्व कर रहा है। आइए, समझते हैं कि प्रॉपर कोरोना वैक्सीन की खोज नहीं हो पाने के बावजूद आखिर किस तरह सोशल डिस्टेंसिंग (लॉकडाउन) काम कर रहा है।
माना जा रहा है कि घरों में दो हफ्ते तक आइसोलेशन में रहकर एक तरफ जहां कोरोना मरीज ठीक हो रहे हैं, वहीं जो मरीज नहीं हैं और फिर भी खुद को हफ्ते-दस दिन अगर आइसोलेशन में रख लिया है तो उनके ऊपर इस महामारी का खतरा कम हो जाता है और साथ ही ऐसा करने से इस वायरस के खत्म होने की संभावना भी बढ़ जाती है। इसे माचिस की तीलियों वाली इस वीडियो से आसानी से समझा जा सकता है। इसमें साफ है कि किस तरह एक तीली के हट जाने के कारण आग रु क जाती है।
उधर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के विशेष दूत डेविड नाबरो का भी मानना है कि लॉक-डाउन के माध्यम से कोरोना वायरस के प्रकोप को रोका जा सकता है। उनके मुताबिक लॉक-डाउन-2.0 पर अधिक ध्यान केंद्रित करने और डेटा को संकलित करने की जरूरत है। उनका मानना है कि तीन एल को ध्यान में रखने की आवश्यकता है। तीन एल यानी लाइफ मतलब जीवन, लिवलिहुड मतलब आजीविका व लीविंग यानी जीने का तरीका। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसके साथ-साथ हमें भविष्य में भी वायरस का सामना करने की जरूरत होगी जब तक कि हम इसे पूरी तरह से मिटाने में सक्षम नहीं हो जाते हैं।
एक बात और जिस लॉक-डाउन, आइसोलेशन और सोशल डिस्टेंसिंग की बात आज की जा रही है, उसे हमारे पूर्वज हजारों सालों से इलाज में इसको आजमाते रहे हैं। क्या आपने कभी विचार किया है कि प्रत्येक वर्ष रथयात्रा के ठीक पहले भगवान जगन्नाथस्वामी बीमार पड़ते हैं। उन्हें बुखार एवं सर्दी हो जाती है। बीमारी की इस हालत में उन्हें क्वारंटीन किया जाता है जिसे मंदिर की भाषा में ‘अनासार’ कहा जाता है। भगवान को 14 दिन तक एकांतवास (आइसोलेशन) में रखा जाता है और 14 दिन ही कोरोना संक्रमितों को आइसोलेशन में रहने की सलाह दी जाती है। बता दें कि आइसोलेशन की इस अवधि में भगवान के दर्शन बंद रहते हैं एवं भगवान को तरल पदार्थ आहार में दिया जाता है। और यह परंपरा हजारों साल से चली आ रही है। जी हां, अब बीसवीं सदी में सलाह दी जा रही है कि आइसोलेशन व क्वारंटीन का समय 14 दिन होना चाहिए।
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