सामयिक : सभ्यता के लिए संकट काल
अन्रेस्ट हेमिंग्वे के उपन्यास का नायक एक स्थान पर यह कहता है कि दिलालिएपन के दो रास्ते हैं। पहला धीमा और दूसरा अकस्मात।
सामयिक : सभ्यता के लिए संकट काल |
लेकिन कई सभ्यताओं के पतन की कहानी पढ़ते समय जो निष्कर्ष सामने आए वे बताते हैं कि सभ्याताओं का पतन (डिकलाइन) क्रमिक रहा और ध्वंस अकस्मात हुआ। इसके बाद वे सिर्फ अपने निशान छोड़ पाई, मूल्यों का तो हम सिर्फ अनुमान लगा सकते हैं और उनकी व्याख्या अपने-अपने ढंग से कर सकते हैं या करते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में जब हम कोविड-19 जैसी महामारी और उसके प्रभावों को देखते हैं तो इतिहास के वे पन्ने भी खुलने शुरू हो जाते हैं, जिनमें बहुत सी सभ्यताएं दफन हैं। अब देखना यह है कि कोविड-19 के प्रभाव और उससे उत्पन्न होने वाला इकोनॉमिक रेस्पांस का पैटर्न क्या होगा? इसी से यह तय हो पाएगा कि यह मानव मूल्यों एवं सभ्यता को किस हद तक प्रभावित करेगा?
यहां पर हमारे आकलन का परिप्रेक्ष्य अर्थव्यवस्था और उससे उपजी भौतिक सभ्यता तक है, जिससे सम्पूर्ण मानव संस्कृति और उसका जीवन प्रभावित होता है। आज कोविड-19 को लेकर पूरी दुनिया के अर्थशास्त्री अपनी डिबेट्स में केवल दो ही छोर पकड़ रहे हैं। पहला छोर यह है कि इसका प्रभाव अांकालिक यानी शॉर्ट-लिव्ड होगा और दूसरा है कि यह सस्टेन करेगा। कुछ अध्ययनों के अनुसार मध्य फरवरी से लेकर अब तक इस वायरस ने लगभग 23 ट्रिलियन की ग्लोबल मार्केट वैल्यू का खात्मा कर दिया है। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि इसका प्रभाव लम्बे समय तक रहा तो न केवल पूंजीवादी ढांचे के तंतु बिखरेंगे बल्कि इस पर खड़ी एक सम्पूर्ण सभ्यता खतरे में पड़ जाएगी।
यह तो निष्कर्षों की बात हुई, लेकिन इससे पहले यह जानना जरूरी लगता है कि आखिर जिस एम सम्पूर्ण सभ्यता को सदियों के परिश्रम के बाद खड़ा किया गया है उसके विनाश की कहानी कौन लिख रहा है? इसके लिए किसे जिम्मेदार माना जाए? प्रकृति या मनुष्य अथवा कोई और? दूसरा सवाल यह है कि शुरू में यूरोप और अमेरिका की सरकारों ने जो रवैया इस महामारी को लेकर अपनाया, क्या वह उचित था? एक सवाल यह भी है कि हम अब तक ग्लोबलाइजेन की डींगें हांकते रहे और इसे सम्पूर्ण विश्व की नियति बनाने के लिए दर्जनों देशों की अर्थव्यवस्था के ध्वंस के गवाह बनते रहे लेकिन आज उसी ग्लोबलाइजेशन की दुकानें और ऑफिसेज क्या कर रहे हैं? क्या वे उसी सक्रियता और ताकत के साथ कोरोना से दुनिया को बचाने के लिए कार्रवाई कर रहे हैं जैसी 9/11 के बाद अफगानिस्तान में हुई थी, इराक में हुई थी या फिर मध्य-पूर्व के अन्य देशों में हुई? इतिहास इस बात का गवाह है कि अधिकांश सभ्यताओं का विनाश पारिस्थितिकी संकट से ही हुआ, लेकिन इसके लिए दोषी कौन रहा? मनुष्य या उसके द्वारा निर्मित सभ्यताएं अथवा कुछ और? इस समय एक बार पुन: इस विषय पर विचार किया जा रहा है कि जैव विविधता की कीमत पर नई सभ्यता को स्थापित किया गया।
इस दौरान पूंजीवादी ताकतों ने न केवल मानव की जीवनशैली के साथ खिलवाड़ किया बल्कि सम्पूर्ण प्राणि जगत और प्रति तंत्र में असंतुलन पैदा कर दिया। खास बात यह रही कि उसने हर चीज को उद्यम का दरजा दिया और कमाई की एक ऐसी प्रतिस्पर्धा शुरू की जिसका दूसरा छोर कहीं था ही नहीं। यानी सभ्यता के अंत होने तक वह नहीं रुकनी है। इसने न केवल राष्ट्र-राज्यों के बीच नए संघर्ष की स्थापना की बल्कि मानवीय इकाइयों के साथ-साथ अन्य प्राणजन्य समूहों के तंत्र को डिस्टर्ब किया और उनके बीच बने संतुलन को बिगाड़ा। लेकिन फिर भी भूखांत नहीं हुयी। हालांकि इस बीच प्रकृति ने बहुत से झटके दिए, फिर वे चाहे सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं के रूप में हों अथवा स्वाइन फ्लू, र्बड फ्लू, एवियन फ्लू या कोरोना जैसी महामारियों के रूप में। इस पूरी प्रक्रिया में सभ्यता के अगुआकार यह भूल गये कि अदम्य भूख विराट चुनौतियां भी लेकर आती है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनका बाजारवाद मानता था कि पैसे से सब कुछ खरीदा जा सकता है और तकनीक में हर समस्या का निदान निहित है। कोई बताएगा कि लॉक-डाउन के वर्तमान वैश्विक उपायों में ये बाजार और तकनीक, दोनों कहां पर हैं ? इसका आकलन होना चाहिए, शायद आज दोनों हाशिए पर मिलेंगे। तभी तो महाबली घबराया हुआ है, वायरोलॉजिस्ट अपनी-अपनी बगलें झांक रहे हैं और आदमी अकेली-अकेली जिंदगी जीने या अकेले-अकेले मरने के लिए विवश हो रहा है, जबकि विश्लेषक उन दृष्टिकोणों को इकठ्ठा कर रहे हैं ताकि अपने निष्कषरे को परफेक्शन की सीमा तक ले जा सकें।
आखिर में बात फिर वहीं आ जाती है कि इसकी वजह क्या और इसे रखें किस श्रेणी में? कुछ विद्वान इसे जैविक युद्ध के नजरिए से देख रहे हैं। उनका तर्क है कि वा¨शगटन टाइम्स में एक इजरायली वैज्ञानिक के हवाले से लिखा गया है कि इस वायरस का निर्माण वुहान की एक प्रयोगशाला में किया गया। ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी। लेकिन हमें कारक पक्ष की बजाय प्रभाव पक्ष की दृष्टि से देखना चाहिए। पिछले दो दशक के युद्धों को देखें तो आसानी से पता चल जाएगा कि सम्पूर्ण मानवता ने अज्ञात और ज्ञात संकटों में घिरकर मृत्यु का सामना किया है, फिर चाहे वह अफगान युद्ध हो, इराक युद्ध हो, अरब स्प्रिंग हो या उसके बाद के संघषर्।
यह महामारी भी लोगों की जिंदगी ले रही है, जिसके उदय का कारण तो वर्तमान व्यवस्था ही है, जिसमें बाजार और तकनीक दोनों ही शामिल हैं। संभव है कि यह सस्टेन करे। यदि ऐसा हुआ तो स्थितियां बेहद भयावह होंगी। अमेरिका और चीन आमने-सामने हैं। डि-कपल हो चुकी वैश्विक अर्थव्यवस्था और नई विश्व व्यवस्था की संभावनाएं इन दोनों देशों को एक ऐसे संघर्ष की ओर ले जा सकती हैं, जो यह तय करने का काम करे कि अगला ग्लोबल पावर कौन होगा। यह संघर्ष संभ्रांतता का नहीं होगा इसलिए उन हथियारों का इस्तेमाल भी संभव है, जो सम्पूर्ण मानवता को संकट में डाल सकते हैं। इसलिए इस बात से बिल्कुल इनकार नहीं किया जा सकता कि कोरोना किसी जैविक हथियार का प्रतिनिधित्व नहीं करता या उसका प्रसार किसी जैविक आतंकवाद का हिस्सा नहीं हो सकता। जो भी हो कोरोना वायरस ने यदि कुछ शंकाओं को जन्म दिया है तो इसके साथ ही विश्व की प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं को स्वयं का मूल्यांकन करने का अवसर भी प्रदान किया है।
| Tweet |