मीडिया : उनकी हमदर्दियां और अपना मीडिया
अपना मीडिया एकदम आजाद है। बहुत ही आजाद है। इतना आजाद है कि हर समय ‘कठोर सवाल’ पूछता है।
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कुछ लोग तो कठोर सवाल पूछने की ही खाते हैं, लेकिन ऐसे लोग अपने से या अपने बॉस से कभी एक नरम सवाल तक नहीं करते। यही सबसे बड़ा छलावा है।
जिस दिन दिल्ली में तब्लीगी जमात मरकज का किस्सा खुला, उस दिन तो सबने तब्लीगी जमात को खूब खरी-खोटी सुनाई, धमकाया, उसे बैन करने तक की मांग की, लेकिन जैसे ही तब्लीगियों ने धमकाया कि हमारा नाम बदनाम न करें, नहीं तो केस कर देंगे, तब से वे हिचकिचाने लगे। तब्लीग का नाम मीडिया में ‘सिंगल सोर्स’ हो गया।
ऐसी ही वीरता है चैनलों की।
इसी तरह जब एक निहंग ने पटियाला के पास एक सिपाही की कलाई को अपनी तलवार से इसलिए काट दिया क्योंकि उस सिपाही ने उससे कफ्र्यू-पास की मांग की थी। पहले तो चैनलों ने तलवार चलाने वाले को निहंग ही कहा लेकिन ज्यों ही एक प्रवक्ता ने कहा कि खबरदार जो किसी धर्म का नाम लिया तो कई चैनलों में उसे ‘गैंगस्टर’ कहा जाने लगा। इसी तरह इन दिनों बहुत से मीडियाकर्मी ‘लॉकडाउन’ के कारण लोगों के नौकरी से निकाले जाने पर आठ-आठ आंसू बहाते दिखते हैं, लेकिन जब कुछ बरस पहले ‘लॉकडाउन’ का दूर-दूर तक पता नहीं था और तब एक अंग्रेजी चैनल ने अपने यहां से तीन सौ से अधिक कर्मियों को एक झटके से निकाल दिया था तब ऐसे एंकरों को एक आंसू तक न आया। अपनी हमदर्दियों का हम लोग इसी तरह ‘सुरक्षित प्रदर्शन’ किया करते हैं। पहले देखते हैं कि अपना तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, फिर सेाचते हैं कि कहानी को कैसे ऐसा बनाएं ताकि हमदर्दी भी जताई जा सके और अपना कोई नुकसान भी न हो पाए।
‘लॉकडाउन’ के इस दौर में लाखों लोग बेरोजगार हुए हैं और उनमें से अधिकांश अपने-अपने घरों को लौट जाना चाहते हैं, लेकिन ‘लॉकडाउन के दौरान ‘जो जहां हैं वो वहां रहे’, और ‘आइसोलेशन’ तथा ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की नीति के चलते सरकारें उनको अपने-अपने गंतव्य की न जाने दे कर, अस्थायी कैंपों में रखकर कुछ पैसा और फ्री में भोजन दे रही हैं, जहां बहुत-सी दिक्कतें हैं। कोई भी प्रशासन कितना भी चुस्त-दुरुस्त हो, कहीं न कहीं कमी रह जानी है। लोगों के मन में महामारी का डर और भविष्य की दुष्चिंताएं हो ही सकती हैं। सब जानते हैं कि यह एक अभूतपूर्व स्थिति है, जिसके लिए दुनिया भर में कई विकसित देश तक तैयार नहीं थे। इसलिए कमजोर को हर जगह अपनी कीमत देनी पड़ रही है। आदमी सिर्फ दाल-चावल पर नहीं जीता। बच्चों को दूध चाहिए, हारी-बीमारी में इलाज चाहिए..। एक सामान्य जीवन के लिए बहुत कुछ चाहिए लेकिन वह इन दिनों अधिकांश के लिए संभव नहीं। लेकिन हमारे कुछ अति ज्ञानी जन, मुख्य मीडिया और सोशल मीडिया में आ-आकर हम सबको मुफ्त का ज्ञान देते रहते हैं।
‘चिर आत्मरति’ से ग्रस्त ऐसे लोग शिकायत करते रहते हैं कि यहां यह कमी है, वहां वो कमी है, लेकिन सचमुच में परेशान लोगों के पास उनकी मदद करने ये एक बार भी नहीं जाते। और जो ‘मदद’ करने जाते हैं, वे मदद कम, ‘फोटोऑफ’ अधिक करते हैं। उदाहरण के लिए उस ‘फोटो पोस्ट’ को याद करें, जिसमें एक गरीब को एक केला देने के लिए दस आदमी एक साथ फोटो खिंचा रहे थे या उस चित्र को याद कीजिए जिसमें बहुत सारे ‘उपकारी’ इक्कीस आलुओं को एक भगौने में उबालने के लिए डाल रहे थे और फोटो खिंचवा कर फेसबुक पर डाल रहे थे। संकट की ऐसी घड़ी में अपने देश से जिदंगी भर बाहर रहे और किसी तरह नोबेल झटक लाए ज्ञानी हमें ज्ञान न दें। ऐसा हो नहीं सकता। सो, दो नोबेल प्राप्त तथा रिजर्व बैंक के एक पूर्व गवर्नर जी ने हजार शब्दों का एक सामूहिक लेख एक अंग्रेजी दैनिक में छपवा कर ‘कमअक्ल’ सरकार को सलाह दी कि वह गरीबों के लिए पैकेज दे।
एक सज्जन ने तो अलग से एक अरजी भी लगा दी कि इस संकट में वे अपनी सेवाएं फिर से देने को तैयार हैं। अरे भैये! इतनी हमदर्दी न लुटाओ। सिर्फ इतना करो कि जिंदगी भर कमाते रहे डॉलरों में से कुछ डॉलर तथा अपने नोबेल की रकम में से ही कुछ डॉलर निकाल कर इन गरीबों में बांट दो जिनके लिए तुम इस कदर मरे जा रहे हो। लेख लिखने से बेहतर हो कि इनके बीच आकर इनको कुछ खिलाओ। संकट के दिनों में बहुत से लोगों को हमदर्दी का दौरा बहुत पड़ता है, लेकिन जेब से कुछ नहीं निकलता।
ऐसी हमदर्दी का कोई क्या करे?
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