शहर सुधार : स्मार्ट एन्क्लेव स्कैम है क्या?

Last Updated 09 Apr 2020 03:27:02 AM IST

शहरों को अवसरों के केंद्र के रूप में देखा जाना नया नहीं है। रोजगार, व्यावसायिक गतिविधियों, बेहतरीन इंफ्रास्ट्रक्चर आदि सुविधाओं के अलावा उन्हें सत्ता के केंद्र के रूप में भी देखा जाता है।


शहर सुधार : स्मार्ट एन्क्लेव स्कैम है क्या?

विकसित देशों के न्यूयॉर्क, लंदन, टोक्यो के साथ-साथ अपने दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई आदि तमाम महानगर चौतरफा विकास के कारण लोगों के आकषर्ण के केंद्र रहे हैं। हालांकि इक्कीसवीं सदी आते-आते कानपुर, लुधियाना, अहमदाबाद जैसे शहर भी उन सारी कसौटियों पर कसे जाने लगे, जिन कसौटियों पर पहले चुनिंदा शहर ही गिनाए जाते रहे हैं। इस नजरिए को तब और विस्तार मिला, जब 2015 से हमारे देश में सरकार ने स्मार्ट सिटी परियोजना की जोरशोर से शुरु आत की। दावा किया गया कि इस परियोजना में आने वाले देश के सौ शहर जल्द ही तरक्की के हर मामले में महानगरों का मुकाबला कर रहे होंगे। 
2015 में स्मार्ट मिशन के तहत सौ शहरों को स्मार्ट बनाने का वादा इस इरादे से किया गया था कि इस अवधि में कुछ पुराने शहरों की हालत सुधारी जाएगी। वहीं कई नये शहरों को उन सारी सुविधाओं से लैस किया जाएगा जिनके लिए आबादी का पलायन दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों की ओर होता है। इस परियोजना का एक उद्देश्य बड़े शहरों पर दबाव कम करना भी बताया गया। लेकिन कोरोना वायरस के मौजूदा परिप्रेक्ष्य को देखें तो पता चलता है कि गिने-चुने शहरों में बसने और रोजगार पाने की लालसा ने उन शहरों का इंफ्रास्ट्रक्चर तो बिगाड़ा ही है, आपदाओं की दशा में उन शहरों से मूल स्थानों की ओर भाग खड़े होने की भयानक प्रवृत्ति ने भी हाल के एक-दो दशकों ने जोर पकड़ा है।

विडंबना है कि जिन शहरों की प्रशंसा रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ विकास के कई दूसरे प्रतिमानों के लिए की जाती है, महामारी या अन्य मुश्किलों (जैसे कोई अफवाह फैलना) के वक्त में वहां आकर काम करने या बसने वाली भारी आबादी उनके इंफ्रास्ट्रक्चर पर जरा भी भरोसा नहीं करती। लोगों को गांव-देहात वाले अपने मूल स्थानों को लौटना श्रेयस्कर लगता है। अहम सवाल है कि क्या वजहें रहीं कि स्मार्ट सिटी मिशन पांच साल में ही पटरी से उतरता नजर आ रहा है। सवाल का जवाब मिलता है कि स्मार्ट सिटी परियोजना सरकार के लिए प्रचार का जरिया भर है। विपक्षी पार्टयिां अक्सर यह आरोप मोदी सरकार पर लगाती हैं। यह भी कहा जाता है कि स्मार्ट सिटी की कोई तय परिभाषा नहीं है। इसलिए इंदौर आदि शहरों के अपवाद को छोड़कर ज्यादातर राज्य सरकारों और नगर प्रशासनों ने इसकी मद में मिले पैसों का या तो मनमाना इस्तेमाल कर डाला या फिर उस फंड को खर्च ही नहीं किया। उल्लेखनीय है कि सरकार ने इस मिशन के तहत दिसम्बर, 2018 तक पांच हजार से ज्यादा योजनाओं के क्रियान्वयन को मंजूरी दी थी। इसके बाद जनवरी, 2019 में कहा गया कि इस मिशन के अंतर्गत 39 फीसदी योजनाएं या तो जारी हैं, या पूरी हो चुकी हैं। लेकिन आंकड़ों में साबित हुआ कि राज्य सरकारों ने इस मिशन के लिए आवंटित फंड के बहुत कम हिस्से का ही उपयोग किया। 2015-2019 के बीच इस मिशन के लिए सरकार ने 166 अरब रु पये का बजट आवंटित किया था, लेकिन जनवरी, 2019 में खुद सरकार ने मान लिया कि इसमें से सिर्फ  साढ़े 35 अरब रु पये ही खर्च किए जा सके। हालांकि इस खर्च को भी संदिग्ध माना जा रहा।
आरोप लगाया जाता है कि जितना धन खर्च हुआ है, उसमें से 80 फीसदी तो शहरों के कुछ खास हिस्सों (जहां प्रतिष्ठित और संभ्रात तबका निवास करता है) की मरम्मत में ही खर्च कर दिया गया, जबकि उसे पूरे शहर के विकास में लगाया जाना था। इसी से साफ हो जाता है कि शहरों में आकर बसने वाले आम नागरिकों के मन में अपने मूल स्थानों से लगाव और इन शहरों से दुराव की असली वजहें क्या हैं। एनजीओ-हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क का आरोप बेवजह नहीं है कि यह परियोजना स्मार्ट एन्क्लेव स्कैम है। हालांकि सरकार इन आरोपों से इनकार करती है।
संसदीय समिति की एक रिपोर्ट में दावा किया गया कि अक्टूबर, 2017 के मुकाबले 2019 में स्मार्ट सिटी मिशन के तहत पूरी होने वाली योजनाओं में करीब पांच सौ फीसदी (479 प्रतिशत) का इजाफा हुआ है। शहरी मामलों के राज्य मंत्री हरदीप पुरी कहते हैं कि अगर दिसम्बर, 2019 तक सौ में से 50 योजनाओं पर अमल हो चुका है तो यह स्मार्ट सिटी मिशन और सरकार, दोनों की कामयाबी है। लेकिन सरकार इस सच्चाई से तो मुंह नहीं फेर सकती कि फंड के समुचित इस्तेमाल न होने, सुसंगत योजना के अभाव और क्रियान्वयन में अनगिनत खामियों के कारण इस मिशन की डेडलाइन खिसका कर 2023 तक ले जानी पड़ी है।

अभिषेक कुमार सिंह


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment