सामयिक : सड़कों पर बदहवासी

Last Updated 30 Mar 2020 04:01:15 AM IST

स्पैनिश फ्लू से 1918 में भारत में लगभग दो करोड़ लोग मारे गए थे, जबकि उस वक्त भारत की आबादी मात्र बीस करोड़ थी।


सामयिक : सड़कों पर बदहवासी

कोरोना का असर कब तक, कितना घातक और किस-किस इलाके में होगा, उसका अभी कोई आकलन नहीं है। कारण यह है कि जब से चीन में कोरोना फैला है, तब से दुनिया भर से लगभग डेढ़ लाख लोग भारत आ चुके हैं और ये सभी लोग पूरे भारत में फैल गए हैं। इनमें से कितने लोग कोरोना के पॉजिटिव हैं, कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता क्योंकि कोरोना का परीक्षण करने की बहुत सीमित सुविधाए देश में उपलब्ध हैं। ऐसे में विभिन्न देशों के अलग-अलग विशेषज्ञों द्वारा भारत में कोरोना के संभावित असर पर अनेकों तरह की भविष्यवाणियां की जा रही हैं, जो झकझोरने और आतंकित करने वाली हैं।

इन सब विशेषज्ञों का मानना है कि भारत की बहुसंख्यक गरीब आबादी, जिसके लिए  सामाजिक दूरी बना कर रहना असंभव है, अगर  इस बीमारी की चपेट में आ गई तो इस भयानक स्थिति पर काबू पाना दुष्कर हो जाएगा। जब मेडिकल सुविधाओं में दुनिया का अग्रणी देश इटली कोरोना के कहर के आगे लाचार हो गया है, तो भारत जैसे देश की क्या बिसात है? वहीं ज्योतिषियों द्वारा नक्षत्रों के अध्ययन के आधार पर दावा किया जा रहा है कि 14 अप्रैल के बाद कोरोना के कहर से स्वत: ही मुक्ति मिल जाएगी। यहां यह दर्ज करना उल्लेखनीय है कि ऐसा कोई दावा वैज्ञानिकों द्वारा नहीं किया जा रहा है, जब तक कि कोरोना को भगाने का वैक्सिन सहजता से सब के लिए उपलब्ध न हो जाए।

ऐसे में लॉक-डाउन ही सबसे कारगर तरीका हो सकता था और वही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश भर में लागू किया है। जहां लॉक-डाउन के फायदे हैं, वहीं इसका जो दुष्प्रभाव अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है, उससे उबरने में लंबा समय लगेगा। इस लॉक-डाउन में उन लोगों पर तो केवल मनोवैज्ञानिक दबाव है, जिनके पास घर बैठ कर परिवार के पालन-पोषण के लिए समुचित संसाधन मौजूद हैं। उनकी समस्या तो फिलहाल केवल समय काटने भर की है, या फिर उन्हें अपने भविष्य को लेकर चिंता है पर लॉक-डाउन का सबसे ज्यादा असर आम आदमी पर पड़ा है, जो रोजगार की तलाश में अपने गांव-जंगल छोड़ कर करोड़ों की तादाद में शहरों की गंदी बस्तियों में दिहाड़ी मजदूर की तरह रह रहा है।

इनके पास न तो पेट भरने को पैसे हैं और न घर लौटने को साधन। मजबूरी में ऐसे हजारों लोग कई दिन भूखे रह कर, अपनी पोटली सिर पर लाद कर, अपने गांवों के लिए सपरिवार पैदल ही निकल पड़े हैं। लेकिन महानगरों से कई सौ मील दूर बसे अपने गांव पहुंचने के लिए न तो इनके शरीर में ताकत है, न ऊर्जा। इस भीड़ में बदहवास महिलाएं और बच्चे भी हैं। इस महापलायन के हृदयविदारक चित्रों को देख कर कलेजा मुंह को आ जाता है। ज्यादा संभावना इस बात की है कि ये बेचारे कहीं रास्ते में ही दम न तोड़ दें। इनके लिए सरकार को व्यापक प्रबंध करने चाहिए। फौज के ट्रक इन्हें इनके गंतव्य तक पहुंचा सकते हैं। ऐसे में राज्य सरकारों को कुछ ऐसा करना चाहिए जैसा कि कांवड़ यात्रा के दौरान जगह-जगह पड़ाव बनाए जाते हैं। 

इन पड़ावों में यात्रियों के लिए भोजन, आराम और कोरोना की जांच की सुविधा भी होनी चाहिए जिससे कि संक्रमित व्यक्तियों को आगे जाने से रोका जा सके और बचे हुए लोगों को उनके गंतव्य तक सुरक्षित भेजा जा सके। इसके लिए प्रशासन को सेवानिवृत्त स्वास्थ्य अधिकारी जैसे नर्स, डॉक्टर इत्यादि की मदद लेनी चाहिए। केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे लोगों की मदद के लिए अनेक कदम उठा रही हैं पर हम जानते हैं कि जब कहीं प्राकृतिक विपदा जैसे बाढ़ या भूचाल आदि आते हैं, तो राहत का ज्यादातर पैसा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। गरीब तक तो पहुंचता ही नहीं। दरअसल, इन लोगों की यह समस्या नई नहीं है। इसकी जड़ में है भारत के आर्थिक विकास का वो मॉडल जिसे आजादी के बाद लागू किया गया।

यह सही है कि इस मॉडल ने भारत में आधारभूत ढांचा खड़ा करने में बड़ी भूमिका निभाई परंतु इस दौड़ में गांधी जी का ग्राम स्वराज का मॉडल बहुत पीछे छूट गया जबकि उस मॉडल के अनुसार भारत के 5.5 लाख गांवों को हर मामले में आत्मनिर्भर बनाना था। जैसे वे 200 साल की अंग्रेजी हुकूमत के पहले हुआ करते थे पर यह नहीं हो सका। सारा जोर उद्योगों और अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर दिया गया। इस कारण गांवों में बेरोजगारी की समस्या तेजी से बढ़ती गई। रोजगार की तलाश में मजबूरन करोड़ों लोगों को अपने गांवों से निकल कर शहर की गंदी बस्तियों में आ कर बसना पड़ा जहां का जीवन तब भी नारकीय था और आज भी है।

अगर गांवों में रोजगार मिल जाते तो बहुत कम संसाधनों में भी लोग बोझ जैसा नहीं बन पाते। गांवों में शुद्ध हवा, पानी और भोजन पाकर स्वस्थ और सुखी होते। तब न तो इन्हें नोटबंदी की मार पड़ती, न नारकीय बस्तियों में रहने की मजबूरी होती और न ही कोरोना के कहर में बदहवास होकर पैदल गांवों की ओर लौटना पड़ता। चिंता और दु:ख की बात तो यह है कि हमारे नीति-निर्माता आज भी चमक-दमक वाले उसी विकास की ओर दौड़ रहे हैं, जो आज बहुसंख्यक भारतीयों की बदहाली का कारण है। समझदार आदमी अपने घर में बंद बैठ कर आज यह महसूस कर रहा है कि हमारी जीवनशैली पृथ्वी के लिए खतरा बन चुकी है। इसमें अब पूरे बदलाव की जरूरत है। ऐसे में भारत के नीति-निर्माताओं को गांधी जी की पुस्तक ‘ग्राम स्वराज’ को ध्यान से पढ़ कर, मनन करके, उस मॉडल की ओर सक्रिय हो जाना चाहिए नहीं तो भविष्य में प्रकृति की मार फिर से बहुत भयावह हो सकती है। क्या हमारे हुक्मरान इस विषय पर गंभीरता से चिंतन करेंगे? या गांवों की ओर इसी तरह पलायन की कवायद चलती रहेंगी?

विनीत नारायण


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