बिहार : नये समीकरण की सुगबुगाहट

Last Updated 20 Feb 2020 07:11:22 AM IST

प्रशांत किशोर उर्फ पीके देश की राजनीति के लिए अब कोई नया नाम नहीं है। करीब 10 वर्षो से खुद को राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में स्थापित कर चुके प्रशांत कुछ और करने की ठान चुके हैं।


बिहार : नये समीकरण की सुगबुगाहट

शायद इसी छटपटाहट का परिणाम था कि 18 फरवरी को उन्होंने पटना में संवाददाता सम्मेलन आहूत किया। देश की राजनीति को पीके बहुत पहले से परोक्ष रूप से समझते रहे हैं।
जद (यू) में बतौर उपाध्यक्ष पुत्रभाव में नीतीश कुमार से प्यार और कायदे के राजनीतिक गुर सीखने के बाद उन्हें लगा कि बिहार में भी केजरीवाल टाइप प्रयोग किया जा सकता है। केजरीवाल ने आम लोगों को अपने लिए खास बनाया तो पीके ने इसके लिए बिहार के युवाओं पर अपना टारगेट किया। पीके ने दावा किया कि अभी बिहार के करीब पौने तीन लाख युवा उनके संपर्क में हैं, जिन्हें 20 मार्च तक 10 लाख करने का लक्ष्य है। यह लक्ष्य प्राप्त करने के लिए वे बिहार के 8800 पंचायतों से जुड़े 1000 युवकों की बकायदा एक समर्पित टीम तैयार करने में जुट गए हैं। संवाददाता सम्मेलन में पीके एक रणनीतिकार के साथ-साथ सधे राजनीतिककार के रूप में स्थापित करने में सफल रहे। उन्होंने सलीके से नीतीश के साथ-साथ बिहार के तमाम नेताओं की बधिया उधेड़ी। नीतीश के साथ अपने संबंधों को बड़े ही आत्मीय तरीके से पेश तो किया लेकिन लगे हाथ उनके 15 साल के शासन की पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी सामने रख दी। तकरे और आधिकारिक रिपोर्ट्स के आधार पर बताने में सफल रहे कि 15 साल पहले जहां बिहार था, आज भी वहीं खड़ा है। शिक्षा, स्वास्थ्य या रोजगार की बात हो, हर क्षेत्र में बिहार की सरकार फेल है क्योंकि आने वाले 10 वर्षो में बिहार कहां होगा, इसकी प्लानिंग किसी के पास नहीं है। सामाजिक विज्ञान की भाषा में कहें तो सरकार के पास भविष्य की कोई योजना नहीं है।

पीके एक सधे नेता के तर्ज पर बड़े ही आत्मविश्वास के साथ कई झूठ एक साथ बोल गए। बिहार सरकार की योजनाओं के लिए कभी विकर्मा की भूमिका में रह चुके पीके ने बताना मुनासिब नहीं समझा कि आखिर, वो कहां तक इसके लिए जिम्मेदार हैं। नीतीश को लपेटते हुए गांधी और गोडसे की चर्चा की, लेकिन बताना भूल गए कि जिस गोडसे को लेकर वह नीतीश को घेर रहे हैं, उसी गोडसे की कथित रूप से समर्थक पार्टी के लंबे समय तक रणनीतिकार रहे हैं। अपनी सफलता की बखान करते हुए कहना भूल गए कि आखिर, वो उत्तर प्रदेश में किस तरह असफल रहे और किस कारण से उन्हें पंजाब से रुखसत होना पड़ा था। इनकार नहीं किया जा सकता है कि जनता की नब्ज को पीके अच्छी तरह समझते हैं। शायद यही वजह है कि उन्होंने बिहार में वर्तमान सरकार की लोकप्रियता को वैज्ञानिक तरीकों से परखते हुए नये विकल्प के तौर पर खुद को पेश करने में जुट जाना ही बेहतर समझा। बेशक, इसके लिए उन्हें मुक्कमल खाद-पानी दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम से मिला है। संभव है कि आने वाले समय में बिहार में ‘आप’ के चेहरे के रूप में पीके स्थापित हों और जनता का मूड भांपने के लिए पूरे बिहार का दौरा करना पीके की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा माना जाना चाहिए। मगर एक पेच है जो बिहार की राजनीति समझने वाले लोगों को परेशान कर सकता है।
पीके का सीधे तौर पर राजनीति में कूदने का यह समय सूबे के दूसरे फायर ब्रांड युवा वामपंथी नेता कन्हैया कुमार के साथ-साथ माना जा रहा है। इसका संकेत भी पीके दे चुके हैं। उन्होंने अपने बयान में कहा है कि कन्हैया बिहार का भविष्य हैं। जाहिर है, आने वाले समय में दोनों एक-दूसरे के पूरक बन सकते हैं, या यूं कहें कि दोनों मिलकर एक बड़े वोट बैंक को प्रभावित कर सकते हैं। बिहार की राजनीति में जाति बड़ा कारक रहा है। हर पार्टी चुनाव में जातीय धर्म का पालन करना अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानती है।
कन्हैया और पीके, दोनों सवर्ण हैं और नीतीश को लेकर बिहार के सवर्णो में नाराजगी है। पीके इस सच्चाई को बेहतर जानते-समझते हैं। संभव है कि पीके इस सच को अपने हित के लिए वोट में बदलना चाहते हों और इसके लिए उन्हें अरविन्द केजरीवाल का साथ मिल सकता है। अरविन्द केजरीवाल को भी दिल्ली से बाहर हिंदी पट्टी इलाकों में फैलने की अकुलाहट है, जिसे पीके के जरिए अंजाम दिया जा सकता है। फिलवक्त प्रतीक्षा करना बेहतर होगा क्योंकि जनता भी काफी हद तक समझदार हो चुकी है। उसे नफे-नुकसान की बेहतर समझ है। संभव है, बिहार एक बार फिर से नई राजनीति की प्रयोगशाला बने जहां जाति-धर्म से ऊपर उठकर नई सोच-समझ से लवरेज नया और आदर्श चुनावी परिणाम मिले।

सुनील पांडेय


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