मुद्दा : बापू की बुनियादी शिक्षा जरूरी

Last Updated 08 Apr 2020 12:56:12 AM IST

महात्मा गांधी जब से सामाजिक क्षेत्र में आए, और बालकों की जिम्मेदारी भी जब उन पर पडी, तो देश की आजादी के आंदोलन के दौरान हो या बाहर दक्षिणी अफ्रीका आदि स्थानों पर उन्होंने शिक्षा का भी काम किया।


मुद्दा : बापू की बुनियादी शिक्षा जरूरी

इस विषय पर उन्होंने सच्ची शिक्षा और शिक्षा की समस्या दो ग्रंथ लिखे, जिसमें शिक्षा का समग्र रूप देश के सामने प्रस्तुत किया था।
1920 में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना के बाद उन्होंने षिक्षा के प्रयोग प्रारम्भ किए थे। 1921 से 1935 के बीच का उनका जीवन बहुत ही सघर्ष में गुजरा। इस अवधि में चौरा-चौरी काण्ड, सत्याग्रह आंदोलन, हिन्दू-मुस्लिम एकता, चरखा संघ की स्थापना, पूर्व स्वाधीनता का प्रस्ताव, नमक सत्याग्रह, दाण्डी यात्रा आदि कार्य अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ किए गए थे। इसके बाद सन 1936 में गांधी ने वर्धा में सेवाग्राम आश्रम की स्थापना की। यह आश्रम आजादी के लिए संघर्ष करने वाले सभी नेताओं के मिलने का भी एक प्रमुख केंद्र रहा है।

इसके साथ ही इस स्थान पर शिक्षा के प्रयोग भी प्रारंभ किए थे। क्योंकि यह ध्यान रखना जरूरी है कि महात्मा गांधी आजादी के आंदोलन को सही दिशा देने के लिए कोई-न-कोई रचनात्मक कार्य करते रहे हैं, ताकि लोग समझ सकें कि आजादी पाकर वे स्वावलंबी तभी बन सकते हैं, जब उनके पास खेती, गोपालन, वस्त्र निर्माण, आरोग्य आदि बुनियादी शिक्षा के माध्यम से प्राप्त हो। उनका सपना था कि प्रत्येक विद्यार्थी को शिक्षा केंद्रों पर ऐसी तालीम मिले कि वह शिक्षा के बाद बेरोजगारों की पंक्ति में खड़ा न रहे। बापू ने सन 1937 में वर्धा शिक्षण योजना तैयार की थी, जिसे बुनियादी शिक्षा कहा गया था।

इस शिक्षा योजना के लिए एक परिषद बनाई गई थी, जिसने 22-23 अक्टूबर 1937 में एक कॉन्फ्रेंस करके उघोग द्वारा शिक्षा का यह मूल विचार परिषद ने ही पहले पहल अपनाया, जिसमें निर्णय लिया गया था कि देश में सब बच्चों के लिए सात वर्ष की मुफ्त और अनिवार्य तालीम की व्यवस्था हो। तालीम राष्ट्रभाषा में दी जाए। शिक्षा किसी दस्तकारी के माध्यम से दी जाए। इससे कुछ अर्जन करके शिक्षा केंद्र का कुछ मुनाफा भी हो। दस्तकारी का चुनाव स्थानीय आधार की आवश्यकता के अनुसार चुना जा सकता है। इससे आशा की गई थी कि अध्यापकों का खर्च भी इससे निकलना चाहिए।

इस प्रस्ताव को आगे ले जाते हुए बुनियादी शिक्षा के इस ढांचे के बाद प्राथमिक शिक्षा के लिए भी एक योजना बने। इसके लिए डॉ. जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई। वर्धा शिक्षा परिषद द्वारा बुनियादी शिक्षा के लिए सुझाए गए बिंदुओं को एक बुनियादी राष्टीय शिक्षा के नाम से एक दस्तावेज का प्रकाशन भी हुआ। इसकी सिफारिशों के अनुसार शिक्षकों के प्रशिक्षण पाठ्यक्रम से लेकर शिक्षा केंद्र की गुणवत्ता तक सारे विचार गांधी जी द्वारा ही दिए गए थे। 1938 में हिन्दुस्तानी तालीम संघ की बैठक में महात्मा गांधी ने कहा था कि अध्यापन मंदिर को ऐसा विद्यालय बनाना है, जहां हम आजादी हासिल कर सकें। बुराइयों और कौमी झगड़ों को मिटाना है। इस बुनियादी शिक्षा को नई तालीम का नाम देकर कहा गया कि हमारे अंदर जो निराशा है उसे उम्मीद में बदलना है। कंगालियत के स्थान पर रोटी का सामान तैयार करना है, बेकारी के स्थान पर काम धंधा मिलना चाहिए। ऐसे वातावरण को तैयार करने के दौरान लड़के-लड़कियां लिखना पढ़ना जानेंगे और हुनर हासिल करके स्वालंबन की ओर बढ़ सकते हैं।

यह मंत्र आजादी प्राप्त करने के लिए आवश्यक माना गया था। बापू का असल मकसद देश को शिक्षा के माध्यम से आत्मनिर्भर बनाने का था। जहां कल्पना की गई थी कि शिक्षक के अलावा अभिभावकों को भी नई तालीम के शिक्षक बनाने की योजना थी, ताकि घर गांव और शिक्षा केंद्र के बीच अलग-अलग दूरियां पाटी जा सके। उन दिनों भारत ब्रिटिश की गुलामी के साथ स्कूलों में क्लर्क बनाने वाली अग्रेजी शिक्षा और विदेशी वस्त्रों का प्रचार चरम सीमा पर था। इसी को रोकने के लिए नयी बुनियादी तालीम के साथ तकली व चरखे चलाकर वस्त्र स्वावलंबन के लिए शिक्षा का यह प्रयोग महत्त्वपूर्ण था। महात्मा गांधी अपने हर विचार मेंं कहते हैं कि वे जो कह रहे हैं, उसे थोपा नहीं जाना चाहिए। आजादी के बाद बापू भी गांव-गांव में स्वावलंबी शिक्षा खड़ी करके वास्तविक आजादी का सपना देखते थे। अत: आज बुनियादी तालीम के लिए सच्ची जरूरत तो ऐसे शिक्षकों की हैं, जिनमें नया सृजन करने और विचार करने की शक्ति हो, उत्साह और जोश हो, हर दिन क्या सिखाएगा यह सोचने की शक्ति हो। इसके अनुसार ही राज्यों को शिक्षकों का प्रशिक्षण करना चाहिए। तभी शिक्षक की दृष्टि क्रांतिकारी होगी तो शिक्षा पद्धति में क्रांति आएगी।

सुरेश भाई


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